नाजुक कानून चिंतन

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  • अविनाश वाचस्पति
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  • कान से सुनने का काम लिया जाता है, बात न सुननी हो तब भी कान ही काम आता है, चाहे उसे बात पर कान न देना ही कहा जाए। आप बोलने वाले के सामने कान में उँगली डाल कर खुजाने लगिए। बोलने वाला समझ जाएगा कि सामने वाला सुनना नहीं चाह रहा है क्‍योंकि सच्‍ची मुच्‍ची में तो कोई किसी को कान देने से रहा। न सुनने को दिखाने के लिए कान में उँगली डालकर खुजाना बेहतर प्रतीक है।  इससे बात बोलने वाला चुप्‍पी साध लेता है। चाहे खुद के कान की खुजली भी न मिट रही हो और उसके लिए डॉक्‍टर के पास जाकर दवाई ही खरीदनी पड़े। कान से बात सुनी जाए और असर भी न हो इसके लिए ज़रूरी है कि एकाग्रता को थोड़ा सा डिस्‍टर्ब किया जाये या कान में रुई खोंस ली जाए। बेध्‍यानी में भी बात कानों में होकर दिमाग तक नहीं पहुंचती है। जो दत्‍तचित्‍त नहीं हो पाते हैं वे पहले कानों में दीवार चिनवा लिया करते थे और बात कानों की दीवार से टकराकर लौट आया करती थी, इसमें आवाज गूंजती भी नहीं है। जो अपने कानों में दीवार नहीं चिनवा पाते थे, उनके एक कान से सुनकर बात दूसरे कान से निकल जाया करती थी और जाया हो जाती थी।
    आजकल बात कानों के भीतर घुसती है पर बिना सिर में कब्‍जा जमाए, दिमाग में न घुसकर सीधे नीचे ढरक जाती है। कानों में दीवार होना, मनुष्‍य की मुण्‍डी के चिकने घड़े के स्‍वरूप को जाहिर करती है। यह शिक्षा प्राप्ति के मार्ग में भी बाधक है। लेकिन इनसे बुरी बातें, निंदा, चुगलियां वगैरह सब फिल्‍टर नहीं होतीं और सीधे दिमाग पर घातक प्रभाव डालती हैं। । कान जहां पर अवस्थित होते हैं, वह जगह उपयुक्‍त है पर दोनों कानों का एक सीध में होना गलत है। कान एक ही हुआ करता तो अधिक अच्‍छा रहता। दो भी रखने थे तो एक सीध में न रखकर तिरछे बने होते, तब उनसे कुछ सीख मिलती। टेढ़े मेढ़े रास्‍तों के कारण उसमें सैर करने वाली जुंए भी रास्‍ता भूल जाया करतीं। जब जुंए कान में नहीं घूमतीं तो खुजली न होती और न उन्‍हें मिटाने के लिए कान को खुजाना पड़ता।
    अब नाक को ही लीजिए, नाक से ली गई सांसें पहले शरीर के भीतर घुस जाती हैं आप सोचते रहते हैं कि पेट में घुसी होंगी पर वे किडनी, अग्‍नाशय, आंत वगैरह में घुस छिपकर बवाल मचाती रहती हैं। शरीर के बाधारहित प्रचालन के लिए नाक के जरिए सांस का भीतर जाना जरूरी हैं, यह काम कान के बूते का नहीं है। नाक के दोनों छिद्र साथ-साथ हैं, वे सगे भाई की तरह मिलकर सांसों को खींचने में कोल्‍हू के बैल की तरह जुटे रहते हैं।  उनसे एक साथ सांस भीतर जाती है, फिर बाहर आती हैं। दोनों में गजब का भाईचारा है।  इसे ही एकाग्रता कहा गया है। योग करते समय इन्‍हें तंग करना बहुत जरूरी हो जाता है। अनुलोम विलोम में एक नाक से सांस खींचकर दूसरी नाक से छोड़ी जाती है। तो दूसरी योगक्रिया में सांस खींचकर बाहर या भीतर ही रोक ली जाती है। अब अगर सुरंग की तरह नाक हुआ करती तो जीने की प्रगति चालू रखने के लिए उन पर विशेष ध्‍यान देना जरूरी था। पर नाक की प्रणाली कान की तरह की होती तो लोग सांस लेना भूल जाया करते। इसी प्रकार कानों की संरचना होनी चाहिए थी जिससे सुनी गई बातें सीधे भीतर तक पहुंचकर,असर करतीं।
    मेरा सृष्टि नियंता से विनम्र और अग्रिम आग्रह है कि वह जब भी बदलाव करे तो अपनी इस खामी को जरूर दूर करने पर ध्‍यान दे। एकाग्रता का समावेश नाक में इस तरह रहता है कि उसके लिए दिमाग को कष्‍ट देने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसमें दिमाग को फायदा उठाने के लिए किसी साफ्टवेयर या हार्डवेयर में बदलाव की जरूरत भी नहीं होती है और फायदा भी पूरा सौ प्रतिशत मिलता है।
    नाक यूं तो बहुत ही संवेदनशील होती है और आप इसकी पुष्टि के लिए नाक शब्‍द के मध्‍य में जुकाम का पहला अक्षर जु जोड़कर देखिए। शब्‍द नाक से भी नाजुक बन जाएगा। नाक भी संवेदनशील और नाजुक तो है ही। इसके विपरीत जुर्रत शब्‍द का पहला अक्षर भी जुही है। पर जुर्रत जितनी बेशर्मी से, जुकाम का जुलबालब नहीं है। जुसे इसमें मुलायमियत समा जाती है। नाजुक होते हुए भी मक्‍खनबाजी नाक का कर्म नहीं है, वह कान का ही रहता है। मक्‍खनबाजी के लिए जीभ, भाषा का सक्रिय सहयोग करती है।
    कान के मध्‍य में नू बिठाने से कान सख्‍त कानून बन जाता है जबकि कान के उपर थप्‍पड़ जड़ने की नौबत से बचने के लिए कान शब्‍द के बीच में नूबिठाकर कायदा बनाया गया है। अब यह नूरानी चेहरे वाला नूतो होने से रहा। आपका क्‍या ख्‍याल है ?

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