कोई यहाँ , ठीक मेरे कमरे के नीचे, बहुत विलंबित धुन में गिटार बजा रहा है। यह कोई बहुत उदास, ऊबी हुई पूर्वी धुन है। दो घंटे से ज्यादा हो गए होंगे। रात से बारिश शुरू है। शायद वह कहीं जा नहीं सका होगा।
मैंने भी सोचा था, आज पास के जंगल में जाकर किसी बेंच पर बैठ कर कुछ पढ़ूँगा। वही दो कविताओं की किताबें , जिन्हें यहाँ साथ लाया था। शायद कुछ नोट्स भी तैयार हो सकें। इसके बाद शहर कि ओर चल पड़ूँगा।
आज का दिन पूरा खाली है। साफ खाली निश्चिंत आसमान जैसा।
लेकिन इसके लिए धूप ज़रूरी थी।
यहाँ ठंड बहुत होती है। सर्दियों में माइनस तीस डिग्री से अधिक। बर्फ भी कुछ अधिक बर्फ हो जाते हैं। सफ़ेद पर्दे पारदर्शी हैं। बारिश में भीगते पेड़ दिखाई दे रहे हैं।
आज सारे खरगोश कहीं छुप गए हैं।
मैंने हीटर चला दिया है और उस उदास धुन को, अपने कमरे की दीवारों को चुपचाप देखते हुए, देर से सुन रहा हूँ। स्मृतियों को आने से भरसक रोकते हुए। वे आती हैं तो इस समय का सारा संगीत गायब हो जाता है। मैं भीतर भीतर से कहीं बेचैन हूँ। जिस जगह और जिस भाषा में मुझे लौटना होगा, वह मुझसे छीनी जा चुकी है। बहुत पहले से ।
कोई मेरी स्मृतियाँ छीन कर थोड़ी-सी राहत मुझे दे सकता है क्या ?
पुरानी स्मृतियाँ किसी तेजाब में जल रही हैं।
उनके वृत्तान्तों के स्मरण में होठ सूख जाते हैं, गला पानी की बूंदें मांगता है।
आँखों में शायद कोई रेत आ गया है। अभी साफ ठंडे पानी के छींटे मारने पड़ेंगे।
इंतज़ार कर रहा हूँ, बस कुछ दिन और ... फिर एक और देश में अपनी संतानों से मिलूंगा.....!
वह भी मेरा देश है, जहां मेरी संततियाँ हैं। वहाँ भी तो मेरी यादें हैं।
उनकी स्मृतियों में मैं अभी भी हँसता हुआ और सब कुछ छिपाता हुआ कहीं बैठा होऊंगा । वह कई साल पहले का बैठना होगा। कई साल पहले की हंसी के साथ।
अपनी पौत्री अनुक को पहली बार देखूंगा, उसी तरह जैसे तीन साल पहले मारियूस को देखा था। उसने मुझे पहचान कैसे लिया था, कि मैं उसका बाबा हूँ? स्काइप पर जब वह आता है तो सिर्फ ज़ोर ज़ोर से हंसने लगता है। इतनी खुशी उसके नन्हें-से शरीर में भर जाती है कि वह सारे कमरे में उछलता हुआ दौड़ता है।
मैं भी दौड़ना चाहता हूँ, उसे देखते हुए .... लेकिन ..... !
'चन्दा मामा ... आरे आवा पारे आवा ... छोटी-सी कटोरिया मां दूध भात लेके आवा .....' जब मैं छोटा था, तो मां गाती थी । आँगन में गोदी लेकर घुमाते हुए। गोदी को तब हम कनहियां बोलते थे। क्या ये शब्द कहीं बचा होगा ? किसी अखबार या टीवी में....?
या मेरे गाँव में ही, जो बचपन से ही छूटता रहा... और मैं किसी ज़िद की तरह वहाँ लौटने की कोशिश करता रहा।
वहाँ अब पहले का कुछ बाकी नहीं है। यह शब्द भी नहीं होगा...!
बारिश और तेज़ हो गयी है....!
गिटार अभी-अभी बंद हुआ है। शायद उसकी दोस्त आ गयी है।
वे काफी बना रहे होंगे।
मैं इंतज़ार कर रहा हूँ, इस ठंड में मेरे दरवाजे से काफी का एक गरम कप आयेगा। उन दोनों कि हंसी के साथ और फिर गिटार शुरू होगा।लेकिन मैं जानता हूँ, इस बार उसकी धुन में वह उदासी नहीं होगी......!अब देखिये रजनीकांत जी को....
गहगहाकर फूला है गुलमोहर
भभक्क लाल
बन्द पड़ी फैक्ट्री के भीतर
टूटकर लटकती एसबेस्टस शीट्स की आड़ में
उम्मीद होती ही इतनी बेहया है !
उदय प्रकाश,रजनीकान्त और हम !
Posted on by संतोष त्रिवेदी in
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उदय प्रकाश,
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भावपूर्ण सुन्दर कृति,आभार!
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