चौराहे पर हंसती है जिंदगी,
एक बच्चे की ,
हाथों में रोटी का टुकड़ा ,
तन पर कुछ गंदे कपड़े,
और
आसपास मक्खियों का झुण्ड ,
आते जाते लोगों को देखते
ढ़लती है शाम ,
कुछ ऐसे ही चलती है
जिंदगी ,
आखों में खुशी,
मन में विश्वास ,
कुछ आगे बढ़ने का
जज्बा,
शायद यही सब है
उसके पास ,
एक छोटे से टुकड़े पर
उसकी दुकान ,
जिस पर है कुछ ही
समान ,
क्या करता होगा
कुछ कमायी ?
पर
इसी ने जिंदगी चलायी ।
मैं देखता हूँ
बड़े गौर से बच्चे को ,
उसका खिलखिलाता चेहरा ,
आस-पास कुछ कंकड़
जो खिलौने है उसके ,
और उसके मटियाये
बाल को,
और
गंदे शरीर को ,
फिर सोचता हूँबचपन को ,
कितना फर्क है ?
दुख होता है मुझे ,
पर
फिर भी वह खुश है
इस जिंदगी से ।
मेरा काव्य - " चौराहे पर जिंदगी उसकी "
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hradyasparshi chitran.
जवाब देंहटाएंबड़ा ही हृदयस्पर्शी चित्रण किया है आपने......
जवाब देंहटाएंसच है ,हम भले इस पार खड़े दुखी होंयें ,पर भौतिक साधनहीनता उनके लिए दुःख का कारण नही.वस्तुतः किसी के लिए भी भौतिक साधन खुशी का कारण नही हो सकते.खुशी तो मन में बसती है,साधनों में नही.
जीना इसी का नाम है
जवाब देंहटाएंचढ़ो चाहे उतरो।
बहुत ही उम्दा रचना है।बहुत अच्छी लगी।बधाई।
जवाब देंहटाएंआसपास के माहौल को इतनी संवेदना से देखना और भावपूर्ण शब्दों में उस चित्र को कविता में दिखा देने की कला प्रभावित करती है. शुभकामनाएँ..
जवाब देंहटाएंकविता की संवेदना खुरचती है मन को,पर भाषिक संरचना को और समृद्ध होनी होगी।
जवाब देंहटाएंदिल को छू लिया !
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