जब एक बूँद नूरकी,
भोलेसे चेहरे पे किसी,
धीरेसे है टपकती ,
दो पंखुडियाँ नाज़ुक-सी,
मुसकाती हैं होटोंकी,
वही तो कविता कहलाती!
क्यों हम उसे गुनगुनाते नही?
क्यों बाहोंमे झुलाते नही?
क्यों देते हैं घोंट गला?
करतें हैं गुनाह ऐसा?
जो काबिले माफी नही?
फाँसी के फँदेके सिवा इसकी,
दूसरी कोई सज़ा नही??
किससे छुपाते हैं ये करतूतें,
अस्तित्व जिसका चराचर मे,
वो हमारा पालनहार,
वो हमारा सर्जनहार,
कुछभी छुपता है उससे??
देखता हजारों आँखों से!!
क्या सचमें हम समझ नहीं पाते?
आओ, एक बगीचा बनायें,
जिसमें ये नन्हीं कलियाँ खिलाएँ,
इन्हें स्नेह्से नेहलायें,
महकेगी जिससे ज़िंदगी हमारी,
महक उठेगी दुनियाँ सारी...
मत असमय चुन लेना,
इन्हें फूलने देना,
एक दिन आयेगा ऐसा,
जब नाज़ करोगे इन कलियोंका..... टिप्पणी देने के लिए मुझे क्लिक कीजिए
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