हिंद युग्म कार्यक्रम - राजेन्द्र यादव का विवादास्पद भाषण

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  • हिंद युग्म के वार्षिक कार्यक्रम में ख्यातनाम साहित्यकार श्री राजेंद्र यादव के संवोधन से पैदा हुआ विवाद और उसमें वेहद गुस्से के तेवर से एक बात साफ़ हो जाती है कि हिंदी की ये नयी सेना हिंदी भाषा को समृद्ध करने के लिए कटिबद्ध है. आओ दोस्तों हम इसका जस्न मनाये. जो कुछ राजेंद्र यादव ने कहा उसे कहने के तरीके से मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूँ लेकिन मेरा सहमत या असहमत होना राजेंद्र यादव के लिए इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना अपने चिर विवादस्पद लहजे में अपनी बात कहना. ये ठीक है अब हिंदी के साहित्यकारों को नए जमाने के हिसाब से नए सृजन मूल्य तलाशने होंगे. और अपने अतीत से वाहर निकलना होगा. ये उनकी सोच है जिससे आप सहमत हो सकते हैं और असहमत भी. भाषा ने अपनी यात्रा में बहुत विकास किया है और ये ही भाषा की समृद्धी है. लेकिन उनकी इस बात से सहमत होने का कोई कारण नहीं नज़र आता कि उन्हें कूडेदान मे फेंक दो. वो बेकार है. तो ये जो हिकारत का भाव है अपनी भाषा के प्रति ये सठियाने या अपार दंभ का परिचायक है. आप अपनी बात कहें. लेकिन अपनी विरासत को लात मत मारिये. ये भी कि इस सारी आलोचना से राजेंद्र यादव पर कोई फर्क नहीं पड़ने बाला. वो आदमी नए नए विवादों की खोज करता है और इसी से उसकी दूकान चलती है. शोभा जी का आक्रोश बिल्कुल उचित है लेकिन हम एक बात और समझें कि किसी विद्वान् को हम आमंत्रण दें तो उसके विचार पर मनन करें. अच्छा लगे उसे काम में लें, अच्छा ना लगे भुला दें लेकिन ये उम्मीद करना कि उसका भाषण वैसा होगा जो हमारे विचार हैं ये संभव नहीं है और ऐसा होना भी नहीं चाहिए.जहां तक प्रश्न सबके सामने सिगार पीने का है इसका साफ़ मतलब है कि वो समाज के नियमो को नहीं मानता, अब ऐसे असामाजिक व्यक्ति को प्रमुख अतिथी बनाना चाहिए या नहीं हमें सोचना है.

    1 टिप्पणी:

    1. मान्यवर हरी जी,
      आपसे सहमति भी और असहमति भी. हिंद युग्म के जिस मंच पर हमारे हिन्दी के चिंतनकार उपस्थित थे वो अगर भाषण के लिए थे तो नि:संदेह वो हिन्दी पुत्र नही हो सकते.
      सवाल सिगार और दर्शन का होता तो भी हमें कोई आपत्ति नही थी, हम विद्वजन के दर्शन के लिए ही थे मगर हिन्दी के प्रति जागरूकता और समर्पण के साथ जो पौध जमा हुई थी के सामने हिन्दी पुत्र ने जिस प्रकार हिन्दी का बलात्कार किया वो आक्रोश का कारण था.
      आज हमें राजेंग्र यादव और उन सरीखे हिन्दी पुत्रों को देख कर लज्जा आती है. मगर हमारा हिन्दी के प्रति समर्पण जारी रहेगा, हाँ आदर्श में लोग बदल जायेंगे.

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