हो कहीं भी शौचालय लेकिन शौचालय बनना चाहिए
Posted on by गुड्डा गुडिया in
वैसे ये कला मैंने रवीश जी से सीखी है कि जहाँ भी जाओ, वहां की कुछ चीजें कैमरे में कैद कर लाओ और यादगार बनाओ | इस तरह की अपनी पहली पोस्ट में दुष्यंत साहेब की ग़ज़ल का पोस्टमार्टम आपके सामने रख रहा हूँ |
दुष्यंत साहेब ने सोचा भी नहीं होगा की उनकी ग़ज़ल का ये हश्र होगा | आप इसे रचनात्मकता भी कह सकते हैं | बहरहाल जो भी है आप भी पढ़ें और अपनी टिप्पणियों से अवगत कराएं |
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प्रशांत भाई मुझे तो लगता है हम लोगों को खुश होना चाहिए कि दुष्यंत की इस मशहूर गज़ल की पैरोडी बनाकर कुछ सार्थक संदेश देने का काम तो हो रहा है। माफ करें मुझे तो बिलकुल बुरा नहीं लगा। बल्कि अगर ऐसे और पैरोडियां हो सकती हैं तो जरूर बननी चाहिए।
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