पर्यावरण को सुधारने और बिगाड़ने संबंधी मानवीय चिंतायें बेहद
चिंतनीय हैं। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो बालमन के पर्यावरण को सबसे
स्वच्छ पाया गया है। आपने वह फिल्मी गीत सुना ही नहीं होगा बल्कि जहन में अब भी
गूंज रहा होगा। नन्हा मुन्ना राही हूं, देश का सिपाही हूं, मेरे साथ मिलकर बोलो, जयहिन्द, जयहिन्द, जयहिन्द।
बालमन के पर्यावरण की यह निश्छलता देश काल की सीमाओं से बाहर अपने अक्षितिजीय
मनभावन स्वरूप में संपूर्ण सृष्टि में नेह बरसा रही है। बचपन में हम पैंया पैंया
चलते रहे हैं और उससे भी पहले घुटनों के बल खिसकते रहे हैं। बिना कहे, बिना सुने अपने विचारों के जरिए अनुभवों की सैर
का आनंद लेते रहे हैं। खिसकने से पैदल चलने का यह सफर, पैदल के बाद साईकिल की सवारी, साईकिल के बाद किशोर होने पर मोटर साईकिल और स्कूटर
पर उतर चढ़त, फिर
कार, बस, सारे चौपहिये वाहन, और फिर इससे आगे बढ़कर रेल, जिसके पहिये गिने तो जा
सकते हैं, पर कोई गिनता नहीं है, सिवाय उनके जिन्हें उनका गिन गिनकर हिसाब रखना होता है।
गिनता है बचपन में बच्चा, सिर्फ रेल के पहिये ही नहीं, कितनी चींटियां जमीन पर चल रही हैं, कितने मच्छर उड़ रहे हैं, कितने कुत्ते भौंक रहे हैं, कितनी मक्खियां हैं, उन्हें मारने की कोशिश करता बालमन, बचपन में क्रूरता का समावेश करता चलता है। वो
गिनता तो है उन रोटियों को भी जिनसे वो अपने पेट की भूख मिटाता है, भाई बहनों को भी जिनके साथ रहता है, दोस्तों पड़ोसियों को, इन पर प्यार लुटाता है, माता पिता को, हितैषियों को जिनसे असीम प्यार दुलार पाता है। देखता है उस इंसान के बारे में जो मुंह से धुंआ
उगलता दिखलाई देता है। धुंआ सिर्फ धूम्रपान का ही नहीं, अपशब्दों की बारिश भी, जिनसे रोजाना रूबरू होता है। वहीं से सही-गलत सब सीखता बढ़ता रहता है।
जबकि वो घट रहा होता है। दिन, शरीर के स्तर पर और वैचारिक
स्तर पर बढ़ रहा होता है। अनुभवों के मायने में समृद्धत्व को प्राप्त हो रहा
होता है। पर इस गिनती में कोई स्वार्थ नहीं होता। स्वार्थ
से बचा रहे ऐसा नहीं होता।
यह अच्छा है तो मेरा है, मेरे भाई का है, मेरी बहन का है, मेरे मित्र का है, मेरे पिता का है, माता का है और जो बुरा है वो तेरा है, किसी अनजाने का है। जबकि अनजाना कौन है, सबमें मानवमन समाया है। बचपन में मच्छरों, चींटियों, मक्खियों को
मारने से उपजी क्रूरता बचपन को मार देती है। थोड़ा और बढ़े होने पर सांप, बिच्छू को मारना। जबकि वही जब किसी कुत्ते के पिल्ले
को, बिल्ली
को, गिलहरी को दुलार करती है तो बचपन का आनंद कई सौ गुना बढ़ जाता है। इनके अच्छे प्रभाव से हम इंसानियत के पर्यावरण को सब सुधरता हुआ देखते हैं।
जमीन पर दौड़ने में फास्ट मेट्रो, उसके बाद हवाई जहाज की रनवै पर तेज दौड़, भला उससे कौन करेगा होड़ – पर उससे भी होड़ जारी है – सबसे तेज विचारों की सवारी है। इन विचारों का
पर्यावरण स्वच्छ है, तो प्रत्येक मन गंगा है, मन कठौती है और विचार गंगा है। किसी का मन नहीं
बुराईयों से रंगा है। बचपन स्नेह का अपनाबन। बनना, बनना और मन का सबसे बंधते जाना।
अब इस पर्यावरण पर भी खूब खतरा तारी हो रहा है। बचपन वो बचपन नहीं
रहा, जो
देश को, संसार
को अपने बचपने से लुभाये। अब बालमन आधुनिकता के मकड़जाल में उलझ गया है और इस बुरी
तरह से उलझ गया है कि सुलझाये नहीं सुलझ रहा है। फास्टता इतनी अधिक और इतनी तेजी से
समाती जा रही है बल्कि बरगलाती जा रही है कि फूड बन रहा है फास्टफूड, भाषा बन रही है फास्टभाषा (एस एम एस और चैनलों
की भाषा पर गौर कीजिए और यही बन रही है अखबारों में खबरों की भाषा), फास्टमेट्रो, फास्टजहाज (चाहे युद्धक सही, पर युद्ध बुराईयों से तो है सही परंतु युद्ध
नहीं सही, जो
बचपन के विरुद्ध लड़ा जा रहा है) , फास्टमोबाइल, जो सभ्यता और संस्कृति को बच्चों से दूर ले
जा रहा है, इन्हें
भटका रहा है और ये बचपन मटक रहा है, अच्छाईयों को गटक रहा है।
इसमें न अटकें, इससे
बचें और बाहर निकलें, तभी
बचपन का पर्यावरण सुरक्षित रहेगा, चाहते सब हैं परंतु बचपन में इस भंवर में फंसने
के बाद, बड़े
होने पर समझते हैं, अहसासते
हैं पर समय से क्या करें, आप ही
ढूंढ़ कर बतलायें कोई कारगर उपाय।
पर एक फास्टता सबको लुभा रही है और उसके जरिए हमारी सबकी प्यारी
हिन्दी समूचे संसार में अपना सिक्का जमा रही है। सिक्का जो सोने का नहीं है, डायमंड का नहीं है और न ही है चांदी का। वह सिक्का
है इंटरनेट पर हमारी हिन्दी की भूमंडलीय सार्थक उपस्थिति। हिन्दी जिसने हिन्दी फिल्मी गीतों के जरिए
पूरे विश्व में हिन्दी के पर्यावरण को महकाया, उसे और फास्टता के साथ इंटरनेटीय तीव्रता से
सुगंधित कर रही है। पूरे विश्व को हिन्दीहोम बना रही है। आप जान लीजिए कि पूरे
समूचे विश्व को हिन्दीहोम सिर्फ हिन्दी के द्वारा ही बनाया जा सकता है, हिन्दी प्रेमी ही बना सकता है और समूचा जगत
हिन्दी प्रेमी बनता जा रहा है।
पर्यावरण पर चढ़े हुये छद्म आवरण को वरण मत कीजिए। बचपन से ही तज
दिया जाये, ऐसा
कारगर उपाय कीजिए। बचपन पर बच्चों का ही नहीं, सबका मन अहसास करे सुंदर सलोने बचपनीय मन का।
शरीर की प्रत्येक रक्तवाहिनी में, नस नाड़ी में, विचारों की गाड़ी में बचपन ही सवार नजर आए। हर
नजर खिलखिलाए। पर्यावरण प्रत्येक मन का अंदर तक सुंदर बना रहे। यही कामना है जीवन
की। पुरस्कार चाहे न मिले, नकद
राशि बिल्कुल भी न मिले, पर
बचपन और पर्यावरण का तारतम्य अपनी स्निगधता में बना रहे, यही मेरी और प्रत्येक नेक सच्चे मानव मन की कामना है।
यह कैसे हालात पैदा हो गए हैं जाने अब कहाँ-कहाँ और क्या कुछ बचना है ऐसा जान पड़ता है जैसे कुछ सुरक्षित ही नहीं बचा न बचपन न पर्यावरण न संस्कृति न सभ्यता सब कुछ जैसे खोता ही चला जा रहा है।
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