“…हिंदी दैनिक अमर उजाला ने अपने नियमित स्तंभ ब्लॉग कोना को बंद करते देर नहीं लगाई …” (संदर्भ - अजय कुमार झा की ब्लागपोस्ट )
एक बात तो तय है कि, अखबार वाले विज्ञापकों से पैसा तो उचक-उचक कर लेते हैं …फिर उसी पैसे से कागज का भुगतान करते हैं, छपाई-ढुलाई मशीन का खर्चा देते हैं, तकनीक ख़रीद व उसके प्रयोग का भुगतान करते हैं, अपनी कारों में अघा कर पेट्रोल भरते हैं, उन कारों पे ‘प्रैस’ लिख कर यहां-वहां और न जाने कहां-कहां गुर्राते डोलते हैं, पांच-सितारा होटलों के बिल चुकाते हैं, मौक़ा लगते ही दारू भी गटक लेते हैं, तन्ख्वाहें सटक लेते हैं सो अलग…. पर लेखक के काम पर चवन्नी भी खर्च करना तो दूर, दुम दबा कर यूं कालम बंद कर चलते बनते हैं.
यहां भी कौन परवाह है करता है. खूब बंद किया करें कालम, ठेंगे से. मुन्ना, गर माल छापोगे तो पैसा काहे नहीं दोगे ! किसका माल समझ रखा है. दम है तो छापो न अख़बार बिना पाठन सामग्री के…
ब्लागरों को अपनी रचनाओं की इस उठाइगिरी को, छपने का एहसान मानने के बजाय ताल ठोक कर अपना हक़ मांगना चाहिये.
जब ओमपुरी की ‘अर्ध सत्य’ हिट हो गई तो बासु चटर्जी ने ओमपुरी को अपनी किसी अगली फ़िल्म में साइन करने का बुलावा भिजवाया. संदेशवाहक से ओमपुरी ने पूछा कि फ़िल्म तो भइये मैं कर लूंगा पर ये पूछ बताओ कि मेरा मेहनताना कितना होगा. आदमी हैरान (!) – “क्या बात करते हो ! बासु चटर्जी से पैसा ? लोग तो उनके साथ काम करने को अपना सौभाग्य मानते हैं.”
ओमपुरी ने कहा था कि मैं कल तक इसी बंबई में एक्टिंग क्लासें ले-ले कर खुद को चलाए हुए था तब तो मुझे किसी बासु चटर्जी ने साइन नहीं किया. भाई, आज मुझे साइन करने पर खर्चा करना पड़ता है.
यह दम्भ नहीं था, बाज़ार की सच्चाई थी. ब्लागरों को ओमपुरी बनना चाहिये. अगर आपके लेखन में दम है तो मुफ़्त में क्यों छपना चाहते हैं आप ! मुफ़्त प्रकाशन के लिए आपका ब्लाग कम है क्या ! कम से कम यहां आपके लेखन से दूसरा तो नोट नहीं बना रहा न.
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(कुछ अजीब सा लग रहा है भाई अजय कुमार झा की ब्लागपोस्ट पर की गई अपनी टिप्पणी को यहां यूं पोस्ट के रूप में डालते हुए पर ऐसा करने के भी दो कारण है :- पहला तो ये कि मैं कम से कम किसी दूसरे का माल तो नहीं उड़ा रहा और दूसरा ये कि अविनाश भाई इसे अन्यथा नहीं ही लेंगे ) - काजल कुमार
एक बात तो तय है कि, अखबार वाले विज्ञापकों से पैसा तो उचक-उचक कर लेते हैं …फिर उसी पैसे से कागज का भुगतान करते हैं, छपाई-ढुलाई मशीन का खर्चा देते हैं, तकनीक ख़रीद व उसके प्रयोग का भुगतान करते हैं, अपनी कारों में अघा कर पेट्रोल भरते हैं, उन कारों पे ‘प्रैस’ लिख कर यहां-वहां और न जाने कहां-कहां गुर्राते डोलते हैं, पांच-सितारा होटलों के बिल चुकाते हैं, मौक़ा लगते ही दारू भी गटक लेते हैं, तन्ख्वाहें सटक लेते हैं सो अलग…. पर लेखक के काम पर चवन्नी भी खर्च करना तो दूर, दुम दबा कर यूं कालम बंद कर चलते बनते हैं.
यहां भी कौन परवाह है करता है. खूब बंद किया करें कालम, ठेंगे से. मुन्ना, गर माल छापोगे तो पैसा काहे नहीं दोगे ! किसका माल समझ रखा है. दम है तो छापो न अख़बार बिना पाठन सामग्री के…
ब्लागरों को अपनी रचनाओं की इस उठाइगिरी को, छपने का एहसान मानने के बजाय ताल ठोक कर अपना हक़ मांगना चाहिये.
जब ओमपुरी की ‘अर्ध सत्य’ हिट हो गई तो बासु चटर्जी ने ओमपुरी को अपनी किसी अगली फ़िल्म में साइन करने का बुलावा भिजवाया. संदेशवाहक से ओमपुरी ने पूछा कि फ़िल्म तो भइये मैं कर लूंगा पर ये पूछ बताओ कि मेरा मेहनताना कितना होगा. आदमी हैरान (!) – “क्या बात करते हो ! बासु चटर्जी से पैसा ? लोग तो उनके साथ काम करने को अपना सौभाग्य मानते हैं.”
ओमपुरी ने कहा था कि मैं कल तक इसी बंबई में एक्टिंग क्लासें ले-ले कर खुद को चलाए हुए था तब तो मुझे किसी बासु चटर्जी ने साइन नहीं किया. भाई, आज मुझे साइन करने पर खर्चा करना पड़ता है.
यह दम्भ नहीं था, बाज़ार की सच्चाई थी. ब्लागरों को ओमपुरी बनना चाहिये. अगर आपके लेखन में दम है तो मुफ़्त में क्यों छपना चाहते हैं आप ! मुफ़्त प्रकाशन के लिए आपका ब्लाग कम है क्या ! कम से कम यहां आपके लेखन से दूसरा तो नोट नहीं बना रहा न.
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(कुछ अजीब सा लग रहा है भाई अजय कुमार झा की ब्लागपोस्ट पर की गई अपनी टिप्पणी को यहां यूं पोस्ट के रूप में डालते हुए पर ऐसा करने के भी दो कारण है :- पहला तो ये कि मैं कम से कम किसी दूसरे का माल तो नहीं उड़ा रहा और दूसरा ये कि अविनाश भाई इसे अन्यथा नहीं ही लेंगे ) - काजल कुमार
अजी हम तो कब से कह रहे हे, लेकिन यहां तो लोग इन की चोरी पर एक दुसरे को बधाई देते हे, मेहनत आप की कमाई किसी ओर भी, बधाई दोस्तो की.
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं.
काजल भाई, बहुत खूब। बिल्कुल सत्य। शीघ्र ही इस विषय एक ब्लॉगरों की सभा आयोजित की जाएगी, जिसे आपकी उपलब्धतानुसार रखेंगे। आप इतने दिन कहां रहे ? और निष्कर्षों तथा लिए गए निर्णयों को अपने अपने ब्लॉगों पर प्रकाशित किया जाएगा।
जवाब देंहटाएंजो सार्थक है, वो निरर्थक नहीं हो सकता और अन्यथा तो तब लिया जाएगा, गर आपने बैठक में उपस्थित होकर धन्य नहीं किया तो ... और यही तो इस माध्यम की असली आजादी है।
जवाब देंहटाएंअच्छी बात कही हैं , आपने तो बड़े भाई.... ससुरा जब फ्री में ही छापना हैं तो अपना ब्लॉग ही काफी हैं. क्यों अख़बार कि टी र पि हम बढवाने में मदद करे.
जवाब देंहटाएंवैसे तो हम नाहक ही परेशान हुए जा रहे हैं , अभी कौन सा हम इतने बड़े लेखक हो गये हैं.
bahut sahi bat kahi hai aapne.blog lekhakon ko akhbar valon ki ye chaploosi to chhodni hi padegi..
जवाब देंहटाएंमुफ़्त प्रकाशन के लिए आपका ब्लाग कम है क्या !-सही कहा आपने!
जवाब देंहटाएंसही है, ब्लागरों को इस के लिए लड़ाई लड़नी होगी। बिना संघर्ष के कुछ नहीं मिलता।
जवाब देंहटाएंसब को अपने ब्लॉग पर कॉपी राईट लगाना चाहिये . ब्लॉग की सुविधा फ्री हैं और उस पर कॉपी राईट ना होने पर कोई भी कुछ भी छाप सकता हैं
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर जो लिखा जाता हैं वो जैसे ही अखबार मे छपता हैं लो अपने ब्लॉग पर बताते हैं क्युकी सब को छापना अच्छा लगता हैं
पैसे के लिये अगर आप ब्लॉग लिख रहे हैं तो क्यूँ कुछ और नहीं करते और इस माध्यम को उनके लिये छोड़ दे जो बिना पैसे के अपनी बात कहना चाहते हैं
पैसे देकर ही छापना होता तो मीडिया के पास बहुत से लोग हैं जो हिंदी ब्लॉगर से ज्यादा ज्ञान अपने विषय मे रखते हैं
हिंदी ब्लोगिंग का भविष्य इस पर क्या कहूँ फिर कभी
कुछ की बोर्ड खटखटाई का बनता तो है।
जवाब देंहटाएंललित भाई खटखटाई का मिलता है प्यार
जवाब देंहटाएंदिल में बिछती है चारपाई, जिस पर प्रेम बैठते हैं सब भाई
क्यों नोटों के अतिरिक्त, किसी को नजर नहीं आती है कमाई
मै ब्लॉग पैसे के लिए नहीं लिखती बस लिखने के लिए लिखती हूं पर इसका मतलब ये नहीं है की कोई भी यहाँ से उठाकर कुछ भी अपने अख़बार में मुफ्त में छाप दे मै बिल्कुल उसके पैसे लेना चाहूंगी | अख़बार में एक बार फिर से अपना लेख छपता देखना चाहती हूं किन्तु मुफ्त में नहीं काजल जी ने सही कहा जब मुफ्त में ही छपना है तो अपना ब्लॉग ही सही है | पर ये भी सही है की अख़बार ब्लॉग के लेख इसीलिए छाप रहे है क्योकि वो मुफ्त में मिल रहा है पैसे देने पड़ेंगे तो वो भी आम ब्लोगर के बजाये बड़े नाम वाले लोग को ज्यादा पैसे दे कर छापना चाहेंगे |
जवाब देंहटाएंमैंने तो पहले ही कहा था ....मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना ..........वैसे हिंदी ब्लॉग्गिंग के अर्धसत्य ब्लॉग और ओमपुरी की प्रतीक्षा मुझे भी बेसब्री से है ...तब तक तो भईया जी इश्माईल ही करना पडेगा :) :)
जवाब देंहटाएंबहुत सही विषय उठाया है आपने . वास्तव में ब्लॉग-लेखन में भी भावनाओं के साथ-साथ दिल और दिमाग लगता है, मेहनत लगती है.
जवाब देंहटाएंयह भी एक बौद्धिक सम्पदा है. इसमें लिखे हुए का और लिखने वालों का मूल्यांकन इसी नज़रिए से होना चाहिए.
dahi kaha hai bhai!
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