पहाड़िया - सुशील कुमार
Posted on by Sushil Kumar in
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(पाकुड़-साहेबगंज इलाकों की पहाड़ी जिंदगी से रू-ब-रू होकर.....,
)
दिन समेटकर उतरता है
थका-माँदा बूढ़ा सूरज
पहाड़ के पीछे
अपने साथ वन-प्रांतरों की निःशेष होती गाथाएँ लिये
तमतमायी उसके आँखों की ललाई पसर जाती है
जंगलों से गुम हो रही हरियाली तक
मृतप्राय नदियों में फैल रहे रेतीले दयार तक
विलुप्त हो रहे पंछियों के उजड़ रहे अंतिम नीड़ तक।
ऊँची-नीची पगडंडियों पर कुलेलती
लौटती है घर पहाड़न
टोकरीभर महुआ
दिन की थकान
होठों पर वीरानियों से सनी कोई विदागीत लिये।
उबड़-खाबड़ जंगल-झाड़ के रस्ते लौट आते हैं
बैल-बकरी, सुअर, कुत्ते, गायें भी दालान में
साँझ की उबासी लिये।
साथ लौटता है पहाड़िया बगाल
निठल्ला अपने सिर पर ढेर सा आसमान
और झोलीभर सपने लिये
(२)
घिर जाती है साँझ और गहरी
अंधरे के दस्तक के साथ ही
घर-ओसारे में उतर आते हैं महाजन
खटिया पर बैठ देर तक
गोल-गोल बतियाते हैं पहाड़ियों से
हँसी-ठिठोली करते घूरते हैं पहाड़नों को
फिर खोलते हैं भूतैल खाते-बहियाँ अपनी
और भुखमरी भरे जेठ में लिये गये उधार पर
बेतहाशा बढ़ रहे सूद का हिसाब पढ़ते हैं
दूध, महुआ, धान, बरबट्टी और बूटियों के दाम से
लेकर पिछली जंगल-कटनी तक की मजूरी घटाकर भी
कई माल-मवेशी बेच-बीकन कर भी
जब उरिन नहीं हो पाता पहाड़िया तो
गिरवी रख लते हैं महाजन
पहाड़न के चांदी के जेवर, हंसुली, कर्णफूल, बाले वगैरह....।
तेज उसाँसें भरता अपने कलेजे में पहाड़िया
टका देता है अपना माथा महाजन के पैर पर।
तब महाजन देते हैं भरोसा
कोसते हैं निर्मोही समय को
वनदेवता से करते हैं कोप बरजने की दिखावटी प्रार्थनाएँ
अपनेपन का कराते हैं बोध पहाड़िया को
गलबहियाँ डाले महाजन साथ मिलकर दुःख बांटने का
और संग-संग पीते हैं 'हंडिया-दारू' भी
भात के हंडियों में सीझने तक,
फिर देते हैं, एक जरूरी सुझाव जल्दी उरिन होने का,
जंगल कटाई का -
फफक-फफक असहमति में सिर हिलाता रो पड़ता है पहाड़िया
पहाड़न गुस्से से लाल हो बिफरती है
गरियाती है निगोड़े महाजन को
करमजले अपने मरद को भी
पर बेबस पहाड़िया
निकल पड़ता है माँझी-थान में खायी कसमें तोड़
हाथ में टांगी, आरा लिये निविड़ रात्रि में
भोजन-भात कर, गिदरा-गिदरी को सोता छोड़
पहाड़न से झगड़ कर
महाजन के साथ बीहड़ जंगल ।
(३)
रातभर दुःख में कसमसाती
अपने भीतर सपने टूटते देखती है पहाड़न
रात गिनती
मन की परत-परत गांठें खोल पढ़ती है पहाड़न
नशे में धुत्त पहाड़िया रातभर
पेड़ों के सीने पर चलाता है आरा, टांगी
और काटता रहता है अपने दुःखों के जंगल।
बनमुरगे की कुट्टियाँ नोंचते
रहरह कर दारू, बीड़ी पीते
जगे रहते हैं संग-संग धींगड़े महाजन भी रातभर।
(४)
शीशम, सागवान, साल की सिल्लियाँ लादे
जंगल से तराई की ओर बैलगाड़ियाँ पर कराते महाजन,
बिना दातुन-पानी किये, बासी भात और अपनी गिदरे
पीठ पर गठियाये महुआ बीनने पहाड़न,
मवेशियों को हाँक लगाता बगाल पहाड़िया
कब के उतर चुके होते हैं पहाड़ी ढलान !
बहुत सुबह, सूरज के उठान के काफी पेश्तर ही !!
खाली रहती है बहुधा पहाड़ी बस्तियाँ दिनभर
बचे रहते हैं पहाड़ पर सिर्फ़
सुनसान माँझी-थान में पहाड़ अगोरते वनदेवता
उधर पूरब में जलता-भुनता सूरज
और गेहों में लाचार कई वृद्ध-वृद्धाएँ ।
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bahut hi achcha blog
जवाब देंहटाएंIPL ki khabaron k liye
http://2009ipl.blogspot.com par jayen
yatharth ko bade sunder shabdon se sjaayaa hai bdhaai
जवाब देंहटाएंआदिवासियों के दुख को पिरो दिया है अपनी कविताओं में आपने....बहुत सुदर रचनाएं....
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाओं से पहाड़ी जीवन से रुबरु हो गया। भावों को कितनी अच्छी तरह से कहा है आपने। सच दिल तक पहुँचे।
जवाब देंहटाएंपीड़ा तन की
जवाब देंहटाएंमन की
और वन की
सारी चिंताएं
जिनसे पीड़ा
है उपजती
प्रस्तुत की हैं
सुशील ने
।
शब्दों और
भावों के कुशल चितेरे
न तेरे और न मेरे
सबके, सबके दुख के
स्वर बन रहे हैं
वन जिनसे जी उठा
सदा जीवन, नहीं रहा
वही वन, जो रहा ऐवन।
रहने वाले, महसूसने वाले
भोगने वाले, पीड़ा से होने
वाले पीडि़त, अनिच्छित
पीड़क, क्योंकि इच्छा से
नहीं पीड़ा पाता कोई,
मजबूर हैं, मजदूर हैं
पीड़ा झेलने के लिए
Main santhal pargana se, jab bhi koi hamri pahado ko u rachta hai to lagata hai kahein na khein hame samjhne wala hai aur hum akele aur wiran nahi hai
जवाब देंहटाएंThanks
वनवासियों की दिनचर्या....दुखों और बेबसी को बखूबी दर्शाया है आपने कविता में ...बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंDukh hi to nahi hote jeevan main,
जवाब देंहटाएंaur sukh bhi nahi rahte sada,
is tane baane ko tumen khoob kaha,
O mitra sada rehna komal,
naa ho maanavta ojhal.
Uttam rachna ke liye dhanyawad
Kavitaaon mein pahaadee jeevan apne har rang
जवाब देंहटाएंmein hai.Dekh-padh kar bahut hee achchha lagaa
hai.Utkrisht bhavabhivyakti ke liye badhaaee.
प्राण शर्मा जी को टिप्पणी के लिये धन्यवाद।
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