सत्ता सदा ही फिसली है गुरूजी के हाथ से

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    राजनैतिक अस्थिरता नियति बन गई है झारखण्ड की

    विवाद और सोरेन का चोली दामन का साथ

    (लिमटी खरे)

    झारखण्ड के मुख्यन्त्री शिबू सोरेन कहीं रहें और वे विवादित और चर्चित न हों एसा कैसे हो सकता है। सोरेन और विवाद का तो चोली दामन का साथ है। केन्द्र हो या सूबाई सरकार। जब कभी भी सोरेन की ताजपोशी की गई उसके बाद से ही उनके पदच्युत होने की खबरें फिजां में तैरती रहीं हैं। चार माह पूर्व भाजपा की मदद से सोरेन तीसरी मर्तबा झारखण्ड के मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठे थे। चूंकि वे सदन (विधानसभा) के सदस्य नहीं थे, अत: नियमानुसार उन्हें छ: माह के भीतर विधायक बनना बहुत जरूरी था। सोरेन को विधायक बनने के लिए अपने ही दल के 18 सदस्यों में से एक का त्यागपत्र चाहिए था, जहां से उपचुनाव करवाकर वे सदन के सदस्य बनते। लोगों के आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा जब सोरेन संसद मेें अचानक सांसद की हैसियत से ही प्रकट हो गए। अपने ही दल में सोरेन को एक भी सीट खाली करने वाला नहीं मिला। वे जामा सीट पर किस्मत आजमाना चाहते थे, पर यहां से उनके बेटे स्वर्गीय दुगाZ की पित्न सीता विधायक हैं, और उन्होंने अपने ससुर को दो टूक शब्दों में जवाब दे दिया कि वे सीट खाली करने तैयार नहीं हैं। रही बात उनके पुत्र हेमन्त की तो दुमका सीट हेमन्त छोडने को तैयार हैं, पर सोरेन को लगता है कि अगर उन्होंने कुर्सी छोडी तो राजपाट सम्भालने के लिए हेमन्त से मुफीद और कोई नहीं होगा, सो पुत्रमोह में वे इस सीट से हेमन्त का त्यागपत्र नहीं दिलवाना चाहते हैं।

    इतिहास साक्षी है कि सोरेन इसके पहले भी दो बार मुख्यमन्त्री बन चुके हैं पर निजाम की कुर्सी पर वे ज्यादा दिन काबिज नहीं रह पाए थे। 2005 में सोरेन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के सहयोग से मुख्यमन्त्री बन पाए थे, इस समय वे महज नौ दिन में ही टें बोल गए थे। इसके बाद एक बार फिर 2008 में यूपीए ने ही सहयोग कर उन्हें मुख्यमन्त्री बनाया इस बार भी महज चार महीनों का ही राजपाट उन्हें नसीब हुआ था। इस बार उन्होंने तमाड सीट से उपचुनाव लडा, पर हारने के कारण उन्हें कुर्सी त्यागनी पडी थी। सोरेन केन्द्र में कोयला मन्त्री रहे हैं, कोयला मन्त्री रहते हुए उन पर लदे प्रकरणों के चलते उनका आधा समय अदालत की दहलीज पर ही गुजर रहा है। इतना ही नहीं सोरेन पर हत्याओं के जघन्य आरोप भी हैं। उनके निजी सचिव शशिकान्त झा हत्याकाण्ड, कुडको हत्याकाण्ड, चीरूडीह नरसंहार जेसे मामलों से सोरेन उबर नहीं पाए हैं।

    11 जनवरी 1944 में जन्मे सोरेन की राजनैतिक यात्रा 1971 से आरम्भ हुई। इस साल वे झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के महासचिव बने और 1980 में वे सातवीं लोकसभा के लिए चुने गए। इसके छ: साल बाद 1986 में वे झामुमो के अध्यक्ष बने और 1989, 1996, 2002, 2004 में लोकसभा सदस्य बने। मई 2004 में वे कोयला और खान मन्त्री बने और जुलाई 2004 में उन्होंने यह पद त्यागकर सूबाई राजनीति की ओर कदम बढा लिए। सोरेन 01 जनवरी से अपने 61 वें जन्म दिन 11 जनवरी 2005 तक झारखण्ड के सीएम बने। इसके बाद वे 29 जनवरी 06 से 28 नवंबर 2006 तक कोयला मन्त्री रहे। 2009 में एक बार फिर लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद गुरूजी 30 दिसम्बर 2009 को झारखण्ड के मुख्यमन्त्री बने।

    गुरूजी की चालों को समझ पाना असान नहीं है। झारखण्ड में सोरेन भाजपा के पेरोल पर ही टिके हुए हैं। बावजूद इसके लोकसभा में कटौती के प्रस्ताव पर भाजपा के खिलाफ ही अपना वोट डालने के बाद सोरेन ने रात का भोजन भाजपा के निजाम नितिन गडकरी के घर पर ही किया। सोरेन के लिए मेजबानी करने वाले नितिन गडकरी को जब पता चला कि गुरूजी ने भाजपा की पीठ पर ही खंजर घोंप दिया है, तो उनके पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई।

    गठबंधन धर्म से हटकर अपने निहित स्वार्थों की बलिवेदी पर शिबू सोरेन ने झारखण्ड जैसे छोटे राज्य में राजनैतिक अस्थिरता पैदा कर दी है। भाजपा के समर्थन वापस लेने से अब जेवीएम के बाबूलाल मराण्डी के साथ मिलकर सरकार बनाने के रास्ते साफ नहीं दिखाई पड रहे हैं। कांग्रेस के मैनेजरों ने अगर उन्हें तैयार भी कर लिया तो भी यह गठबंधन बहुत ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगा। समूचा घटनाक्रम गुरूजी की राजनैतिक महात्वाकांक्षा की ओर ही इशारा कर रहा है। गुरूजी चाहते हैं कि वे अपनी राजनैतिक विरासत को अपने पुत्र हेमन्त के हाथों सौंप सकें। इसके लिए वे जमीन तैयार करने में जुटे हुए हैं। उन पर लदे मुकदमों के बोझ से उनकी कमर टूटने की कगार पर है। अगर वे संसद में कांग्रेस का साथ न देते तो जांच एजेंसियों की धार पैनी होना स्वाभाविक ही था। अब सोरेन को जांच में कुछ हद तक राहत मिलने की उम्मीद है। यह है भारत गणराज्य का इक्कीसवीं सदी का प्रजातन्त्र, जिसमें सरकारी एजेंसियों को देश के निजाम अपने नफा नुकसान के हिसाब से इस्तेमाल करने से नहीं चूकते हैं।

    कितने आश्चर्य की बात है कि नए राज्य के अस्तित्व में आने के दस सालों बाद भी सूबे के मतदाता किसी भी एक दल को पूर्ण बहुमत देने को तैयार नहीं हैं। झारखण्ड में उपजी परिस्थितियों में अब राष्ट्रपति शासन एक विकल्प के तौर पर उभरकर सामने आया है। केन्द्र सरकार के लिए यह विकल्प काफी हद तक सरल होगा, क्योंकि इसमें परोक्ष तौर पर शासन की बागडोर कांग्रेस के हाथ में होगी। इसके अलावा कांग्रेस द्वारा मरांउी और सोरेन के साथ गठबंधन कर सरकार चलाई जा सकती है। इसमें सोरेन को केन्द्र में मन्त्रीपद तो मराण्डी को सीएम और हेमन्त सोरेन को उपमुख्यमन्त्री पद से नवाजना विकल्प है। कुल मिलाकर हर पहलू से देखने से यही प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में सोरेन की राह बहुत आसान तो प्रतीत नहीं होती है।

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