देश में 10 अप्रैल 14 को चुनाव संपन्न होने हैं या बड़े अथवा फिल्मी पर्दे पर लड़ाई भिड़ाई का दृश्य फिल्माया जा रहा है। इस संबंध में प्रचार और प्रसार की भाषा तो यही बतला रही है कि किसी फीचर फिल्म के संवाद सुनाई दे रहे हों जबकि इसे परदे पर देखने पर ऐसा नहीं लगेगा। परदे पर तो इन सबके चुनकर आने के बाद जूते, चप्पल, माइक, घूंसे, लातों की जोर आजमायश इन्हें यश दिलवाने में अहम् भूमिका दिलाते हैं। इन अनूठे पलों के जीवंत दृश्य छोटे परदे पर दिखलाए जा हैं। जिनके जाल में पब्लिक उलझ-उलझ जाती है और अपने वोट को किसी न किसी सपने दिखाने वाले को सौंप आती है। जबकि वह जानती है कि दोनों ने ही नफरत वाली राजनीति की है और उसी की ताकत के बल पर फिर से सत्ता हथियाने को तैयार बैठे हैं।
किसी पार्टी के पद पर आने के लिए फॉर्म भरकर दाखिल दफ्तर के लिए खड़ा होना तो ऐसे कहा जाता है मानो कोई शिशु पहली बार कोशिश करके खड़ा हो गया हो। टिकट लेने को लाईसेंस लेने की प्रक्रिया से जोड़कर देखा जा सकता है। वोट अपने पक्ष में डलवाने की कोशिशों को लड़ना और दारू तथा नकदी के वितरण की भिड़ाई कहकर चुनाव की सारी व्याकरण ही बदल दी जाती है। चुनाव की नई व्याकरण सचमुच में ही बहुत मौजूं है। आप इसी के मजे में इतराते रहते हैं और इतराने के नशे की गिरफ्त में अपना वोट इसलिए इन्हें सौंप आते हैं क्योंकि इन्हें तो किसी न किसी को देना ही है और यह सामने आकर लुभाने वाले को बेहिचक दे आते हैं।
किसी के विजयी होने को कीमतें गिरने के संदर्भ में देखा जाता है। जबकि हारने को किसी जमानत जब्त नहीं हुई और इतने सारे वोट मिले हैं। सिर्फ कुछ सौ, हजार या लाख वोटों की कमी को ऐसे माना जाता है, जैसे कुछ सौ पैसों की बात हो रही हो।
आओ चुनाव में खड़े हो जाएं में अपनी कल्पना की ताकत का रुतबा दिखलाकर देखिए कितना मनोरंजक व मनभावन चित्र सामने ले आते हैं। इसी प्रकार चुनाव लड़ना सोचने विचारने पर दिलखुश कर देता है। मानो चुनाव न होकर डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की ड्रॉमेटिक कॉमेडी युद्ध चल रहा हो। युद्ध में भी आनंद लूटना इस खेल की विशेषता है।अइस प्रकार पूरे चुनाव का व्याकरण एक हंसी मजाक बनकर रह गया है। यह हंसी मजाक राजू श्रीवास्तव, सुनील पाल,बनवारी झोल जैसे कॉमेडियन्स का खिलौना बन गया है। जिनका पेशा पब्लिक को हंसा हंसाकर नोट कमाना है। आजकल हास्य कविता हास्यास्पद कविता बन गई है जबकि हास्यास्पद कविता मनोरंजक कॉमेडी प्रदर्शन। पर इनके दर्शन आंखें नहीं, कान करते हैं। चुनाव वह नाव है जो आम पब्लिक का लक बन गया है। जिसने पब्लिक और सरकार को लूट लिया है, वह लकी। जो नहीं लूट पाया,वह बिना उछलने वाला मंकी। मंकी वह जो अपने मन की की यानी चाबी का मालिक हो। इसलिए आज सभी चाहते हैं कि चुनाव की नाव में विजयी होकर मन की सागर से बाहर निकलकर अपना पूरा का पूरा भुवन सुधार लें। पर इसके लिए काला धन चाहिए, जिन चेहरों पर स्याह रंग की बरसात हुई, वह दिन में स्वप्न देखते हैं, दिन के अपनी मर्जी के रंग के होते हैं। चाहो तो उन्हें काले रंग में देख लो,वरना वह रंगीन तो बनायेंगें ही मस्ती भरी निंदियाई आंखों को। इन्हें देखने के लिए धन नहीं खर्च होता पर इनका निर्माण, निर्देशन आपकी कल्पना की ताकत, रचना की तार्किकता, सच्चाई की डराने वाली अभिव्यक्तियां, अनुभूति बनाकर दिखलाती हैं। इसलिए हम सब मस्त रहे हैं। मंकी वही जो मन की जादू की की यानी चाबी कब्जाकर व्यस्त और मस्त रहे। इन दिनों जादू की छड़ी की नहीं, जादू की चाबी का काला जादू उम्मीदवारों के फेस पर मारा जा रहा है। वह करें भी तो क्या, क्योंकि ऐसा मौका दोबारा तो मिलने से रहा।
बढ़िया है ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मित्रवर बुधवारीय चर्चामंच के लिए।
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