बीती ताहीं बिसार के....
आगे बढने को जी चाहता है....
बहुत गल्तियाँ कर ली...
अब सुधरने को जी चाहता है
चौरासी,बाबरी और गोधरा पर शर्मिंदा हैँ
पता नहीं क्यूँ फिर भी हम ज़िन्दा हैँ
लड़ भिड़ कर देख लिया बहुत मर्तबा
अब शिक्वे भूल गले लगने को जी चाहता है
उड लिए पंख फैला ऊँची उड़ान
अब नीचे ज़मीं ताकने को जी चाहता है
पूरी हुई अच्छी-बुरी हसरतें सभी
अब बस वैराग्य को जी चाहता है
जी लिए बहुत उल्टा सीधा कर के
अब बस सुकून से मरने को जी चाहता है
चल के देख लिया कई दफा पुराने ढर्रे पर
अब नई राहें नई मंज़िलें तलाशने को जी चाहता है
मरते रहे औरों के लिए हर हमेशा
कुछ पल अब अपने लिए जीने को जी चाहता है
सुनते रहे तमाम उम्र इसकी उसकी सबकी
अब अपनी करने को बस जी चाहता है
महफिलें उम्दा जमाते रहे उम्र भर
अब मायूस हो बैठने को जी चाहता है
बीते बरस लिखने को बहुत छूट गया....
अब नए विष्य नए शब्द तलाशने को जी चाहता है
सच!...बीती ताहीं बिसार के....
आगे बढने को जी चाहता है....
बहुत गल्तियाँ कर ली...
अब सुधरने को जी चाहता है
***राजीव तनेजा***
बहुत गल्तियाँ कर ली...
जवाब देंहटाएंअब सुधरने को जी चाहता है
कोई मसलेहत रोक देती है वरना
जला दें जमाने को जी चाहता है|
आत्म मंथन करती हुई बहुत उम्दा रचना है।बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंbahut sundar rachanaa. dhanyavaad.
जवाब देंहटाएंबीती ताहि बिसार दे,
जवाब देंहटाएंआगे बढ़ने को जी चाहता हैं,
बहुत सी गलतियाँ कर ली,
अब दिल मिलाने को जी चाहता हैं,
काश ! आप ऐसा लिखते तो मुझे ज्यादा अच्छा लगता,
मैं गुजरात से हूँ, तथा मुझे गुजरात दंगो से कोई गिला - शिकवा नहीं हैं, जिसने जो किया उसकी कुछ हद तक भरपाई हुई थी ! अगर आप गोधरा की तरफ़ इशारा कर रहे हो तो मै आपसे सहमत हूँ ! सभी को ये समझाना चाहिए की हम और आप इस सुंदर रचना के द्वारा गुजरात दंगो पर पश्चाताप नहीं कर रहे हैं, बल्कि दोस्ती और अमन चैन के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं, बढाया भी हैं और आगे भी बढायेंगे !
अब न रुकेंगे अब न झुकेंगे !
अब तक बहुत बह चुका पानी (खून) !!
टिप्पणी के उत्तर के लिए प्रतीक्षारत...
सस्नेह !
दिलीप गौड़
गांधीधाम