मुझे कुछ याद नहीं रहता |
‘हंस’ के जून, 2013 के अंक में श्री राजेंद्र यादव ने वरिष्ठ साहित्यकार उद्भ्रांत के सम्बंध
में एक आपत्तिजनक पत्र छापा था। एक महीने पूर्व ही उन्होंने मई, 2013 के अंक में अपने
संपादकीय में भी ऐसी ही एक अनुचित टिप्पणी की थी। इस संबंध में उन्होंने एक
विस्तृत प्रतिक्रिया 17 जून, 2013 को ई-मेल से भेजकर उन्हें टेलीफोन से सूचित किया तो उनका कहना था कि इस
अंक में वह नहीं जा सकेगी क्योंकि जुलाई अंक तैयार हो चुका है; यद्यपि जून अंक की ‘रेतघड़ी’ में एक ऐसे कार्यक्रम
की रपट छपी थी जिसका आयोजन दिल्ली के बाहर 17 मई को हुआ था! फिर भी उन्होंने उनकी बात पर विश्वास किया कि उनका
पक्ष अगस्त, 2013 के अंक में प्रकाशित होगा। अगस्त अंक में भी प्रकाशित न होने पर उन्होने
राजेंद्र यादव से फ़ोन पर पूछा कि वे उनके पत्र को प्रकाशित कर रहे हैं या
नहीं ? 13 अगस्त तक होने वाली दो बार की टेलीफोन वार्ताओं में वे गोलमोल बात करते
रहे। 14 अगस्त को दोपहर में उन्होंने उसे छापने से यह कहकर इन्कार कर दिया कि मैं
अकेला ही निर्णय नहीं करता हूँ-तीन और लोग भी हैं। यह बात वे 17 जून को पत्र प्राप्त
होने पर भी कह सकते थे लेकिन चूँकि इस पूरे प्रकरण में राजेंद्र यादव के साहित्य
के तथाकथित लोकतंत्रवादी होने की पोल खुल रही थी और उनकी निकृष्ट राजनीति का घटिया
चेहरा उजागर हो रहा था इसलिए उन्होंने जानबूझ कर इसे स्पष्ट करने में विलंब किया।
इस प्रकरण से इस बात का भी खुलासा हो जाता है कि राजेंद्र यादव को पत्रकारिता की नैतिकता
का ज्ञान नहीं है और उसकी धज्जियाँ उड़ने की वे कोई परवाह नहीं करते। प्रस्तुत है राजेंद्र यादव के नाम
उद्भ्रांत का एक खुला पत्र -
प्रिय राजेंद्र यादव जी,
सादर नमस्कार ।
पहले, मई अंक के संपादकीय द्वारा, फिर इस जून महीने में एक स्तंभ किंवा
एक कदम आगे बढ़ाते हुए, पत्र-लेखन क्षेत्र में पृथ्वी या सूरज के तेज से तापित
यशःकामी-पथगामी अनुचर की निरर्थक लम्बी भौं-भौं को ‘अपना मोर्चा’ बनाकर आपका मासिक
धर्म, आप पर लिखने की मेरी मालूम पूर्वेच्छा को अविलम्ब अमली-जामा पहनाने
हेतु क्रमशः स्मरण करा रहा है,
जिसकी आवश्यकता न थी। स्मृति इतनी
खराब नहीं हुई। मगर अभी प्राथमिकता में ‘यश भारती’ से पुरस्कृत होना
नहीं, अधूरे कामों को पूरा करना है; जो सिर्फ़ ‘मिथकों का कचूमर
निकालने’, आपकी तरह मियाँ मिट्ठू बनने और बक़ौल आपके हमारे सांस्कृतिक
चरित्रों को किसी अन्य समकालीन लेखक की संपत्ति मान उन्हें ‘छीनकर’ अपने पाले में करने
तक ही सीमित नहीं है-इसे सारी दुनियाँ नहीं-आप जानते हो। ऐसा न होता तो तीन वर्ष
पूर्व दूरदर्शन के उप-महानिदेशक पद से अवकाशप्राप्ति के बाद ‘न लिखने का कारण’ खोजते हुए आकाशवाणी
या दूरदर्शन में, अधिकांश सहकर्मियों की तरह, पुनर्नियुक्ति पा लेता, किसी चैनल या
प्रकाशनगृह में सलाहकार या निदेशक, किसी सरकारी/अर्द्धसरकारी/स्वायत्त
प्रतिष्ठान में अध्यक्ष/ उपाध्यक्ष अथवा किसी पत्रिका या अख़बार में संपादक हो
जाता (यह कोई बेपर की उड़ान नहीं है, इनमें से कुछ प्रस्ताव समय-समय पर
मिले भी)। कुछ नहीं तो आठवें दशक की अपनी चर्चित पत्रिका ‘युवा’ का पुनर्प्रकाशन तो
कर ही सकता था । मगर जानता हूँ कि ययाति की तरह सुदीर्घ काल तक उधार की जवानी मेरे
पास नहीं है, न आपकी तरह पंचशरयुक्त मदनानंद महाराज ने चिर-यौवन का वर दिया है, सो हमेशा
कार्य-सक्षम नहीं रह सकूँगा। यद्यपि मेरा कार्य आपकी भूतपूर्व रचनात्मक सक्रियता
से मेल खाता है, उत्तरवर्ती तथाकथित विमर्शात्मक उखाड़-पछाड़ से नहीं। इसलिए अनुरोध
है कि ज़रा धीरज रखें और समुचित वक़्त दें। पहली फ़ुरसत मिलते ही आप पर ध्यान
केन्द्रित करूँगा।
मिथक से आपको इतनी परेशानी क्यों है ? वह सदियों से इस
देश की आबोहवा में घुल-मिल चुका है। धर्म में ही नहीं, दैनंदिन व्यवहार, यहाँ तक कि राजनीति
में भी कांग्रेस-भाजपा से लेकर सपा-बसपा जैसी पार्टियां आये दिन रामायण-महाभारत से
सम्बंधित किसी-न-किसी मिथक को किसी-न-किसी प्रसंग में अपनी बात वज़नदार ढँग से
रखने के लिए उद्धृत करती रहती हैं। मुझे ताज्जुब है कि अगर इतनी ही ऐलर्जी है तो ‘त्रेता’ महाकाव्य से आइडिया
उड़ाकर ‘लक्ष्मणरेखा’
जैसी कहानी लिखने की क्या ज़रूरत थी ? तीन वर्ष पहले
कृष्णबिहारी द्वारा मेरे प्रकाशक से अधिकतम लेखकीय छूट पर खरीदी ‘त्रेता’ की वह प्रति महीनों
तक मैंने आपके इंद्रासन के पीछे के रैक में रखी देखी थी।
यशपाल से उधार लेकर स्तंभ का नाम तो रख दिया ‘मेरी तेरी उसकी बात’, मगर जन्म से आज तक
उसका बड़ा प्रतिशत ‘मेरी’ (यानी आपकी) बात से ही आप्लावित होता रहा है और आरोप ‘मैं... मैं...’ करने का आप दूसरों
पर लगाते हो - कभी नामवरजी, अशोक वाजपेयी तो कभी इन पंक्तियों के लेखक पर। उसकी ख़ूबसूरती
दरअसल आप ही पर चस्पाँ होने में है।
अब ‘अपना मोर्चा’
के ‘कुंठित’, ‘उद्दंड’ और ‘तमीज़’ न जानने वाले भारी-भरकम विशेषणों से
युक्त (ये शब्द मैंने लौटा दिये,
इन्हें छापने वाले संपादक से होते हुए
कहीं अब वे लिखने वाले की पूँछ के साथ किल्लोल तो नहीं कर रहे ? जानकारी हो जाये तो
मुझे भी सूचना देने की कृपा करेंगे !) मुझ जैसे ‘महान’ (?) व्यक्ति ने आपके ‘शालीन’ पत्र-लेखक के
विरुद्ध एसएमएस के ज़रिये जो ‘युद्ध-सा’ छेड़ा, उसका ज़ायका स्वयं लेने के बाद ज़रा अपने पाठकों को भी रसास्वादन
करा दें। ख्पहला,-‘‘वेलकम माय डीयर ब्वाय! आय कांट अफ़ोर्ड टु सी यू इन दैट
पर्सपैक्टिव, सिंस यू आर स्टिल एट द ऐज़ अॅव ऐप्रौक्स. फिफ्टी फाईव। प्लीज़
ट्राई टु बिकम ए मैच्योर्ड मैन,
रॉदर टु पॉज़ ऐन ऑफिसर, टु हूम नो क्रिएटिव
पर्सन वुड लाइक टु टॉक! थैंक्स एंड गुड नाइट’’ (07 मई, 2013)। लेकिन भले आदमी ने गुड नाइट नहीं
माना! तब ख्दूसरा,-‘‘बैटर यू इंट्रॉस्पैक्ट योरसेल्फ एंड नेवर ट्राई टू कॉल मी ऑनवर्डस्।
प्लीज़ रिम्मेबर, आयम रेस्पोंडिंग टु ए पर्सन हू हेज़ नो रिगार्ड फॉर इंडियन
वैल्यूज़, फॉर विच यू डिज़र्व टु टॉट अ लेसन, नॉट बाई मी, बाय द ऐनैलिस्ट अॅव
योर बिहेवियर’’ (वही)। मगर, प्रकृतिदत्त टेढ़ी पूंछ सीधी कैसे होगी! सो, तत्काल फिर ‘शालीन संदेश’ आया, तब यह ख्तीसरा,-‘‘धन्यवाद, कि आपने मना करने
के बावजूद अपनी सही स्थिति बयान की!’’: और अंत में यह कि ‘अब मैं भविष्य में
आपका कोई एसएमएस नहीं पढूँगा,
नाम देखते ही डिलीट कर दूँगा’।
समझा जा सकता है कि किसने किससे ‘पीछा छुड़ाया’ और वह भी कितनी
मशक़्क़तों के बाद! और आपने बहुत गद्गद् होकर ‘हंस’ के पाठकों को यह ग़लाज़त परोस दी, अपनी किस कुंठा के
अंतर्गत और क्यों, इसे तो राजा इंद्र ही जान सकते हैं! यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि
उदयपुर से प्रकाशित समाजवादी विचार के जिस साप्ताहिक ‘महावीर समता संदेश’ को यह पत्र-लेखक ‘धार्मिक’ बताता है, उसी के 26 मई, 2013 के अंक में अपनी
टिप्पणी भी छपने भेजता है! नई पीढ़ी इस तरह के दोमुँहेपन से स्वयं को मुक्त करे तो
उस के लिए बेहतर होगा।
आपके और मेरे एक कॉमन मित्र ने बताया कि ‘‘दरअसल यादवजी ‘पाखी’ के अप्रैल, 2013 वाले अंक में आपके
लम्बे पत्र के उस हिस्से से दुखी थे जिसमें कमलेश जैन के आलेख के संदर्भ में आपने
उनके दफ़्तर में जाकर उनकी लिखी जा रही भविष्य की ‘बेस्ट सेलर’ किताब का उचित
शीर्षक सुझाया था-‘एक अस्वस्थ व्यक्ति के अस्वस्थ विचार’! इसीलिए दिल्ली आकर
उनसे गंडा-ताबीज बँधवाने की इच्छा से शरणागत हुए इस युवा से उन्होंने पहले अपनी
निष्ठा प्रमाणित करके उचित पात्रता हासिल करने की शर्त रखी!’’ मेरा तो इससे
पर्याप्त मनोरंजन हुआ। आशा है ऐसा मनोरंजन आप इन्हीं सज्जन के किसी नये और किन्हीं
सज्जन के किसी गये पत्र के द्वारा आगे भी कराते रहोगे!
दस-पन्द्रह वर्ष पूर्व इन सज्जन के द्वारा संपादित पत्रिका के ‘शील’ अंक का विज्ञापन
देखा (बाद में भी सिर्फ़ विज्ञापन ही दिखता रहा है!) तो खुशी हुई थी कि हमारे परम
आदरणीय शीर्ष जनवादी कवि-जिनकी हिंदी जगत ने भरपूर उपेक्षा की-की स्मृति को किसी
ने प्रणाम किया है। इसी तथ्य को उनकी स्मृति में लिखी कविता में मैंने स्मरण किया
था। ये महोदय पिछले दस-वर्षों से जब-तब फ़ोन कर मुझे अपनी नयी पोस्टिंग्स की सूचना
देते रहते थे। अब दिल्ली में आकर इनकी महत्त्वाकांक्षा इस रूप में सामने आई है जो
साहित्य में येन-केन-प्रकारेण चर्चित होने की कांक्षा रखने वाले युवकों में प्रायः
पाई जाती है। किसी वरिष्ठ स्थापित रचनाकार पर अंक केंद्रित कर या उसका सहारा लेकर
(जैसाकि मौजूदा केस में दिख रहा है!) आपकी तरह ये लोग सोचते हैं कि बदनाम भी होंगे
तो क्या नाम न होगा! मगर कुछ जेनुइन लोग तो इन्हें सबक़ सिखाते ही हैं, जैसाकि भोपाल से
प्रकाशित ‘प्रेरणा’ में देखने को मिल रहा है।
अभी कुछ समय पूर्व ही पहली बार अपना चेहरा दिखाने वाले आपके इस नये
शिष्य-कमंडल को इसलिए फटकार लगानी पड़ी कि महोदय ने फोन पर सोशल इंजिनियरिंग करते
हुए फ़रमाया-‘‘अब मैं ठीक से सेटिल हो गया हूँ, इसलिए मिलने आ जाइये!’’ मेरी स्वाभाविक
प्रतिक्रिया जानने के बाद अपने आचरण का प्रमाण देते हुए मुझे ‘कुंठित’ कह रहे हैं-शायद
आपके ही किसी वरिष्ठ शिष्य से ज्योतिष विधा सीख कर। पाठक समझदार हैं। तय कर लेंगे।
इसी अंक और इसी स्तंभ में एक सजग पाठक ने किसी और संदर्भ में जो
कहा है उसका यह अंश यहाँ सटीक बैठता है-‘‘...क्योंकि जैसे ही इसे खुले में लाया
जाता है, यह अपनी नज़ाकत खोकर एक अरुचिपूर्ण परिदृश्य रचता है जिसका आनंद
मात्र विकृत लोग ही ले सकते हैं।’’
इस प्रसंग को लेकर मैं मानहानि का
दावा भी ठोक सकता था, मगर ऊपर कहे गए जिस रचनात्मक कारणवश मैंने अन्यत्र व्यस्त होना
उचित नहीं समझा, उसे देखते हुए मुझे वह समय और शक्ति का अपव्यय लगा।
पत्र-लेखक को प्रेमचंद, अज्ञेय, भारती और कमलेश्वर जैसे
साहित्यकार-संपादकों की श्रेष्ठ परंपरा के निर्वहन में यह बुजुर्गाना परामर्श भी
दें कि कुछ रचनात्मक कार्य करें और सार्थक लिखे-पढ़ें। क्योंकि जो रचेगा, वही बचेगा! ऐसी
प्रवृत्ति तो बहुत जल्द आपको इतिहास के किसी कूड़ेदान में फेंक देगी! लेकिन कौन
जाने, तब उनकी स्वयंसिद्ध ‘शालीनता’ का पंचम स्वर इंद्र
को परास्त करने वाले ब्रजवासी कृष्ण की बाँसुरी की बंकिम तान बनकर कर्ण-कुहरों के
रास्ते आपकी आत्मा को ही झंकृत कर उठे कि-‘पर-उपदेश कुशल बहुतेरे!’
आप स्वयं तो लिखना बंद कर चुके हो इसीलिए लिखने वालों के प्रति
इर्ष्या-द्वेष रखते हो। अपने चेलों -चपाटों को छोड़ अन्य लेखकों की पुस्तकों से
सम्बंधित कार्यक्रमों की रिपोर्ट आपकी पत्रिका में देखने को नहीं मिलती। प्रमाण इन
पंक्तियों के लेखक की पुस्तकों से संबंधित हाल ही के दो कार्यक्रमों के बाद मिल
जाता है-विश्व पुस्तक मेले में 7
फरवरी, 2013 और गत 10 मई, 2013 को क्रमशः छह और नौ पुस्तकों के
लोकार्पण!
आपने पत्र-लेखक को नैट से उठाया है, मगर मैं अपनी पत्र-टिप्पणी सीधे ‘हंस’ में प्रकाशनार्थ
भेज रहा हूँ। आशा है कि अपनी आलोचना को लोकतांत्रिक ढँग से सुनने और पत्रकारिता की
नैतिकता को मानने का दावा करने वाला संपादक इस स्पष्टीकरण को स्थान देने से
घबरायेगा नहीं। वैसा करने पर उसकी सही तस्वीर हिंदी जगत के सामने होगी जो उसकी
तथाकथित ‘नैतिकता’ को प्रमाणित करेगी। तत्पश्चात्, विवश होकर मैं इसे 'नुक्कड़' पर जारी कर
रहा हूं।
विनीत, आपका,
उद्भ्रांत
17.06.2013
बी-463, केन्द्रीय विहार,
सेक्टर-51,
नोएडा-201303
मो. नं. 09818854678
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