फिल्‍मों में पोस्‍टर फाड़ना प्रचार युद्ध है : बॉलीवुड सिने रिपोर्टर अंक 37 में प्रकाशित


 
परदा फटे बिना हीरो निकल आता है, हीरोइन निकल आती है, चरित्र अभिनेता, खलनायक और आइटम सांग्स  की भरपूर खेप के आने और गाए जाने गीत और उन पर अभिनय करने वाले कॉमेडियन निकल आते हैं बल्कि खूब हंसाते हैं। जब इतना सब बड़े परदे पर हो जाता है और परदा साबुत रहता है। फिर सिर्फ हीरो के आने के लिए पोस्टर  फटने की जरूरत मुझे समझ नहीं आती है, जबकि दर्शक इस बारे में सोचता नहीं है और बनाने वालों को सोचने की जरूरत इसलिए  नहीं होती है क्योंकि इस बहाने वे बड़े परदे तक  दर्शकों को सफलतापूर्वक खींच खींच कर ले आते हैं।


इसके बावजूद छोटे परदे से बिना तोड़-फोड़ किए हुए भी टीआरपी तेजी से बढ़ जाती है, जिसके कारण खूब विज्ञापन मिलते हैं और जिनकी सफलता के लिए एकदम प्राचीन महाभारत-रामायण सरीखे कार्यक्रम छोटे परदे पर बड़ी भूमिका निबाहते हैं। जब सब इतनी आसानी से हो जाता है जिनका मूल उद्देश्य या मंजिल करेंसी नोटों तक पहुंचने और अपनी-अपनी जेबों तथा तिजोरियों में ठूंसने का होता है। यह सब उपक्रम यानी धन पाना इत्याादि जीवन में खुशियां पाने को आसान बनाते हैं। यह खुशियां दो प्रकार से देते हैं - एक तो अपने पास करेंसी नोटों का होना, खुशियां पाने का सीधा उपाय है। दूसरा रास्ता  पूरी तरह टेढ़ा है, पर उसमें खुशियों की दोगुनी कामयाबी मिलती है। सामने वाले को, परिचित को या पड़ोसी को दुखी देखकर जो खुशी या दुख मिलता है, वह भी इससे जुड़ा हुआ है। आपके पास करेंसी नोटों की खूब भरमार आपके सामने वाले के लिए दुख का सबब बनती है। जबकि सामने वाले का दुख अपने करेंसी नोटों के साथ  मिलकर डबल खुशियों का वायस बनता है।


इसलिए मन की चाहना रहती है कि अपना तनिक भी नुकसान न हो और भरपूर फायदा मिले, मतलब न परदा फटे, न पोस्टर और फिल्में टिकट खिड़कियों और इंटरनेट बुकिंग के जरिए धन के अंबार लगा दें। अब चाहे इसे पाने के लिए स्वस्थ  कॉमेडी हो या बीमार, द्विअर्थी हो, गीत या संवाद फूहड़ हों, इनसे करेंसी नोट लाल, पीले, नीले और हरियाली रंग से भरपूर मिल रहे हों, फिर क्या  फर्क पड़ता है।  चाहे समाज का सत्यानाश, सवा या डेढ़ सत्यानाश अथवा सब कुछ तहस-नहस हो जाए, मटियामेट हो जाए। मतलब पोस्टर के फटने से हीरो निकले, न निकले, पोस्टर फटे न फटे, परदे में सूराख हो न हो,  फिल्म चले और खूब तेजी से दौड़कर इतना बिजनेस करे कि तन मन और बैंक खाते झूम झूम जाएं।  छप्पर फाड़ कर, सीमेंटिड कंक्रीट की छत तोड़कर धन बरसने लगे, इसलिए पोस्टरों को फाड़ने के  लिए ऐसी ही कहानियों, रोचक विषय वस्तुओं की खोज में जब निर्माता, निर्देशक, जुटे रहते हैं और अभिनेता, अभिनेत्री भी यही चाहते हैं कि वे लीक से हटकर बनने वाली फिल्मों  में काम करें अथवा लीक पर चलने वाली वे राष्ट्रीय पुरस्कार पाएं या अंतरराष्ट्रीय या न भी पाएं- इनसे कमाया धन ही सच्चा पुरस्कांर और सम्मान माना जाता है।


अब तो आप समझ गए होंगे कि क्यों  पोस्टर फाड़कर हीरो को मीडिया या दर्शकों  के  सामने लाने के लिए वितरक या निर्माता, फाइनेंसर युद्ध में रत रहते हैं। फिल्मों  में धन की प्राप्ति के लिए ऐसे युद्ध जरूरी हैं। यहां पर शांति‍  फिल्मों के लिए घातक है। शांतिपूर्ण फिल्मों को चलाने के लिए भी यहां पर प्रचार युद्ध जरूरी हैं।

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