मुझे हिंदी व्याकरण की जितनी जानकारी है, उसके अनुसार जिन शब्दों के अंत में ‘गे’ लगता है, जरूर वह समलैंगिक ही होती हांेगी। यह मेरे निजी गहन शोध का परिणाम है। मिसाल की बानगी पेश है - आप गाएंगे, आप आएंगे, आप जाएंगे, आप बुलाएंगे, आप भगाएंगे, इन सबमें आदर की अनुभूति ‘गे’ होने से ही आती है। ‘गे’ हटाने से कितना रूखापन आ जाता है। जहां ‘गा‘ जुड़ता है, वहीं बदतमीजी हो जाती है शुरू। तू जाएगा, तू गाएगा, तू डराएगा, तू भगाएगा - यह सब शब्द अनादर से लबालब हैं। बदतमीजी की गागर हैं। जहां ‘गे’ जुड़ गया, आदर होना स्वाभाविक है।
प्यार करने वाले से तू तड़ाक करने वाले ‘गे’ की महिमा से कैसे परिचित हो सकते हैं। तू चलेगा, तू लड़ेगा इनमें प्यार तो माना जा सकता है, पर आदर वाला प्यार पास नहीं फटक सकता। यह सब शब्दों से ‘गे’ संबंधों से ही हासिल होता है। ‘गे’ का महत्व सनातन का महीन सत्य है। फिर काहे ‘गे’ होने से डरना, बचना। अच्छा लगाव है ‘गे’ के गले लिपटना। आज इसी पर सुर्खियां हैं। चैनल वालों की बढ़ती टीआरपी देखकर मन मुदित हो रहा है। ‘गे’ की ‘गैल’ जो जाएंगे वह भरपूर सम्मान पाएंगे। अब हम सब मिलकर ‘गे’ ‘गे’ गाएंगे। जबकि ‘गा‘ ‘गा‘ वाले ‘गें‘ ‘गें‘ रिरियाएंगे।
तमीजदार होना ‘गे’ होना है इसलिए उसका समर्थन करना हरेक बुद्धिजीवी विवेकशील इंसान का पावन कर्तव्य है। इसमें लिंगभेद नहीं, समलिंगी वाला स्नेह लुभाता है। हम आपको बहुत प्यार से बुलाते हैं, प्यार से बुलाना जब पाप नहीं है, तब ‘गे’ होना किसी भी तरह से अपराध नहीं है। इस मुद्दे पर मैं कांग्रेस की मुखिया और उनके पुत्र युवराज का बिना शर्त समर्थन करता हूं। हम किसी को भी मारें, मारें मगर प्यार से, यही ‘गे’ होना है और ‘गे’ होना समलैंगिकता है तो मुझे इसके बारे में विस्तार से जानकारी नहीं है। जो जानकारी मैंने जुटाई है, वह फिल्मों से पाई है। कई मुल्कों में तो इससे शहनाई भी बजती है। कितनी ही हिंदी फिल्मों में भी समलैंगिकता की हिमायत की जाती है, चाहे उनका नाम ‘फायर’ ही हो। जबकि वह पिस्टल वाला फायर नहीं है, माना जा सकता है। उसको बढ़ावा देने और पुष्टि करने के लिए यह सब किया जाता है। मुझे कई बार अफसोस होता है कि जो मामले सनसनीखेज बन जाते हैं, मुझे उनके नाक-कान तक के बारे में जानकारी नहीं होती है। पता नहीं मेरी शिक्षा में कमी रह गई है या यह मामले तब पाठ्यक्रम में नहीं होते होंगे।
वैसे मैंने परीक्षा के समय नोट्स से काम चलाया है, उनसे फर्रे यानी पुर्जे बनाकर भी अंडरवियर में छिपाकर परीक्षा हाल में ले गया हूं। पूरी किताबें इसलिए नहीं पढ़ीं क्योंकि उन्हें खरीदने की मेरी औकात नहीं रही है, जबकि इससे मेरे अभिभावकों के रूतबे का मालूम चलता है। मैं अपनी पढ़ाई के दौरान लायब्रेरी से किताबें हथियाने में इसलिए जानबूझकर सफल नहीं होता था क्योंकि उनको लेकर पढ़ना आफत लगती रही है। अब भला कोई जानते-बूझते ओखली में सिर डालकर सिर पर मूसल मारने का शौकीन हो, पर मैंने ऐसे शौक नहीं पाले। मुझे गर्मियों की धूप में गिल्ली डंडा खेलने, मैदानों में आवारागर्दी करना पसंद रहा है, तब मैं इसका लती था आज फेसबुक और सोशल मीडिया की लत का आसान शिकार हूं।
यह भी हो सकता है कि जिसे समलैंगिकता कहा जा रहा हो, वह बचपन के व्यावहारिक
जीवन का अंश रहा हो, पर इसका दंश कभी महसूस हुआ कि नहीं, मैं बतला नहीं सकता। क्योंकि मैं मरहूम राजेन्द्र यादव बनने की कला में निष्णात नहीं हूं।
हमें पता है आप जब भी लिखेंगे कुछ अनूठा ही लिखंगे :)
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