अंकुर मिश्र की काव्‍य पंक्तियां - तेताला के सामूहिक हिंदी ब्‍लॉगर

#YugalVani
अब भी वो दरवाजा उतना ही खुला है
हल्का सा धुँआ जहाँ से
कभी कभी निकलकर मेरी आखो से टकराता था,
उतनी ही जगह से बच्चे
कभी कभी बच्चे अपनी खोई हुयी गेंद ले आते थे,
शर्दियो की शाम को
कभी कभी खासने की आवाज से लगता था,
हाँ वहां कोई तो है
कोई तो है...
जो रहता है, जो कोई “चीज” नही है !
जहाँ से हर रात एक
दिए की रोशनी आती थी...
'मै'
रोज कई बार गुजरता था
वहाँ से मगर कोई दिखा नहीं "कल" तक...
एक घर था उसी झोपड़ी से सटा,
एक बड़ा सा दरवाजा था
चहल पहल दिखती थी रोज वहाँ हजारो की
कभी दरवाजे पूरे खुले
तो कभी पूरे बंद होते थे
और रोज एक “सतरंगी”
रौशनी होती थी हर रात उस बगल वाले घर में
कुछ शक्लो से लगता था
कुछ लोग काम भी करते थे
"वहाँ"
खाना बनाते है, कपडे धोते है
बर्तन मांजते है, झाड़ू लगते है
और अब कुछ तो खाना भी खिलाते है
अब उनके बच्चो को
मगर “बिना खांसे”
रोज बहुत सोचता था ‘युगल’
ये दोनों दरवाजो को देखकर
एक अधेरे में था और एक उजाले में,
मगर दीवार दोनों की एक दिखती थी
नीव भी एक ही रही होगी.
मै "आज" फिर गुजरा मै वहाँ से
वो जरा सा खुला दरवाजा बंद था, आज
और बगल वाले घर मे
आज कुछ “हल्की” सी उदासी थी
तभी पड़ोसियों ने बताया
आज “माँ” नहीं रही इनकी
जो बगल वाले घर में रहती थी...
बुढ़ापा था,
खुद का घर खुद संभाला था बुढ़ापे में
बिना किसी नौकर या औलाद के...
“औलाद” थी तो बगल में
मगर “उम्र” ने कोशो दूर कर रखा था..
बुढ़ापा था न ‘माँ’ का , अंकुर’ण नहीं..
तभी बगल वाली झोपड़ी में थी
और आज नहीं है !
उस झोपड़ी का दरवाजा
उस जगह से तो बंद हो गया
मगर दिमाग में
अब भी वो दरवाजा उतना ही खुला है...
#YugalVani


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