ओ हंस ,
तुम ज्वालामुखी क्यों हुए ?
कि एकबारगी ही
फ़ूट पड़े
अपने श्वेत लावे के साथ –
फ़िर
सूख गये धरा तक पहुँचने से पहले ही !
क्षीर विवेकी ओ !
किस भाँति तय किये
पृथकता के पैमाने तुमने
कि आज भी मिलती है
उजली गन्ध
हर कुएँ के जल में ?
ओ श्वेतपंख !
क्यों तुम गरुड़ बने ?
कि तुम्हारे धारदार पंखों के
अग्निमय निशान
क्षितिज पर टिक न सके
अरुणिम ज्योति सदृश !
ओ हंस !
तुम नदी क्यों न हुये
कि पत्थर की दरार से धीरे धीरे
रिसकर फ़ैलते और बहते,
बड़ी धार बनकर-
दूर तक
फ़िर उगता तुम्हारा रक्त
वाह, कल्पना की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंक्या बात है भीड़ू, बहुत जमाके लिखेला है रे.
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति. लगे रहॅ.
सुन्दर लिखा है. ढंग बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंkya bat hai..aapki kalpana ke udan ka kya kahana..
जवाब देंहटाएंrobinrajonline.blogspot.com
bahut badhiya bhai
जवाब देंहटाएंhttp://hariprasadsharma.blogspot.com/