ओ हंस

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  • Alok Shankar
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    तुम ज्वालामुखी क्यों हुए ?

    कि एकबारगी ही

    फ़ूट पड़े

    अपने श्वेत लावे के साथ

    फ़िर

    सूख गये धरा तक पहुँचने से पहले ही !

    क्षीर विवेकी ओ !

    किस भाँति तय किये

    पृथकता के पैमाने तुमने

    कि आज भी मिलती है

    उजली गन्ध

    हर कुएँ के जल में ?

    ओ श्वेतपंख !

    क्यों तुम गरुड़ बने ?

    कि तुम्हारे धारदार पंखों के

    अग्निमय निशान

    क्षितिज पर टिक न सके

    अरुणिम ज्योति सदृश !

    ओ हंस !

    तुम नदी क्यों न हुये

    कि पत्थर की दरार से धीरे धीरे

    रिसकर फ़ैलते और बहते,

    बड़ी धार बनकर-

    दूर तक

    फ़िर उगता तुम्हारा रक्त

    सदियों तक फ़सलों में ।


    4 टिप्‍पणियां:

    आपके आने के लिए धन्यवाद
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