बंगलौर: दो

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  • राजेश उत्‍साही
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  • फूल यहां
    अल्लसुबह
    बगीचे में नहीं महिलाओं की
    चोटी में खिलते हैं
    राह चलते नजरें उनके नितम्बों पर नहीं
    उनकी चोटियों के साथ झूलती वेणियों पर टिकती हैं
    फूलों की सुंदरता निहारते हम नितम्बों
    की मोहक गति भूल जाते हैं

    हमारा आदिम मन
    वासना नहीं साधना
    की ओर जाता है
    सोचते हैं फूलों के रंग
    वेणी की बनावट उसमें फूलों की सजावट
    सोचते हैं
    वेणी बनाने वाले
    धागे में फूल पिरोने वाले
    हाथों के बारे में

    सोचते हैं
    उन्हें बगीचे में
    देर रात या कि मुंह अंधेरे
    पौधे से उतारने वाले
    कांपते हाथों के बारे में

    सोचते हैं
    साइकिल के पीछे
    परातनुमा डलिया में रखकर फर्राटा भरते छोकरे के बारे में
    या कि
    सिर पर धरे डलिया
    आवाज लगाती
    बिना अपने बालों में लगाए वेणी वेणी बेचती औरत के बारे में

    सोचते हैं
    यहां अल्लसुबह
    जैस्मी‍न, सेंवती और ऐसे तमाम फूलों के बारे में
    जो बगीचे में नहीं महिलाओं के जूडे़ में
    खिलते हैं।

    राजेश उत्सा़ही

    7 टिप्‍पणियां:

    1. Albela zee sham me apka blog padte huye laga subah ho gye. bhoor me phoolon ki khusboo se man tript ho gya. achchhi prastuti hai.aur haan apne jo jankari mentally challenged bachchon ke lye mere blog per di hai uske lye shabd nahi hain phir bhi dhanyabad.

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    2. vaasna se saadhna tak ka safar in pavitra foolon se hokar jaata hai..wah..

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    3. फूलों की वेणी सी सुगंध देने वाली रचना .. बहुत बढिया लिखा है !!

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    4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    5. bahut sundar rachna likhi......bilkul sahi kaha nazariye pa rhi nirbhar karta hai hum kya dekhna chahate hain.

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    6. एक ऐसी रचना जो श्रिंगार रस को शांत रस में बदल रही है. बहुत सुन्दर .

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    आपके आने के लिए धन्यवाद
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