मिशन, कमीशन या करप्‍शन : दैनिक जनवाणी स्‍तंभ 'तीखी नजर' 5 मार्च 2013 में प्रकाशित



किसका मिशन कमीशन नहीं है। जिसे नहीं मिलता है कमीशनवह सदा ही रहता है सन्‍न। जो हमें कमीशनखोर कह रहे हैं, वे सभी कमीशन के मिशन को अपनाए हुए हैं। कमीशन की वैतरणी में सब उतरते हैं। कमीशन के मिशन को नहीं अपना पायावह किसलिए सत्‍ता में आया। फिर कमीशन न होता तो सत्‍ता के धंधे में मात्र पचास हजार या एक लाख रुपये की पगार पाने के लिए कौन सत्‍ता में आता। इससे अधिक तो किसी सरकारी मलाई वाली नौकरी में पाता। जिस काम में कमीशन रहता है, उसे तन, मन और अपने धन से भी इसलिए किया जा सकता है क्‍योंकि उसमें पाने का आस्‍वाद रचा बसा होता है। इस धरा पर धरने के लिए कोई नहीं आया हैसब पाने आए हैं। इसलिए पाने मेंसब खुश हैं। पाने में पालने से हुई शुरूआत कुर्सी पाने तक पहुंचती है। पूत के पांव पालने से कुर्सी तक न पहुंच पाए तो पूत के सपूत होने में संदेह तारी हो जाता है। इसलिए पूत के जन्‍म लेने के बाद से ही कमीशन की गंगा बहाई जाती है। न कमीशन बुरा लगता है,न गंगा बुरी लगती है। दरअसल जो मिलता हैवह कभी बुरा नहीं होता।
जो दिया जाता है, कई बार वह भी भला ही होता है। भला जिससे लाभ मिल रहा होउसे बुरा कैसे कहा जा सकता है। कमीशन प्रत्‍येक प्रकार के मिशन का आदरभाव है। यह आदि सत्‍य हैइस सत्‍य को जिसने जान लियासमझ लीजिए वह राजनीति रूपी वैतरणी से पार, वरना तो डूबा मंझधार। उसका नहीं मिलेगा कोई तारणहार।  जिसने नहीं जानावह किसी तालाब को भी पार नहीं कर सकता। तालाब की तो छोडि़ए किसी पोखर अथवा गंदेनाले को पार करना भी उसके बस का नहीं है। अब जो किनारे पर हैउसको सदा ही दूर वाले दूसरे किनारे पर पहुंचकर हथियाने का मोह मन में बसता है। सभी पार्टियों और उसके रसूखदारों के मन में यह मोह व्‍याप्‍त हैआप किसी से भी कितनी ही दरियाफ्त कर लो। किनारा सिर्फ दरिया का ही नहीं होता है। हर सौदेबाजी में किनारा होता है। गंदा सिर्फ नाला ही नहीं होता, गंगा भी होती है। उसकी गंदगी में जो तर गया हैउसे तैरने में माहिर समझें। जो तैरने से परिचित होते हैं पर सत्‍ता में नहीं होते, वे मजबूरीवश इस ओर खूब जोर से चिल्‍लाते और शोर मचाते हैं। यह चिल्‍लाना और शोर मचाना उनका स्‍थायी भाव बन जाता है।
सत्‍ता के पक्षियों के सामने वाले विपक्षी न जाने किस श्रेणी के हैं, जो आपस में दुश्‍मन बने हुए हैं। पशु पक्षियों और जानवरों के प्रेम को इन्होंने बिसरा दिया हैं इसलिए ही तो बिसूर रहे हैं। जो काम मिल जुलकर किया जा सकता हैचाहे सौदेबाजी हो अथवा कमीशनबाजीसब मिलकर ही पार उतरते हैं। खुद तो पार उतरते ही हैंअपने परिवारजनों और नाते-रिश्‍तेदारोंबंधुमित्र और बांधवों को पार उतारने के ठेके भी लेते हैं। यह ठेका लेना कब से कमीशनखोरी हो गया। अब अगर अपने लोगों की ही मदद नहीं की तो क्‍या राजनीति में गंजे होने के लिए आए हैं। गंजे होना होता तो राजनीति से बाहर रहकर ही गंजे होतेउसमें अधिक मजा आता। राजनीति में गंजे होने की भी कीमत मिलती है। अभी तो  से कमीशन हैकल को भा से भार यानी कमीशन होगा। अचरज मत कीजिए शब्‍दों की वर्णमाला और उनके अर्थ कैसे भी संयोजित किए जा सकते हैं। कमीशन एक तरह का भार ही हैभालू नहीं हैजो उससे डरा जाए। भार और कमीशन एकदूसरे के समानअर्थ धर्मा हैं। जितना भारी होगाउतना ही लुभाएगाअपने पास बुलाएगा।
इसमें भला किसे संदेह होगा। कमीशन की कोई देह नहीं होती हैदस्‍तावेज होते हैंकई बारवे भी नहीं होते हैं क्‍योंकि कंप्‍यूटर की आभासी देह में रहते हैं इसलिए पकड़ लिए जाते हैं।जिन मामलों में देह नहीं होतीउसमें दिल भी नहीं होता है, वे सर्वथा सुरक्षित रहते हैं। कोई नहीं चाहता कि पकड़ा जाए। इतने बड़े भारी भरकम सौदों की तो छोडि़ए, एक छोटा बच्‍चा दुकान से पेंसिलकलमकापी या जीभ के स्‍वाद के लिए टाफी की चोरी करता है,वह भी कभी नहीं चाहता कि पकड़ा जाए। वो तो इन नामुराद सीसीटीवी कैमरोंतकनीक के उल्‍लुओं ने ऐसी तैसी करके रख दी हैवरना वह चोर ही क्‍या जो पकड़ा जाए।आजकल चोरी चोरी से चले जाते हैं पर हेराफेरी से नहीं जाते। राजनीति में प्रवेश करना हेराफेरी ही है। राजनीति में अब डकैती का जमाना है। किसी के माई के लाल में दम नहीं,जो पकड़ पाएगा या गरदन नापने की कोशिश करेगा। चुनाव की नाव में डूबने का भय न होता तो सब निर्भय होतकोई निर्भया न होती जमाना यूं ही सो जाता दास्‍तां कहते कहते। 

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