झरोखे ..बचपन के

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  • विनोद कुमार पांडेय
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  • संवरता रहा निखरता रहा मैं,
    समयचक्र के संग सदा चलता रहा मैं,
    मगर जब कभी बीते पल को निहारा,
    सहमने लगा, मचलता रहा मैं.

    सहारा जो कल थे कहाँ अब गये वो ,
    ये उलझन बड़ी है सुलझती नहीं,
    हर एक पल संवारे कहाँ,खो गये वो
    ये कहता रहा, खुद से सुनता रहा मैं,

    वो दादी के किस्से वो बाबा की बातें,
    पुराने हुए पर रही बात बाकी,
    हर पल, दो पल जि‍तने भी पल थे,
    गुजरते गये बस रही याद बाकी,

    उन्ही चन्द लम्हों को फिर से ,
    पिरोया तो दिल के झरोखे से आवाज़ आई,
    अधूरी कहानी के वो लफ़्ज अंतिम,
    बढ़ाते ही रहना सुनो मेरे भाई,

    ये मीठी सी चुभती ‍जो दस्तक हुई ,
    किया गौर देखा मेरे यार भाई,
    वो कहते थे ऐ दोस्त पूरा करो,
    जो बचपन में हमने कहानी बनाई,

    अचानक तभी दिल के दो तार झूमे ,
    लगा जैसे दादी की आवाज़ आई,
    अरे मेरे बच्चे ये क्या कर रहा तू,
    अभी तक तूने ना वो मंजिल पाई,

    संभलके भी चलना न तुझको आया
    कदम से कदम मिलाकर चलो,
    करो याद चलना संभल कर के बेटा,
    जो उंगली पकड़ कर के हमने सिखाई,

    ये शिकवे थे उनके जो साहस लगे,
    मगर मैं बहुत दूर तक आ चुका था,
    वो बचपन की बातें नयी फिर हुईं ,
    जवानी की दहलीज़ पर जब रुका था,

    जो रुक कर चला तो लगा मुझको ऐसे ,
    यही सब सहारा हमारे लिए
    वो यारो के सपनों से है राह जाती,
    बने जो किनारा हमारे लिए,

    हो ख्वाब सच जो हमने था देखा,
    वो संकट भी चाहे हो जितना बड़ा,
    बचपन के सपने भी होते हैं सच ,
    जो हिम्मत से करने को खुद हूं अड़ा,

    कहानी कहानी में मंज़िल मिली थी,
    हक़ीक़त में भी उसको पा कर रहूँगा ,
    दुआओं से यारों की मुश्किल हटेगी,
    सपना एक हक़ीक़त बना कर रहूँगा ,

    मैं सपना हक़ीक़त बना कर रहूँगा.

    6 टिप्‍पणियां:

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