Monday, June 30, 2008
मै पागलों की भाँती इनकी शक्ल देखती रह गयी! और फिर इनका चेहरा सामने होकरभी गायब-सा हो गया....मन झूलेकी तरह आगे-पीछे हिंदोले लेने लगा। कानोंमे शब्द गूँजे,"मै माँ को लेके कहाँ जानेवाली हूँ?"
तू दो सालकीभी नही थी तब लेकिन जब भी तुझे अंदेसा होता था की मै कहीं बाहर जानेकी तैय्यारीमे हूँ, तब तेरा यही सवाल होता था! तुने कभी नही पूछा," माँ, तुम मुझे लेके कहाँ जानेवाली हो?" माँ तुझे साथ लिए बिना ना चली जाय, इस बातको कहनेका ये तेरा तरीका हुआ करता था! कहीं तू पीछे ना छोडी जाय, इस डरको शब्दांकित तू हरवक्त ऐसेही किया करती.....
सन २००३, नवेम्बर की वो शाम । अपनी लाडली की शादीमे जानेकी अपनी कोईभी संभावना नही है, ये मेरे मनमे अचनाकसे उजागर हुआ। "बाबुल की दुआएँ लेती जा..." इस गीतकी पार्श्व भूमीपे तेरी बिदाई मै करनेवाली थी। मुझे मालूम था, तू नही रोयेगी, लेकिन मै अपनी माँ के गले लग खूब रो लेनेवाली थी.....
मुझे याद नही, दो घंटे बीते या तीन, पर एकदमसे मै फूट-फूटके रोने लगी। फिर किसी धुंद मे समाके दिन बीतने लगे। किसी चीज़ मे मुझे दिलचस्पी नही रही। यंत्र की भाँती मै अपनी दिनचर्या निभाती। ८ जनवरी के मध्यरात्री मे मेरी आँख बिना किसी आवाज़ के खुल गयी। घडीपे नज़र पडी और मेरे दोनों हाथ आशीष के लिए उठ गए। शायद इसी पल तेरा ब्याह हो रहा हो!!आँखों मे अश्रुओने भीड़ कर दी.......
तेरे जन्मसेही तेरी भावी ज़िंदगीके बारेमे कितने ख्वाब सँजोए थे मैंने!!कितनी मुश्किलों के बाद तू मुझे हासिल हुई थी,मेरी लाडली! मै इसे नृत्य-गायन ज़रूर सिखाऊँगी, हमेशा सोचा करती। ये मेरी अतृप्त इच्छा थी! तू अपने पैरोंपे खडी रहेगीही रहेगी। जिस क्षेत्र मे तू चाहेगी , उसी का चयन तुझे करने दूँगी। मेरी ससुरालमे ऐसा चलन नही था। बंदिशें थी, पर मै तेरे साथ जमके खडी रहनेवाली थी। मानसिक और आर्थिक स्वतन्त्रता ये दोनों जीवन के अंग मुझे बेहद ज़रूरी लगते थे, लगते हैं।
छोटे, छोटे बोल बोलते-सुनते, न जाने कब हम दोनोंके बीच एक संवाद शुरू हो गया..... याद है मुझे, जब मैंने नौकरी शुरू की तो, मेरी पीछे तू मेरी कोई साडी अपने सीनेसे चिपकाए घरमे घूमती तथा मेरी घरमे पैर रखतेही उसे फेंक देती!!तेरी प्यारी मासी जो उस समय मुंबई मे पढ़ती थी, वो तेरे साथ होती,फिरभी, मेरी साडी तुझसे चिपकी रहती!
तू जब भी बीमार पड़ती मेरी नींदे उड़ जाती। पल-पल मुझे डर लगता कि कहीँ तुझे किसीकी नज़र न लग जाए...
तू दो सालकी भी नही हुई थी के तेरे छोटे भी का दुनियामे आगमन हुआ। याद है तुझे, हम दोनोंके बीछ रोज़ कुछ न कुछ मज़ेकी बात हुआ करती? तू ३ सालकी हुई और तेरी स्कूल शुरू हुई। मुम्बई की नर्सरीमे एक वर्ष बिताया तूने। तेरे पिताके एक के बाद एक तबादलों का सिलसिला जारीही रहा। बदलते शहरों के साथ पाठशालाएँ बदलती रही।
अपनी उम्रसे बोहोत संजीदा, तेज़ दिमाग और बातूनी बच्ची थी तू। कालांतर से , मुझे ख़ुद पता नही चला,कब, तू शांत और एकान्तप्रिय होती चली गयी। बेहद सयानी बन गई। मुझे समझाही नही या समझमे आता गया पर मै अपने हालत की वजहसे कुछ कर न सकी......
आज मुझे इस बातका बेहद अफ़सोस है। क्या तू, मेरी लाडली, अल्हड़तासे अपना बचपन, अपनी जवानी जी पायी?? नही न??मेरी बच्ची, मुझे इस बातका रह-रहके खेद होता है। मै तेरे वो दिन कैसे लौटाऊ ??मेरी अपनी ज़िंदगी तारपरकी कसरत थी। उसे निभानेमे तेरी मुझे पलपल मदद हुई। मैही नादान, जो ना समझी। बिटिया, मुझे अब तो बता, क्या इसी कारन तुझे एकाकी, असुरक्षित महसूस होता रहा??
जबसे मै कमाने लगी, चाहे वो पाक कलाके वर्ग हों, चाहे अपनी कला हो या जोभी ज़रिया रहा,मिला, मैंने तिनका, तिनका जोड़ बचत की..... तुम बच्चों की भावी ज़िंदगी के लिए, तुम्हारी पढ़ाई के लिए, किसी तरह तुम्हारी आनेवाली ज़िंदगी आर्थिक तौरसे सुरक्षित हो इसलिए...... ज़रूरी पढ़ाई की संधी हाथसे निकल न जाय इसकारण ...
तुम्हारा भविष्य बनानेकी अथक कोशिशमे मैंने तुम्हारे, ख़ास कर तेरे, वर्तमान को दुर्लक्षित तो नही किया?
ज़िंदगी के इस मोड़ से मुडके देखती हूँ तो अपराध बोधसे अस्वस्थ हो जाती हूँ। क्या यहीँ मेरी गलती हुई? क्या तू मुझे माफ़ कर सकेगी? पलकोंमे मेरी बूँदें भर आती हैं, जब मुझे तेरा वो नन्हा-सा चेहरा याद आता है। वो मासूमियत, जो संजीदगीमे न जानूँ कब तबदील हो गयी....!
अपने तनहा लम्होंमे जब तू याद आती है, तो दिल करता है, अभी उसी वक्त काश तुझे अपनी बाहोँ मे लेके अपने दिलकी भडास निकाल दूँ!!निकाल सकूँ!!मेरी बाहें, मेरा आँचल इतना लंबा कहाँ, जो सात समंदर पार पोहोंच पाये??ना मेरी सेहत ऐसी के, तेरे पास उड़के चली आयूँ!!नाही आर्थिक हालात!!अंधेरी रातोंमे अपना सिरहाना भिगोती हूँ। जब सुबह होती है, तो घरमे झाँकती किरनों मे मुझे उजाला नज़र नही आता....जहाँ तेरा मुखडा नही, वो घर मुझे मेरा नही लगता...गर तू स्वीकार करे तो अपनी दुनियाँ तुझपे वार दूँ मेरी लाडली!
क्रमशः
3 टिप्पणियाँ:
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शमा जी,अच्छा किया आपने अपने मन के उद्गार बाहर निकालने की राह चुनी। यहाँ आपको बहुत से मित्र मिलेंगे,जो आपकी बात समझेंगे भी,सलाह भी देंगे व कभी कभी आपको आपकी किसी सोच को बदलने को भी उकसाएँगे। सबसे बड़ी बात यह है कि जब हम अपनी सोच को लिखित शब्दों में उड़ेलते हैं तो बहुत सी बातें अपने आप ही हमें अधिक साफ होकर नजर आने लगती हैं। यहाँ आकर हमें यह भी महसूस होता है कि दुख में हम अकेले नहीं हैं,सब हमारे साथ हैं और हम अकेले दुखी नहीं हैं। सुख में भी हमारी खुशी में खुश होने वाले बहुत से मिल जाते हैं।
आपका यहाँ स्वागत है।
घुघूती बासूती -
माँ का ममत्व-बहुत बढ़िया लिख रहीं हैं आप-हमें इन्तजार रहता है आपके लेखन का.
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हम तो खैर हमेशा से इस बात के खास पक्षधर रहे है की साहित्य लेखन हो या गैर पेशेवर लेखन हो बस पढने वाले को उससे जुडाव महसूस होना चाहिए ..ओर उसकी ढेर सारी खासियत आप में नजर आती है....लिखती रहे....
एक मां अपनी बेटी को इससे ज्यादा और क्या दे सकती है !!
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