गजल : मैं लिहाज़ में न बुला सका

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  • डॉ० डंडा लखनवी
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    मैं लिहाज़ में न बुला सका

                  -रवीन्द्र कुमार ‘राजेश’


    वह मिला, नज़र से नज़र मिली, उसे आज तक न भुला सका।
    वह तभी से दिल में समा गया, उसे आज तक न बता सका।।


    ग़मे दौर,  दौर-ए-ज़िंदगी  में  सिवाय ग़म के  मिला  ही क्या-
    मेरे  सामने  से  गुज़र  गया, मैं   लिहाज  में  न बुला  सका।।
                                             
    ये  गलत  बयान  है  आपका, कि मैं संगे दिल हूँ या बेवफा-           
    मुझे प्यार किसने दिया कभी  कि जिसे नहीं मैं निभा सका।।            


    नहीं  कोई  शिकवा किसी से  है, जो  हुआ  यह  मेरा नसीब है-
    मैं खुली किताब हूँ सामन, कोई  राजे़  दिल न  छुपा  सका।।


    जिसे समझे  अपना  थे  आशियाँ  मेरे सामने ही उजड़  गया-
    मेरी  बेवसी   को  तो   देखिए, मैं  खड़ा  रहा न  बचा  सका।।




    पद्मा कुटीर,
    सी-27, बसंत बिहार,
    अलीगंज हाउसिंग स्कीम,
    लखनऊ-226024
    दूरभाष :  0522-2322154

    5 टिप्‍पणियां:

    1. Jiwaji University Gwalior Mai.Paisa lekar nakla karai jaa rahi hai. Jinhone paise diye hai unhe alga baithaya jaa raha hai.Is baat ki janach karawaeye patrakaro ki madda lijiye.

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    2. ग़मे दौर, दौर-ए-ज़िंदगी में सिवाय ग़म के मिला ही क्या-
      मेरे सामने से गुज़र गया, मैं लिहाज में न बुला सका।।

      -बहुत खूब!

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    3. मेरे सामने से गुजर गया ...मैं लिहाज़ से बुला ना सका ....
      दिल को छू गयी ये पंक्तियाँ ...!!

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    4. वो होगें और ’इल्म के सौदागर’
      जो डरते है रुसवाई से,
      मै ज़ूनूनी हूं ज़माने के चलन
      तोड के कह देता हूं.

      खूबसूरत गजल के लिए आभार!

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    आपके आने के लिए धन्यवाद
    लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद

     
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