न्याय याचना-- खंड काव्य…एक दृष्टिकोण

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  • vandana gupta
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  • दोस्तों ,
    अभी कुछ दिन पहले मुझे वेद व्यथित जी ने अपनी लिखी किताब भेजी जिसे पढ़कर मुझे लगा कि आप सबको उससे रु-ब-रु होना चाहिए क्योंकि उस चरित्र के बारे में तो मैंने भी कभी नहीं सुना था और पढ़कर एक नया दृष्टिकोण मिला जिसने सोचने पर विवश किया तो लगा इससे हमारा ब्लॉगजगत क्यूँ महरूम रहे इसलिए आप सबके सामने अपने विचार प्रस्तुत कर रही हूँ जो उस किताब को पढ़कर मैंने महसूस किये उम्मीद है पढने के बाद आपको भी ऐसा लगे कि एक बार वो किताब जरूर पढनी चाहिए.

    वेद व्यथित जी द्वारा लिखित खण्ड काव्य "न्याय याचना" महाभारत  से उद्धृत एक चरित्र का न्याय व्यवस्था से की गयी गुहार है. एक ऋषि गालव  जो अपनी उपासना में लीन है और सूर्य भगवान को अर्घ्य देना चाह रहे हैं यदि ऐसे में मद में मस्त किसी के द्वारा उनकी अंजुली में लापरवाही से बिना देखे पीक थूक देना क्या न्यायोचित कार्य है और वो भी उस समय के परिवेश में जब ऐसी लापरवाही  या अन्जाने में  किया कृत्य भी स्वीकृत नहीं माना जाता था और फिर उसके कृत्य को उसके द्वारा पश्चाताप की  आग में जलता हुआ दिखा क्षमादान की  प्रार्थना करना वो भी जीवन के भय से कहाँ तक न्यायसंगत है ..........ये प्रश्न कवि का न्यायोचित है  . शायद तब भी न्यायोचित था और आज के सन्दर्भ में भी. क्या कोई भी गुनाह करके यदि अपराधी कहे कि उसे बेहद पश्चाताप है तो ये कहाँ तक तर्कसंगत होगा क्या समाज में गलत सन्देश नहीं जायेगा? न्यायपालिका से सबका विश्वास नहीं उठेगा क्या ? सब सोचेंगे कि गलती करके पछतावा कर लो और दंड से बच जाओ? कवि सामाजिक और न्यायिक व्यवस्था  के समक्ष प्रश्न खड़ा करता है और ये सबकी बुद्धि पर छोड़ता है कि कौन सा निर्णय उचित है ? साथ ही एक ऋषि का अपमान और दोषी का बचाव जो उस काल में न्यायसंगत ठहराया गया वो ही तो आज भी घटित हो रहा है अब इसे उस काल से आ रही परंपरा कहें या उस ऋषि का श्राप या उसकी दुखी आत्मा का कहर...........वही सब आज भी परंपरा  दोहराई जा रही है जिसका राज है वो जो चाहे कह सकता है कर सकता है और यदि कोई ऋषि, कोई संत इस बारे में आवाज़ उठाता है तो उस पर ही आक्षेप लगाये जाते हैं , उसे ही प्रताड़ित किया जाता है. आज के माहौल में ऐसा बेजोड़ तर्कसंगत खंडकाव्य लिखकर कवि ने तब के और आज के समाज और न्याय पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है जो ये सोचने को मजबूर करता है कि हम कब तक सदियों से आ रही  सड़ी गली परम्पराओं  को ढोने पर मजबूर होते रहेंगे .क्या उसी समय नही कलयुग की  नींव रखी गयी  ऐसी गलत परंपरा को बढ़ावा देकर ............एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर कवि को सबसे अपेक्षित है .

    वेद जी का मेल और फ़ोन साथ में दे रही हूँ अगर कोई इसे मंगाकर पढना चाहता है ये कोई भी विचार इस सन्दर्भ में रखना चाहता है तो इस बारे में उनसे संपर्क कर सकता है . मैंने सिर्फ वो ही लिखा है जो उनकी किताब में पढ़ा और पढने के बाद महसूस किया यदि इसके बारे में और कोई जानकारी हो तो उसके बारे में मुझे नहीं पता इसलिए इस सन्दर्भ में जो भी बात करनी हो वो कृपया वेद जी से ही करें. 

    M:09868842688

    2 टिप्‍पणियां:

    आपके आने के लिए धन्यवाद
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