आतंक की चर्चा होते ही इंसानियत के दुश्मनों का जिक्र शुरू हो जाता है, उन्हें शून्य ही सही, अंक देने की प्रक्रिया गति पकड़ लेती है। जबकि आतंक सिर्फ इंसानियत के दुश्मन ही बरपाते हो, ऐसा भी नहीं है। इस बार मौसम खूब आतंकित कर रहा है मौसम ने पिछली बार भी बारिश के बाद आसमान से बेहिसाब पानी बहाकर खूब अठखेलियां की थीं। पर इस बार उसने अपनी सभी सीमाएं तोड़ दी हैं। एक नटखट बच्चे की तरह कहता है कि अब शरारत नहीं करूंगा और नजर हटते ही दोबारा से अपनी अठखेलियों का नजारा दिखला देता है। मौसम इस बार छोटा बच्चा हो गया है और कहता फिर रहा है ‘दिल तो बच्चा है जी’। पर क्या करें जब बच्चा ही अपनी हरकतों से रुलाना शुरू कर दे।
मौसम का जायजा लेने वाला विभाग अब इतना होशियार हो गया है कि उसे मौसम की शरारतों का सटीक भविष्यबोध हो चला है। वह बतला देता है कि दोबारा से ठंड आने वाली है। ठंड आए इसके लिए बरसात और कड़ाके की सर्दी जरूरी है और आप सोचते रह जाते हैं लेकिन बाहर ओले गिरने-पड़ने लगते हैं। बजट सताने को बेचैन है। बजट की असरदार चिंगारियां गाहे-बगाहे बरस भर चमकती रहती हैं। वह बात दीगर है कि लुभावनी अदा पब्लिक को नहीं, सौदेबाजों को भाती है। पैट्रोल की कीमतें बढ़ती हैं तो पंप मालिक खुश हो लेते हैं। सब्जियों के रेट चढ़ते हैं तो लोकल रेहड़ी वाले सब्जी विक्रेताओं की चांदी हो जाती है। प्याज, आलू, टमाटर और तो और लौकी, सीताफल वगैरह भी अपनी रेटबाजियां दिखलाने से बाज नहीं आते हैं। सब्जियां, सब्जियां ही रहती हैं पर खरीदार गृहणियों के हाथों से तोते उड़ जाते हैं। उन तोतों को चौकस बाज झपट लेते हैं। माना आप सरकस नहीं देख रहे हैं पर आपकी भूमिका सरकस के जोकर की मानिंद है।
मौसम का आतंक, बजट का आतंक, पैदल चलने में भी डर, घर से बाहर निकलने और घर में छिपे रहने में भी डर, इसे ही आतंक कहते हैं। आतंकवादियों को फांसी दे सकते हो, दे भी रहे हो, एक कसाब को निपटा दिया, दूसरे अफजल की गर्दन लुढ़का दी। पर पब्लिक जानना चाह रही है कि कीमतों की गर्दन किस दिन काटी जाएगी। बिजली, पानी की कीमतों से मंत्रियों ने अपने निजी रिश्ते जोड़ लिए हैं। उनमें गिरावट आएगी या नहीं, यह दूर की रिश्तेदारी पब्लिक को आतंकित कर रही है।
जब इतने सारे आतंक हों तो इनसे कैसे बचना मुमकिन है, बिजली के करंट से बचना चाहते हैं तो बिजली चली जाती है। पानी के रेट से डर लगता है तो नलकों में पानी की जगह हवा बहनी बंद हो जाती है। सब्जियां,दालें, इंधन, टैक्स सब अपनी-अपनी तेज धारदार तलवारें लेकर कूद पड़े हैं। क्या कहा तलवारें दिखलाई नहीं दे रही हैं, यही तो बजट और मौसम के आतंक का तिलिस्म है। दिखाई कुछ नहीं देता बल्कि यूं कहें कि दिखलाई देना बंद हो जाता है और गरदनें कटनी शुरू हो जाती हैं। इस बंद से प्रेरित होकर श्रमिक के हितों की पैरवी करने वाले नगर, शहर, राज्य और देश को बंद कर देते हैं। ताले तो नहीं लगाते, पर जड़ देते हैं, लड़ लेते हैं। भारत बंद की जड़ता, बजट की धार, मौसम की मार, फूटते बम, सबका दम निकालने में जुट गए हैं. नगर का नाम चाहे दिलखुश हो, पर अब इन सबसे दिल दुखता है।
खा ली मूली काल ने, सुधरा पाचन-तंत्र ।
जवाब देंहटाएंजगह जगह यमदूत कुल, मारें मारक मन्त्र ।
मारें मारक मन्त्र, महामारी मंहगाई ।
नित-प्रति एक्सीडेंट, मार मौसम की खाई ।
इत नक्सल के वार, उधर आतंक वसूली ।
जगह जगह विस्फोट, मारता खाली-मूली ॥