तलाक कहकर ताला किया लॉक‍ : जनवाणी स्‍तंभ 'तीखी नज़र' 18 जून 2013 अंक में प्रकाशित

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  • अविनाश वाचस्पति
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  • अब सब रहे हैं लॉफ। लॉफिग यह बुद्धा की नहीं है, सर्फिंग यह विशुद्ध नहीं है। इस हंसने में जीवन नहीं है, चहकने का बिल्‍कुल मन नहीं है। परिहास से शुरू हुआ सफर हास्‍यास्पद गति तक पहुंच गया है। तलाक कहा और कर दिया रिश्‍तों का ताला लॉक। शायरी का भरपूर बेड़ा गर्क हुआ है, जान लीजिए बंदर के हाथ में अदरक दिया है। दुआ दे रहे हैं जीने की और तीन कदम उपर बढ़ते ही वह जीना तोड़ देते हैं। करते हैं जो दवा उसमें भी मिलाते हैं दारू और कहते हैं कि कारूं का खजाना हाजिर है। दुआओं में उनकी छेद इतने सारे, नीयत में होने लगे हैं बंटवारे,  जिसमें षडयंत्र बैठा है पैर पसारे। नीयत मंडरा रही है कुर्सी के आसपास। न किसी को आस, न किसी को विश्‍वास। जब दिल ही टूट गया अब पीकर क्यों मरेंगे, मरने के बाद भी पीने का बिल भरेंगे। कुर्सी नहीं मिलने का रहा भरोसा, फिर एक कदम भी मिलकर क्‍यों चलेंगे।

    आह भरी बदनाम हुए, इतना भारी नाम हुआ, तलाक दिया जिसके तले कुचलकर उनका काम तमाम किया। कत्‍ल करने की जरूरत पड़ी नहीं, दफा 302 लगी नहीं। उनके मरने के इल्‍जाम चार सौ बीसी करके उनके उपर ही दे मारे, कुर्सी के गुल कर दिए सभी सितारे। कुर्सी की महक इनके मन में महकती है। महक बोले तो मेरा हक, चल छिछोरे दूर हट, मत कर लिपट-झिपट, यह कुर्सी है खुदगर्जी की, सिर्फ मेरी मर्जी की, नहीं ताकत किसी अर्जी की। नमो की ताकत ऐसी जैसे सिंह दहाड़ा। यह दहाड़ रहे हैं, वह पहाड़ पर भाग-भाग कर चढ़ाई कर रहे हैं। सोचते हैं कुर्सी पहाड़ा पढ़ रहे हैं। पहाड़ से ही गिरे हैं, इसलिए दबे-कुचले हैं, रिश्‍तों को बनाया दिया है नासूर इसलिए अब नहीं मिल रहा एक भी सुर, सब बने गए हैं असुर।

    मजबूत लोहा समझा था, न गुमां था कि यूं ही भरभराकर ताश के महल की तरह ढह जाएगा। बरतन की आवाज घर की रसोई में रोजाना आती है। आवाज से यह कयास मत लगायें कि सब चूर चूर चकनाचूर हो गए होंगे। आपने जो बताया मान लिया कि जहां पर बरतन गिरे, वह सीमेंट का फर्श पक्‍का था। अहसास था कि रिश्‍तों की ताकत बहुत मजबूत होती है पर देख रहे हैं सब कि अब उनसे रक्‍त रिस रहा है। रिश्‍ते यह रस्‍सी से कमजोर निकले। न सुलझी रस्‍सी की गांठ उलटे उलझ गई रिश्‍तों की गांठ न खुली, न सुलझी, हुई बरबादी और किया सत्‍यानाश। कह रहे हैं उनके अपने रिश्‍तों की रस्‍सी काट डाली गई।

    इतना गैरपना कि बैरपना भी शर्मिन्‍दा है, कोई लिहाज नहीं । बरतन की छोड़ें अब पेड़ की सोचें - पेड़ भी काटा जाता है तो उसकी लकडि़यों में चीरा लगाकर उसको उपयोगी बना लेते हैं।  उन लकडि़यों की पेड़ के उपर ही मचान बना सकते हैं और रच सकते हैं बेशकीमर्ती फर्नीचर। सब कुछ स्‍वाहा कर दिया। पेड़ के पेड़पने को कुर्सी मोह की दीपक चट कर गई।  तनिक गुंजायश नहीं रही, न आस बची, न भरोसा डटा और विश्‍वास तो टूट ही गया – चारों तरफ सत्‍यानासी के बीज पड़े हुए थे, मन की गांठ की देखी करामात। चुनाव बतलाएगा किस किसके पड़ी, कैसी पड़ी लात। दिख रहा है कि दोनों की होगी अब करारी मात।

    पत्‍थर से दिल लगाया और तन कुचला पाया। दोनों का न रहेगा अब नामलेवा, लगता है इसलिए ना ना कर बैठे। अपनी-अपनी शैया पर शूल जड़ लिए। कुर्सी से दिल लगाया और लोहे से चोट खाई। सोच रहे हैं कि कुर्सी ही लोहे की क्‍यों नहीं बनाई, वाणी आडवाणी की दूर पार्श्‍व में हो गई मौन है। कुर्सी की मलाई की चिकनाहट ने ऐसा रपटाया है।  मंसूबे बांध लिए हैं ऐसे-ऐसे कि लोहे की कुर्सी बनवाएंगे उसमें अपने नेता की वेल्डिंग करवाएंगे।  पर इसकी भनक मानसून को लग गई।  दरार को पाटने तेरह दिन पहले ही चली आई जबकि तेरह दिन के महात्‍मय से कौन परिचित नहीं है। लग रहा है कि जरूर किसी की तेरहवीं होकर रहेगी। मोदी का गुजरात से बाहर आना पूरे राजनीतिक परिदृश्‍य में रात का घेरा कस रहा है। पर उसका चहेता गोदी में बैठा हंस रहा है। जब रात है ऐसी मतवाली तो सुबह का आलम क्‍या होगा ?

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