मीडिया में साहित्य की खत्म होती जगह : तुरंता झलकियां
Posted on by अविनाश वाचस्पति in
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तुरंता झलकियां,
मीडिया में साहित्य की खत्म होती जगह
कुछ झलकियां हैं यहां
पूरी रिपोर्ट पढि़एगा वहां
मोहल्ला या गाहे बगाहे
विस्फोट की खबर यहां है पत्रकारिता में साहित्य का होना न होना
मोहल्ला में से निकलकर अविनाश ने अपनी बात कही और प्राप्त टिप्पणियां पढ़ीं। इनमें श्री गिरीश बिल्लौरे की टिप्पणी स्क्रीन पर भी दिखलाई और पढ़ी गई।
वरिष्ठ टी वी पत्रकार और एनडीटीवी के संपादक श्री रवीश कुमार ने कहा कि
1. कविता को ट्विट करना चाहिए।
2. लोकतांत्रिक माहौल बन रहा हे, उसे बनने दीजिए।
3. साहित्यकार से अच्छा राष्ट्रीय प्रवक्ता नहीं है।
सूत्रधार रहे ब्लॉगर एवं युवा मीडिया विश्लेषक श्री विनीत कुमार का कहना है कि हिन्दी साहित्य पापुलर होने के खिलाफ है।
वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता के संपादक श्री ओम थानवी ने कहा कि
1. गैर बाजारू विषय पर चर्चा की है।
2. उम्मीद बंधती है कि अंधेरा नहीं है।
3. बाजार का कब्जा संपादक पर है।
4. बाजार का साहित्य होगा वही छपेगा।
5. मीडिया का काम समझ बढ़ाना भी है।
6. कविता है या लंगड़ा गद्य है।
7. मैं इस नए माध्यम के खिलाफ नहीं हूं परंतु मेरी शंकाएं हैं।
8. अपने बारे में आखिर आप कितनी देर बात कर सकते हैं।
9. इसमें अहंकार झलकता है। आत्मकथाएं अपने प्रचार के लिए होती हैं।
10. अहंकार का विलय करना लेखक का काम है।
11. नए माध्यम में शब्दों की फिजूलखर्ची बहुत होती है। कितनी किफायत से हम अपनी बात कह सकते हैं। नए माध्यम में इसके कारण शब्द अर्थ खोते चले जायेंगे।
12. भीड़ हमेशा अच्छी चीजों के साथ में नहीं होती है।
मशहूर मीडिया विश्लेषक और आलोचक श्री सुधीश पचौरी ने कहा कि
1. अरसे से हिन्दी में जिंदा है यह टॉपिक।
2. यह तथ्यत: गलत है कि साहित्य का प्रॉडक्शन कम होता है और साहित्य में उसकी जगह कम हुई है।
3. हिंदी में बड़े अखबार साहित्यिक पृष्ठ नहीं देते हैं लेकिन जनसत्ता देता है।
4. मीडिया बदलता है तो साहित्य भी बदलता है।
5. साहित्य क्या कोई फिक्स चीज है ?
6. ब्लॉग पर आने वाला साहित्य इतना खुला हुआ है कि उस पर दो तमाचे तुरंत लग भी सकते हैं तो यह साहित्य क्यों नहीं है ?
7. मीडियम के बदलने से साहित्य का फार्मेट बदल गया है।
8. वो तलवार का जमाना था। यह सुई का जमाना है, यह ब्लेड का जमाना है। ब्लेड से जेब काटी जा सकती है।
9. मीडिया पर लिखने वाला मीडिया का दुश्मन है।
10. साहित्यकार को बदल जाना चाहिए। अपने को उन परिस्थितियों में ढालना चाहिए क्योंकि यहां पर हेठी होती है।
11. ब्लॉग की नई पीढ़ी उम्मीद की किरण है। इतना बड़ा संवाद इस फार्मेट पर चल रहा है। इसको सराहना चाहिए।
12. दवाब साहित्य पर है कि उसको बदले। चेंज इंतजार नहीं करता। चेंज हो चुका है।
प्रख्यात लेखक और हंस के संपादक श्री राजेन्द्र यादव ने तेवर नरम करते हुए कहा कि
1. साहित्य और मीडिया (दृश्य और पाठ्य) ये दोनों अलग अलग चीजें हैं। दो विरोधी खेमे हैं। जिनका आपसी संबंध दुश्मनी का है।
2. मीडिया बिना भाषा के नहीं चल सकता और भाषा साहित्यकार के पास है और वही भाषा बनाता है।
3. साहित्य स्वतंत्रता मांगता है।
4. दोनों एक दूसरे के पास जायेंगे तो एक दूसरे की शर्तों पर जायेंगे।
5. अखबारों में हमारी जगह नहीं है। कैसे इन दोनों को जोड़ा जाये। ये नहीं कि एक दूसरे के गुलाम होकर मिलें।
6. दूरदर्शन हमारी भाषा और इमेज पर लगातार हमला कर रहा है और वो संवेदनशून्य बनाने की कोशिश कर रहा है।
7. दो वर्गों की लड़ाई लगती है। ये भी हो सकता है कि मुगालता हो सकता है।
युवा समाजशास्त्री सुश्री शीबा असलम फ़हमी ने कहा कि
1. बहेलिये ने जाल बिछाया है।
2. यह क्या ध्वस्त करने के लिए और क्या बनाने के लिए हो रहा है।
3. एक तरह का आतंक छाया हुआ है।
4. हिन्दी का इस्लाम खतरे में रहता है।
5. अब प्रोफेसरान से अपनी कॉपी नहीं जंचवा रहा है। जिसको अराजकता कहा जा सकता है।
6. साहित्य मीडिया में कब पापुलर रहा है ?
7. जो अखबार लालाजी के हाथ में थे, वही जिंदा रह गये।
8. मीडिया, साहित्य और भाषाओं की व्याख्या नए सिरे से होनी है।
9. सब जनता की अदालत में पेश होने जा रहा है।
इसके बाद जवाब काल चला जिसमें पाणिनी पांडेय, डॉ. गिल, शहरोज, मयंक सक्सेना, हर्षवर्द्धन, विकास कुमार झा,रंगनाथ और आवेश कुमार ने सवालों की बारिश कर दी।
राजेन्द्र यादव ने जवाब देते हुए कहा कि साहित्य को जनता तक जाना होगा। हमारा साहित्य व्यक्तिकेन्द्रित रहा है। आने वाले समय में दोनों को साथ आना होगा। साहित्य स्वायत्त और स्वतंत्र है। मीडिया बहुत शर्तों से बंधा है।
सुधीश पचौरी ने उत्तर में कहा कि जो कुछ है वो बहुत कुछ है। इन्डिविजुअल स्पेस बनाना बहुत बड़ी उपलब्धि है। साहित्य के संपादक के प्रति नई पीढ़ी का भरोसा नहीं है। ब्लॉग इज द अल्टीमेट।
ओम थानवी जी ने प्रश्न के उत्तर में कहा कि मैं कभी ब्लॉग के खिलाफ नहीं हूं।
कार्यक्रम की संपन्नता यात्रा बुक्स की सुश्री नीता गुप्ता के धन्यवाद ज्ञापन से हुई।
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सुन्दर। शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंGyaan wardhan huwaa
जवाब देंहटाएंधीरे धीरे सभी कहेंगे कि हम ब्लॉग के खिलाफ नही है , लेकिन ब्लॉग्स को उस जगह तक पहुंचना होगा । बढिया चर्चा ।
जवाब देंहटाएंनाईस जी नाईस:)
जवाब देंहटाएंबढ़िया रहा ये तो ...लोग कुछ भी कहें ...पर हमें आगे बढ़ते रहना होगा और ये समय को फैसला करने दीजिये की किसकी कितनी महत्ता है.
जवाब देंहटाएंअविनाश जी
जवाब देंहटाएंसादर-अभिवादन
आपको नकारना मेरे लिये मुश्किल था
आभार
blog ko awam ki awaz ko sarkar, media, social scientists, economists tak le jaane kee badi jimmedari hai... pehle bhi sahitya yahi karta tha.. blog se phalak badha hai...
जवाब देंहटाएंSir, Aajkal blogging ke liye time nahi mil raha hai, lekin esi goshthiyo ke liye ek aamantran is garib prashikshu blogger ko bhi mail kar diya kare, Sadhanywad.
जवाब देंहटाएंसच मॅ चर्चा ने लोगों को आत्ममंथन करने के लिए विवश किया. ओम थानवी जी के जोश को देख कर तो बार बार "दिल तो बच्चा है " गाना याद आ रहा था... सही बात कही ओर आज के दोर के हिसाब से कही... पर समय क़ी कमी दिखी ... कई लोग अपने सवालों को दिल मैं ही दबा कर रह गये...वरना इस डिशुम डिशुम का ओर भी मज़ा आता... ३ से ६ का पूरा इंटरटेनमेंट था...
जवाब देंहटाएंशीबा कम बोलीं पर उन क़ी कुछ लाइनें इन दिगजों पर भारी पड़ती दिख रही थीं ...
अविनाश वाचस्पति जी ना जाने किस जलज़ले के बारे में सोच रहे थे. या लग रहा था क़ी ससुराल में ज़यादा दूध मलाई खा ली थी सो सुस्ता रहे थे....:-)
बहस में यह बात उभरकर आई की आज मीडिया दोनों समाज से कट गये हैं .
साहित्य और मीडिया दोनों का काम समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, हो रहे शोषण,शासक वर्ग की ज्यादितियों खिलाफ अपने-अपने माध्यमों से उनका चित्रण करना था और आइना दिखाना था लेकिन ये माध्यम् आज खुद दागदार हो गए हैं।
मीडिया , साहित्य के संबंध की गहरी पड़ताल की आवश्यकता है।
रही सही बाद में ...