दिवाली थी, दिवाला है। दिवाली एक है, नेक है। दिवाला अनेक है, नेक नहीं है। दिवाली एक सीधी कन्या दिवाला के चक्कर में ऐसी फंसी कि वाला का वर्चस्व बढ़ गया। दिवाला सदैव सबको अपनी मुट्ठी में बंद कर ठगने में सफल। दिवाली सबकी पसंदीदा, सबको मोहती। दिवाला उसी का फायदा उठाता, जरा न हिचकिचाता। उसके फायदेस्थल एक नहीं अनेक, दीवाली इन सबसे बढ़कर। जिसके जाने के बाद से ही इंतजार शुरू हो जाता। सबके मन खुशियों से लबालब। बच्चे, बूढ़े, युवा तुर्क, युवतियां कुर्तीधारी सभी प्रफुल्लित। किसी भी मौके पर खरीदारी करने निकलते, खुशियां हासिल होतीं परंतु भीतर ही भीतर दिवाला अपनी जड़ें जमाता। दिवाला की जड़ों की गिरफ्त से एक नहीं बच सका। दिवाला आतंक का पर्याय, अंधेरे का चचेरा भाई। दिवाली साल में एक बार आती, अपने साथ चार सखियों को लाती और पंच पर्व की पहचान पाती। दिवाला इनमें कहीं नहीं, परंतु दिखाई दिए ही बिना सबका नाश करता। सदा नशे में रहकर, घुर नशेड़ी के मानिंद साल भर समूचे संसार में घूमता, लूटता और ठगता, सगे तक को न बख्शता। दिवाली हो, न हो। चाहे कैसा मौसम हो। दीप जलाए जाएं, न जलाए जाएं। दिवाली की एक सखी हुई जिसे दिवाला अपनी कजिन बतलाता, जबकि दिवाला का चक्कर तो बहुतेरियों से है। कुछेक के नाम तो इस कथा पाठन के बाद आप स्वयं ही सुझाने वाले हैं। महंगाई के साथ दिवाला के अवैध संबंध जगजाहिर रहे। दोनों ने मिलकर फर्जीवाड़े किए, कोई जगह न छोड़ी।
सर्वशक्तिमान दिवाला ने महाशक्तिवान धुरंधर देशों के भी छक्के छुड़ाए और उन्हें अपने चंगुल में जकड़ा। दिवाला का एक शौक सूरत देखकर झापड़ रसीद करने का था, उसने इसकी खूब नकद रसीदें जारी कीं, किसी को उधार नहीं, किसी में सुधार नहीं। छुटकारे का कोई तरीका इसलिए नहीं क्योंकि यह अनचाहे सभी जगह मौजूद मिलता। इसका कोई विरोध भी नहीं करता। बाद में मालूम हुआ कि दिवाले का अपना रौद्र रूप-स्वरूप दिवाली, महंगाई और भ्रष्टाचार के जरिए सामने आता था इसलिए इसे कोई आज तक पहचान भी नहीं पाया। दिवाले से पीडि़त मैं भी हूं। अचंभे की बात है कि सब लोन लेने के लिए लालायित, एडवांस लेकर खर्च करने को तैयार – खुशियों की मारामारी में दिवाले की खुली लूट परंतु उसकी चाल कोई नहीं समझ पाया। जिंदगी भर काम में जुटे रहने पर भी नाकाम और दिवाले ने कभी न किया काम, फिर भी सबसे सफल। वही इस जहां का मीठा फल। मीठा नहीं, सबके लिए तीखा, खट्टा, कसैला –लगता है चटपटा, परंतु सबको धूल चटाता आता, उस धूल में किरकिरी भी मिलाता। फिर भी सब उसी धूल और किरकिरी में आनंद ले रहे हैं। चैन पाने के चक्कर में भीतर तक बेचैन।
महंगाई से निपटने के अभी तक किसी कारगर उपाय न मिलने के मूल में महंगाई के साथ दिवाला के अवैध ताल्लुकातों का होना है। महंगाई के नाजायज संबंध नेताओं से भी पाए गए हैं। महंगाई ऐसी कॉल गर्ल की भूमिका में है, जो बिना काल के ही लुभा रही है, मिस काल भी नहीं देती और खुद सबके पास पहुंच जाती है और सबकी दुर्गत बनाती है।
भ्रष्टाचार भी दिवाला का आशिक है, समलैंगिकता की कयास के घेरे में दिवाला का कुनबा रोजाना बढ़ रहा है। इसने भानुमति के कुनबे को भी मात दी है जिसमें कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा शामिल था परंतु दिवाला के कुनबे में शामिल होने से कोई नहीं छूटा है। सबकी कमजोरी की संजीवनी दिवाला स्वयं को बतलाता है।
दिवाली के मनमोहक जायकों में सभी इस बेतरह उलझे हैं कि इससे बचने का ख्याल भी नहीं आता। दिवाला ने सबके मन में खाद होने के भ्रम के साथ, खुद को एंटीवायरस साबित किया है। दिवाली मनाना और दिवाला निकल जाना के मूल में यही है। हम दिवाली को मनाने में मशगूल रहते हैं और दिवाला हौले से सरक जाता है। सरक कर भी नजर रखता है, मानो सीसीटीवी हो गया है। प्रत्येक के साथ इसके रिश्ते अन्योन्याश्रित हैं। इस मामले में दिवाला किसी से कोई भेदभाव नहीं करता और जो गजब का संतुलन बनाए हुए है, वो देखते कम और महसूसते ज्यादा बनता है। दिवाला निकालता तो जनाजा है पर अनाज का भरा हुआ जहाज नजर आता है। ऐसा भी लगता है कि धूमधाम के साथ बारात चली आ रही है।
मुन्ना-मुन्नी, लल्ला-लल्ली के माफिक दिवाला-दिवाली का भाई-बहन का संबंध सबको खोखला कर रहा है। महंगाई और भ्रष्टाचार कजिन बनकर दिवाले की मदद कर रहे हैं। दिवाली देवी और दिवाला शैतान जबकि चारों ने मिलकर जनता-जनार्दन की अर्थी निकाली है। दिवाली न हो तो दिवाला न निकले। लगता है इनकी वजह से ही हम दिवालिया होने से बचे हुए हैं परतु असलियत मैं आपको बतला चुका हूं क्या अब भी अगले बरस दिवाली को मनाना चाहेंगे, महंगाई को भगाना और भ्रष्टाचार को मिटाने की इच्छा रखते हैं या चाहते हैं कि दिवाले का सर फोड़ दिया जाए ? बतलाइयेगा जरूर।
दिवाला और दिवाली का अच्छा विश्लेषण किया है आपने...
जवाब देंहटाएंदिवाली एक है, नेक है। दिवाला अनेक है, नेक नहीं है।
बिलकुल सही कहा है...
यही दिवाला है घर घर
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