फिल्मों के संवाद और गानों की भाषा के प्रयोग में बाजारवाद हावी है जिसके कारण सिनेमा में राजनीति का वर्चस्व बढ़ रहा है। इसे राजनीति नहीं धन बटोरने का जुनून कहा जाएगा। परदे के पीछे को अगर पिछवाड़ा कहा जाए तो ठीक भी है पर पिछवाड़े का आशय पाठकगण बखूबी समझ गए होंगे और समझें भी क्यों न, जब खुलकर आज युवा वर्ग में यह और इससे अधिक बोलचाल में विकृति आ गई हो। इसका कारण सिनेमा में इस प्रकार की गाली-गलौच भरी शब्दावली का बहुतायत में प्रयोग किया जाना है। आश्चर्य तो तब होता है कि ऐसा सिर्फ युवकों द्वारा नहीं, युवतियों द्वारा भी किया जा रहा है। कोई लाज नहीं, कि सामने पुरुष मित्र है। यही तो असली विकास की मोहक तस्वीर है।
गाली-गलौच की सोच और प्रयोग के समर्थन में युवक-युवतियों की भीड़ सदैव तैयार मिलेगी। आज से बीसेक साल पहले मराठी फिल्मकार दादा कोंडके ने फिल्मों में जब द्विअर्थी संवादों का प्रयोग किया था, तब खूब हल्ला मचा था। उनकी फिल्मों पर रोक लगाई गई थी। धरना, प्रदर्शन, सिनेमा हाल पर तोड़-फोड़ की घटनाएं आम बात रहीं। उनकी फिल्मों के शीर्षक यथा ‘अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ में’ इत्यादि रहे,जिनका भरपूर विरोध किया गया और आज खुलकर गंदी बात की जा रही है लेकिन कहीं से विरोध का कोई स्वर सुनाई नहीं देता।
फिल्मों में संवाद और गानों के गंदे प्रयोग आज समाज ने स्वीकार कर लिए हैं। कैसी विडंबना है, पतन के रास्ते को विकास मान कर दौड़ जारी है। फिल्में समाज का आईना है या समाज को देखकर उसी के अनुरूप फिल्मों का निर्माण किया जा रहा है। बाजारवाद का ऐसा घिनौना रूप फिल्मों और समाज में हावी हो चुका है। वैसे भारत की पब्लिक जागरूक रही है। सोई तो अब भी नहीं है पर युवाओं के आगे उनका जोर इसलिए नहीं चल रहा है क्योंकि उनकी सैलेरी पैकेज कई कई लाखों तक सालाना बढ़ चुके हैं। जिसकी बहुत बड़ी कीमत हमारा समाज चुका रहा है। भाषा का स्वरूप बिगड़ा तो है पर टीवी चैनल पर उतना नहीं, हां कॉमेडी के नाम पर दो-चार धारावाहिकों में यह फूहड़पन जरूर दिखाई देता है। एमएफ चैनल के डीजे भी इसकी गिरफ्त में बुरी तरह जकड़े जा चुके हैं।
हाल ही में दिखाई गई फगली फिल्म में कॉमेडी के नाम पर सब कुछ परोस दिया गया है। जबकि हमशक्ल्स में इतना बिगड़ा रूप नहीं है पर वह भी एकदम साफ-सुथरी कॉमेडी फिल्म नहीं है। युवा वर्ग को हमशक्ल्स में मजा नहीं आता है, वह फिल्म को बेकार बतलाते हैं और फिल्म को अधूरी छोड़कर चले जाते हैं। जबकि इसके विपरीत फगली में उन्हें वह सब मिल रहा है जो टाइमपास के लिए उन्हें चाहिए। हमशक्ल्स परिवार के साथ देखने वाली फिल्म बन गई है क्योंकि जिस प्रकार के संवाद उसमें हास्य पैदा करते हैं, उतने तो टीवी धारावाहिक भी रोज दिखला रहे हैं। उनकी संख्या ज्यादा नहीं, पर है तो।
अब इतना तो तय है कि भाषा का यही बिगड़ा स्वरूप साहित्य में भी अपनी जड़ें जमाने में सफल हो रहा है। साफतौर पर कहा जा सकता है कि किसी ने समाज को सुधारने का ठेका नहीं लिया है, वह जो बिक रहा है, वही बना रहे हैं। ऐसा नहीं करेंगे तो बाजार से बाहर कर दिए जाएंगे, यही बाजार की रीत है, इसी से दुकानदार को प्रीत है। आखिर फिल्मकार किसी दुकानदार से कम तो नहीं हैं, वह भी धंधा करने आए हैं। धंधे में नुकसान कोई नहीं चाहता है और मुनाफे के लिए यह सब तो करना ही पड़ता है, इसे तो आप भी मानेंगे।
- अविनाश वाचस्पति
सच कहा आपने समाज को पतनौन्मुख बनाने मे फिल्मों पत्र पत्रिकाओं का बहुत योगदान होता है। फिल्मी गानों की पहुँच घरों कस्बों मे घुस गई है। दुख तो तब होता है जब छोटे छोटे बच्चे शादी बारात मे ... गंदी बात ...गंदी बात पर उनही ऐक्सन मे नाचते है जो फिल्मी हीरो हीरोइन करते है और हम खून के घूंट पीते रहते है उन बच्चों के पेरेंट होकर । सबकी अपनी अपनी मर्यादाएं होनी चाहिए और सबको उसी मे रहना चाहिए ...
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