अब इसे पढ़ने के लिए आपको सिर्फ चित्र पर क्लिक करना होगा और आप सरलता से पढ़ सकेंगे। पाबला जी के पवित्र सहयोग स्वरूप।
नईदुनिया की साप्ताहिक पत्रिका के होली विशेषांक में संपादक श्री आलोक मेहता ने होली के बहाने ब्लॉग जगत की खिंचाई की है। पढ़िए और बुरा ना मानिए क्योंकि, होली है।
http://www.naidunia.com/ पर जाकर SUNDAY MAGAZINE में पढ़ें ।
holi ki badhaaii yae aalekh padhnae mae nahin aa raha haen higher resulution par scan karae
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनायें । मेरे भी पढने मे नही आया ये आलेख ।
जवाब देंहटाएंइस बार होली में
जवाब देंहटाएंविवेक रंजन श्रीवास्तव " विनम्र "
जबलपुर
रंगों में सराबोर हुये, इस बार होली में
घर से जो हुये बाहर, इस बार होली में !
जल के राख हो , नफरत की होलिका
आल्हाद का प्रहलाद बचे , इस बार होली में !
हो न फिर फसाद , मजहब के नाम पर
केसर में हरा रंग मिले ,इस बार होली में !
छूटे न कोई अरमान , रंग इस तरह मलो
छेड़ो रगों में फाग , इस बार होली में !
इक रंग में रंगी सेना , अच्छी नहीं लगती
खूनी न हों अंदाज , इस बार होली में !
इस लेख को यहाँ पढ़ा देखा जा सकता है
जवाब देंहटाएंआलोक जी मेहता का लेख तो पढने में नहीं आ सका लेकिन लेख पर विवेक रंजनजी,जबलपुर की कमेन्ट बहुत अच्छी लगी-
जवाब देंहटाएं"आल्हाद का प्रहलाद बचे इस बार होली में"
बहुत सुन्दर विचार! होली की बधाई!
पढ़ने में कुछ आता ही नहीं है खैर होली पर्व की अनेको शुभकामनाये ...
जवाब देंहटाएंजोकर लगता है ये टाईबाज :)
जवाब देंहटाएंआलोक जी के आभारी हैं कि उन्होंने वो ढूंढ लिया जो हम न ढूंढ पाये। हम तो जो पढ़ना चाहते हैं, वही ढूंढ लाते हैं। वैसे अच्छा पढ़ना चाहेंगे तो अच्छा मिल जाएगा और बुरा पढ़ना चाहेंगे तो बुरा भी मिलेगा। प्रिंट साहित्य में भी मस्त और सस्ता साहित्य उपलब्ध है।
जवाब देंहटाएंब्लॉग में अच्छा साहित्य है, इसकी पुष्टि नई दुनिया में प्रकाशित ब्लॉग पोस्टों को पढ़कर लग सकती है। जनसत्ता में भी स्तरीय ब्लॉग पोस्टें प्रकाशित होती हैं और भी बहुत सारे पत्र पत्रिकाएं हैं जो ब्लॉग की स्तरीय मनोरंजक सामग्री को प्रकाशित कर रहे हैं।
प्रत्येक प्रौद्योगिकी के नफा नुकसान तो होते ही हैं तो ब्लॉग प्रौद्योगिकी के भी हो रहे हैं तो अचरज नहीं होना चाहिए। कहा भी गया है कि 'छाछ छाछ गहि रहे, थोथा देय उड़ाय' पर आलोक जी ने थोथा ही छपवाय दिया। न मालूम क्यों ?
खैर ... ब्लॉगरों को उद्वेलित होने की जरूरत नहीं है। अभी तो न जाने ऐसी कैसी परीक्षाओं से गुजरना है। पर गुजर नहीं जाना है। इसलिए आक्रोश नहीं खाना है।
पर मैं यह सफाई इसलिए दे रहा हूं कि आप सब लोगों को यह लगे कि आलोक मेहता जी ने यह लेख भंग की तरंग में रंग बरसाने के लिए लिखी है।
अब ब्लॉगिंग में उनके इस लेख के बाद ब्लॉग जगत में स्थापित नाम हो जाएगा।
जय होली।
अब आप लोग इस लेख को पढ़ने वापिस पधार सकते हैं। लेख पढ़ने में तो आने लगा है पर होली पर्व पर भंग की तरंग में समझ भी आएगा, इसमें संदेह है।
जवाब देंहटाएंमेरे ख्याल से इस लेख के लेखक महोदय दिमाग से थोडे क्या?...पूरे पैदल हैं...उनके अपने बस का कुछ लिखना रहा नहीं होगा और नई दुनिया वालों से पेशगी ले चुके होंगे तो सोचा होगा कि कुछ भी अंट-संट लिख के दे देता हूँ?...कौन पूछता है?...
जवाब देंहटाएंजनाब!...हम पूछते हैं....कि आपको किसने ये अधिकार दे दिया कि आप अपनी मर्ज़ी से जो जी में आए...बकते चले जाएँ?...आप आखिर जानते ही क्या हैं ब्लॉग्गिंग के बारे में?... प्रिंट मीडिया के तलवे चाटने से सिफारशी टट्टू यदा-कदा कामयाब हो जाया करते हैं ...मुझे लगता है कि आप भी इसी की ही एक मिसाल हो ...
आपके इस लेख को लिखने का क्या औचित्य था?...शायद ये भी आपको पता नहीं होगा
आलोक मेहता जी ने ब्लॉग को कचरा कूड़ा कह दिया है। उनका वार हो चुका। उन्हें इस बात का जवाब ज़रूर दिया जाएगा, होली के बाद। अभी तो रंगों के मज़े लिए जाएँ। आलोक जी के दिल को तक तक जलने दिया जाए होलिका की तरह। ब्लॉग रूपी प्रहलाद का बचना तो तय है ही जी।
जवाब देंहटाएंमुझे तो ठीक लगता है जो उन्होंने कहा देखे तो जिन ब्लोगर का लिखने के नाम पर योगदान शून्य है वे ही इन पचड़ो में पड़े रहते है जो लिखने वाले है वे अपना काम कर रहे है .
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