और कितनी बलि लेंगे चिदंबरम साहब?
Posted on by उपदेश सक्सेना in
(उपदेश सक्सेना)
नक्सलियों ने छतीसगढ के दंतेवाड़ा में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज़ करवा कर केंद्र सरकार को अपने मज़बूत इरादों से अवगत करवा दिया है. गृह मंत्री पी.चिदंबरम के ढीले तौर तरीकों के कारण एक बार फिर कई बेकसूर लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है. अब नक्सलियों ने उनकी वार्ता की पेशकश को भी ठुकरा दिया है. सरकार यह क्यों नहीं समझती कि हर मामले में गांधीगिरी नहीं चलती.वैसे केंद्र सरकार और कांग्रेस दोनों में ही नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई को लेकर सहमति नहीं है. खुद सोनिया गांधी का रवैया इस मामले में उदार प्रतीत होता है. वहीँ प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की चुप्पी भी आश्चर्यचकित करने वाली है, क्या उन्हें नक्सलवाद पर भी अमरीका की मदद की दरकार है?
आज चिदंबरम ने नक्सलियों से अपील की थी कि उन्हें ७२ घंटे के अंदर हिंसा खत्म कर वार्ता के लिए तैयार हो जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि इन 72 घंटों में सरकार नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात कर वार्ता की तारीख और समय तय कर लेगी। इसके बाद नक्सलियों ने बातचीत का यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. नक्सलियों के एक नेता रमन्ना ने एक कहा कि सरकार से तब तक कोई बातचीत नहीं की जाएगी जब तक कि ऑपरेशन ग्रीनहंट बंद नहीं किया जाता। रमन्ना ने इस आरोप को सिरे से खारिज कर दिया कि नक्सली आम नागरिकों को निशाना बना रहे हैं। उन्होंने कहा कि खुद सुरक्षा बल आम आदमियों की आड़ लेकर ऑपरेशन को अंजाम दे रहे हैं।गृहमंत्री ने कहा था कि नक्सली वार्ता के लिए कोई भी एजेंडा तय कर सकते हैं।,लेकिन उन्हें इतना याद रखना होगा कि वार्ता के दौरान कोई हिंसा नहीं होनी चाहिए. उन्होंने भरोसा दिलाया कि इस दौरान सरकार भी नक्सलियों के खिलाफ कोई अभियान नहीं चलाएगी. इस दौरान चिदंबरम ने माना कि परिस्थितियों को समझने में सरकार से भूल हुई है. उन्होंने कहा कि सरकार ने समस्या को कम करके आंका, जिसके कारण नक्सलियों को अपनी ताकत बढ़ाने का मौका मिल गया. दूसरी ओर, नक्सलियों के खिलाफ जंगलों में सरकार की ओर से लड़ाई हारने के आरोपों पर चिदबंरम ने सफाई देते हुए कहा कि "इस तरह के बयान निंदनीय हैं, वास्तव में नक्सलियों पर काबू पाने में सरकार को 2-3 साल तक समय लग सकता है।"
देश में नक्सल समस्या कश्मीर की तरह गंभीर होती जा रही है. कश्मीर में तो दुश्मन पडौसी देश है, मगर यहाँ तो दुश्मन घर का ही है, उसकी पहचान भी कॉफी कठिन है. केंद्र सरकार का नक्सल समस्या पर अब तक का रुख वैसा ही है जैसा कश्मीर पर रहता आया है. यदि जल्द ही सरकार ने अपनी रणनीति नहीं बदली तो स्थिति और विस्फोटक हो जायेगी. आखिर सरकार के अड़ियल रवैये का खामियाज़ा निर्दोष नागरिक-सुरक्षाकर्मी क्यों भुगतें? और कितनी जानें लेंगे चिदम्बरम साहब?
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बहुत ही उम्दा आलेख !!
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