राजनीति क्यों, जननीति क्यों नहीं..!!

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  • संजीव शर्मा/Sanjeev Sharma
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  • लोकतंत्र की आत्मा जनता की संप्रभुता है तो फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के कर्ता-धर्ता ‘राजनेता’ कैसे हो सकते हैं और उनके द्वारा जनता के लिए बनाई जाने वाली नीतियों और उनके क्रियाकलापों को हम ‘राजनीति’ क्यों कहते हैं? चूँकि एक बार फिर हम लोकतंत्र के सबसे बड़े अनुष्ठान में भागीदार बनने जा रहे हैं और तमाम दल अपने अपने स्तर पर जनता की नज़रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं. ऐसे में यह सवाल दिमाग में आना लाज़िमी है कि जनता के लिए काम करने वाले या जनता के प्रतिनिधि ‘जनप्रतिनिधि’ कहलाने के स्थान पर ‘राजनेता’ क्यों बन गए. अमेरिकी राष्ट्रपति और चिन्तक अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी एवं अब तक लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा के मुताबिक “लोकतंत्र जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है". लोकतंत्र शब्द का शाब्दिक अर्थ ही है- "लोगों का शासन या  एक ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है. जब लोकतंत्र के सम्पूर्ण यज्ञ का उद्देश्य ही लोक,जन या फिर प्रजा केन्द्रित है तो फिर यह राजनीति,राजनेता और राजनीतिक दल में कैसे बदल गया. कायदे से तो 
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    1 टिप्पणी:

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