आप रहे परिचित आलोक श्रीवास्तव से
मैं तो परिचित रहा हूं इस नाम से
वे भी जानते हैं मुझे
एक नहीं हैं अनेक हैं
नेक आलोक
देख भाई विलोक।
भास्कर समूह की मासिक पत्रिका अहा जिंदगी और लक्ष्य के नये संपादक होंगे आलोक श्रीवास्तव। कभी धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं हिंदी क्षेत्र में जो सांस्कृतिक प्रभाव रखती थीं, वैसे ही कुछ इरादों के साथ भास्कर समूह ने अहा जिंदगी का प्रकाशन छह साल पहले शुरू किया था। अहा जिंदगी यशवंत व्यास के संपादन में शुरू हुई थी और लोकप्रियता की अपनी तरह की कहानी इसने रची। धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के बाद यही एक पत्रिका थी, जो सौंदर्य और समझदारी के साथ निकली और ज्यादातर घरों में जगह बनाने में कामयाब हुई। अभी कुछ महीनों पहले यशवंत व्यास भास्कर से अलग होकर अमर उजाला से जुड़ गये। उनके बाद भास्कर के लिए अहा जिंदगी के सफर को आगे बढ़ाने और नये आयाम देने की चुनौती थी। भास्कर के प्रबंध निदेशक सुधीर अग्रवाल की खोजी नजर ने मुंबई में लंबे समय से अपने किस्म की अलग पत्रकारिता करने वाले आलोक श्रीवास्तव को खोज निकाला।
आलोक श्रीवास्तव आईआईएमसी के 1988-89 बैच के पास आउट हैं। वहां से निकलने के बाद उन्होंने लगभग एक वर्ष अमर उजाला के मेरठ संस्करण में काम किया। फिर फरवरी 1990 में बतौर उपसंपादक धर्मयुग गये। धर्मयुग में छह वर्ष तक काम किया। धर्मयुग बंद होने के बाद हाल तक नवभारत टाइम्स के मुंबई संस्करण में रहे। आलोक हिंदी के युवा कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। 1996 में आये उनके पहले ही कविता संग्रह वेरा, उन सपनों की कथा कहो ने हिंदी के कविता प्रेमियों को सघन ढंग से अपने प्रभाव में लिया था। इस संग्रह का चौथा विशेष सचित्र संस्करण आने जा रहा है। उनके बाद के संग्रहों ने भी पाठकों को भरपूर मोहित किया। जब भी वसंत के फूल खिलेंगे (2004), यह धरती हमारा ही स्वप्न है! (2006), दिखना तुम सांझ तारे को (2010), दुख का देश और बुद्ध (2010) जैसे कविता संग्रहों के अलावा कथादेश में आठ वर्षों तक छपा उनका स्तंभ अखबारनामा एक बहुपठित स्तंभ था, जो बाद में अखबारनामा : पत्रकारिता का साम्राज्यवादी चेहरा (2004) के रूप में पुस्तकाकार छप कर भी काफी पढ़ा-सराहा गया। प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर की भगत सिंह के जीवन और विचारों पर लिखी अनूठी पुस्तक शहीद भगत सिंह : क्रांति के प्रयोग (2004) का उन्होंने अनुवाद किया।
मुंबई यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के संयुक्त सचिव रह चुके आलोक श्रीवास्तव ने संवाद प्रकाशन के जरिये हिंदी में दो बेहतरीन ग्रंथमालाओं, विश्व ग्रंथमाला और भारतीय भाषा ग्रंथमाला के जरिये 200 से अधिक पुस्तकों का संपादन-प्रस्तुति की है, जिसमें विश्व साहित्य की अनेक महानतम एवं दुर्लभ निधियां हैं। वे बतौर एक रचनाकर्मी, हिंदी क्षेत्र के सांस्कृतिक उन्नयन को आज के समय की प्रमुख जरूरत मानते हैं। उम्मीद है, उनके संपादन में अहा जिंदगी देश-काल-समाज की खोयी-उलझी परतों के ईमानदार दस्तावेज तैयार करेगी।
कविताएं : आलोक श्रीवास्तव
1. एक दिन आएगा
एक दिन आएगा
जब तुम जिस भी रास्ते से गुजरोगी
वहीं सबसे पहले खिलेंगे फूल
तुम जिन भी झरनों को छुओगी
सबसे मीठा होगा उनका पानी
जिन भी दरवाजों पर
तुम्हारे हाथों की थपथपाहट होगी
खुशियां वहीं आएंगी सबसे पहले
जिस भी शख्स से तुम करोगी बातें
वह नफरत नहीं कर पाएगा
फिर कभी किसी से
जिस भी किसी का कंधा तुम छुओगी
हर किसी का दुख उठा लेने की
कूवत आ जाएगी उस कंधे में
जिन भी आंखों में तुम झांकोगी
उन आंखों का देखा गर कुछ
वसंत का मौसम होगा
जिस भी व्यक्ति को तुम प्यार करोगी
चाहेगी जिस किसी को दिल की गहराईयों से
सारे देवदूत शर्मसार होंगे उसके आगे
चैत्र के ठीक पहले
पत्रहीन हो गए पलाश-वृक्षों पर
जैसे रंग उतरता है
ऋतु भीगती है भोर की ओस में
वैसे ही गुजरोगी तुम एक दिन
हमारी इच्छाओं, दुखों और स्वप्नों के बीच से
एक दिन आएगा
जब हम दुखी नहीं होंगे तुम्हें लेकर
तुम्हें दोष नहीं देंगे
उम्मीदें नहीं पालेंगे
पर, सचमुच तुम्हें चाह सकेंगे
तुम भी महसूस कर सकोगी
हमारे प्यार का ताप.
2. एक विद्रोही स्त्री
इस समाज में
शोषण की बुनियाद पर टिके संबंध भी
प्रेम शब्द से अभिहित किए जाते हैं
एक स्त्री तैयार है मन-प्राण से
घर संभालने, खाना बनाने कपड़ा धोने
और झाड़ू-बुहारु के लिए
मुस्तैद है पुरुष उसके भरण पोषण में
हां बिचौलिए के जरिए नहीं
एक दूसरे को उन्होंने खोजा है
और इसे वे प्यार कहते हैं
और मुझे वेरा याद आती है
उसके सपने याद आते हैं
शरीर का अतिक्रमण करती एक विद्रोही स्त्री
उपन्यास के पन्नों से निकल कर
कभी कभी किसी शहर में किसी रास्ते पर दिखती है
विद्रोही पुरुष भी नजर आते हैं गुस्से से भरे हुए
राज्य के विऱुद्द, समाज के विरुद्द
परंपरा और अन्याय के विरुद्द
मित्रो, शक नहीं है इन पुरुषों की ईमानदारी पर
विद्रोह पर, क्रांतिकारी चरित्र पर
किंतु रोजमर्रा की जिंदगी की तकलीफों के आगे
वे अक्सर सामंत ही साबित होते हैं
बहुत हुआ तो थोड़ा भावुक किस्म के, समझदार किस्म के
मगर सामंत
फिर हम अंत देखते हैं करुणा और विषण्ण-
एक विद्रोही स्त्री का
समाज अपनी गुंजलके कसता चला जाता है उसके गिर्द
जीवन के इन सारे रहस्यों के आगे
यह आधुनिक-पुरुष-प्रेमी लाचार होता चला जाता है
फिर भी अंत तक वह विद्रोही रहता है
समाज को बदलने में संलग्न
और एक विद्रोही स्त्री खत्म हो जाती है
उसके विद्रोह के निशान भी नहीं बचते
उसके ही चेहरे पर।
नदिया बहती जाए और मोहल्लाजीवंत से ब्लॉगहित में साभार।