सैमुअलसन की थ्योरी है डॉलर वोट की। सैमुअलसन जैसे अर्थशास्त्री न कहते तो भी निजी अनुभवों से हम जानते हैं कि हर आदमी की बराबर हैसियत नहीं होता। हैसियत का मतलब सीधे तौर पर पैसा पढ़ें तो कुछ गलत नहीं होगा। तो इस बात पर बहस की गुंजाइश नहीं है कि दर्शकों की संख्या नापने के लिए लगाए गए टीआरपी के मीटर तो महानगरों और खाते-पीते इलाकों और घरों में ही लगेंगे। अब जबकि कुछ लोग कह रहे हैं कि टीवी न्यूज चैनलों में गड़बड़ियों की सबसे बड़ी वजह टीआरपी का मौजूदा सिस्टम ही है तो सवाल उठता है कि क्या मीडिया इस सिस्टम पर सवाल उठाने के लिए क्वालिफाइड है।
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टीआरपी सिस्टम पर सवाल कौन उठाएगा ?
Posted on by पुष्कर पुष्प in
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