श्री विष्णु प्रभाकर पर दिविक रमेश की बेबाक टिप्पणी

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  • प्रेम जनमेजय
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    महान् साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर पर दिविक रमेश की बेबाक टिप्पणी इस लिंक पर पढ़ने का कष्ट करें ।
    http://divikramesh.blogspot.com/2009/04/blog-post.html
    प्रेम जनमेजय

    4 टिप्‍पणियां:

    1. माननीय दिविक रमेश जी। आपने एक कटु सत्‍य को शब्‍द दिए हैं। अब भी हम सब माननीय श्‍याम विमल, राजकुमार सैनी, हरदयाल, सविता चड्ढा जैसे लेखकों से मिलकर विष्‍णु प्रभाकर जी के आदर्शों और विचारों को आत्‍मीय और प्रेरणादायक संस्‍मरणों और अनुभूतियों के जरिए सामने ला सकते हैं। यही सच्‍ची श्रद्धांजलि होगी साहित्‍यकार विष्‍णु प्रभाकर जी को।
      आपका नुक्‍कड़ में स्‍वागत है। आपको नुक्‍कड़ से जुड़ने का आमंत्रण भेजा है और वे सब भी जिनका आपने उल्‍लेख किया है, उनका भी नुक्‍कड़ में स्‍वागत है। वे अपने संस्‍मरण, अपनी बात, अपने बेबाक विचार मुझे ई मेल भी कर सकते हैं और चाहें तो सीधे नुक्‍कड़ से जुड़कर लिख सकते हैं। आप तो बस मार्ग दिखलाते बतलाते चलिए। आपके बेबाक विचार जानकर मन को सुकून मिला।

      मेरा ई मेल पता है avinashvachaspati@gmail.com

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    2. दिविक जी!
      आपने सही बात लिखी है। लेकिन आलोचकों के लेखे न तो कोई कवि या लेखक आज तक महान बना है और न ही कवि या लेखक आलोचकों के मोहताज हैं। यह ज़रूर हो सकता है कि ये गुटबाज़ लेखक जो साहित्य की राजनीति करते हैं किसी को पुरस्कार नहीं देने दें या अपने अपनों को ही पुरस्कार दें, लेकिन सिर्फ़ पुरस्कारों से कोई लेखक महान बना है क्या? विष्णु जी इसलिए महान लेखक हैं कि हिन्दी में हर व्यक्ति उन्हें पढ़्ता है और फिर ताज़िन्दगी याद रखता है, वैसे ही जैसे प्रेमचन्द को । विष्णु जी प्रेमचन्द की ही प्रम्परा के लेखक हैं।
      नागार्जुन जैसे अपनी रचना के ही कारण आज इतने अनिवार्य हो गए हैं कि
      आर०एस०एस० भी अब उन्हें मान्यता देता है। आर०एस०एस० के बौद्धिकों में नागार्जुन की कविताएँ पढ़वाई और सुनवाई जाती हैं। आर०एस०एस० के प्रचारक उनकी कविताओं को गवाकर उनके कैसेट साथ लेकर घूमते हैं। जबकि यही आर०एस०एस० उनके जीवनकाल में उनका विरोधी था और ख़ुद नागार्जुन आर०एस०एस० के करतबों से बेहद रुष्ट थे।
      रचनाकार को मान्यता उसकी रचना से मिलती थी। आलोचकों के देने से नहीं।

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    3. रमेश दिविक जी की टिप्पणी मेम सच्चाई है। आज हाल ही ऐसा है अपने आलोचकों का! लगभग सभी अपने-अपने यशस्वी मायालोक मेम पड़े हैं। जब पाठक उनको मान्यता दे देता है तब आलोचकों की नींद टूटती है। यह दु:खद है। जैसे वे कोई प्रमाण-पत्र जारी कर रहे हों विश्वविद्यालय का। यह सही है कि लेखक की लेखनी ही उसका पुर्रस्कार है और पहचान भी।-
      अक्षर जब शब्द बनते हैं

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    4. रमेश दिविक जी की टिप्पणी में सच्चाई है। आज हाल ही ऐसा है अपने आलोचकों का! लगभग सभी अपने-अपने यशस्वी मायालोक में पड़े हैं। जब पाठक उनको मान्यता दे देता है तब आलोचकों की नींद टूटती है। यह दु:खद है। जैसे वे कोई प्रमाण-पत्र जारी कर रहे हों विश्वविद्यालय का। यह सही है कि लेखक की लेखनी ही उसका पुरस्कार है और पहचान भी।-
      अक्षर जब शब्द बनते हैं

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