(सुनील कुमार) http://www.sunilvani.blogspot.com/
डर लगने लगा है इस शहर से,
हर घडी, हर पहर में
राह चलते डराती हैं उनकी नजरें
बस अब तो हर चेहरे में
अपराधी और बदमाश ही नजर आता है मुझे।
भ्रष्टाचार, बलात्कार और अत्याचार,
बन गई है इस शहर की पहचान,
अब तो हर अपना भी,
अनजान लगने लगा है मुझे।
जिन गलियों में गुजरते थे बेवाकी से
शाम ढलते ही बेगाना सा हो जाता है
क्या बताऊं तुझे ऐ शहर
अब तो अपना दरवाजा भी बेगाना लगने लगा है मुझे
13दिसंबर
darane laga hain ye shahar
Posted on by सुनील वाणी in
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kavita ?? hai to thik hee hai :(
जवाब देंहटाएंएक कडवा सच बयान कर दिया।
जवाब देंहटाएंहकीकत बयां करती प्रभावी रचना .....
जवाब देंहटाएंhmmm... dilli aisi hi ho rahi hai in dino...
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