भोजपुरी सिनेमा में नयी पहल

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  • फ़ज़ल इमाम मल्लिक

    नींद देर से खुली। घड़ी देखी दिन के क़रीब पौने बारह बजे थे। यानी कमरे पर आने के बाद क़रीब पांच घंटे तक सो चुका था। हालांकि एक अलसायापन ज़रूर पसरा था शरीर के पोर-पोर में, लेकिन दफ्Þतर जाना था इसलिए तैयार होने के लिए बिस्तर छोड़ा। सफ़र के दौरान रात भर ट्रेन में था। दिवाली की छुट्टियों के दौरान देहरादून में था। मनु और सुंबुल शिमला से आई हुई थीं। चार-पांच दिन किस तरह बीत गए पता ही नहीं चला था। देहरादून से ट्रेन क़रीब साढ़े ग्यारह बजे छूटती है और हम जैसे रात में जागने वाले लोगों को जब नींद आने लगती है तब गाड़ी नई दिल्ली पहुंच जाती है। देहरादून जाते वक्Þत भी ऐसा ही कुछ होता है। अच्छी बात यह है कि यह ट्रेन शायद ही कभी लेट होती है। यों तो एसी डब्बे में अमूमन लोग एक-दूसरे से कम ही बोलते-बतियाते हैं, लेकिन इस ट्रेन में तो बातचीत की गुंजाइश भी नहीं के बराबर होती है। बातचीत तो जाने दें कभी-कभी तो यह भी पता नहीं चलता कि अपना सहयात्री कौन है। ट्रेन में पांव धरते ही पता चलता है कि या तो यात्री बिस्तर लगा कर सो गए हैं या फिर सोने की तैयारी में जुटे हैं। ऐसे में कहां किसको, किससे बात करने की फुर्सत होती है भला। सुबह-सवेरे क़रीब सवा पांच बजे ट्रेन ने दिल्ली पहुंचा दिया था। कमरे पर पहुंचा तो छह बजे थे। आंखों में नींद उतरी हुई तो थी ही इसलिए बस मुंह-हाथ धोया और सो गया।
    बिस्तर छोड़ने से पहले मोबाइल पर नज़र डाली। कई मिस्ड कॉल थीं। उनमें ही किरणकांत भाई का नंबर भी था। किरणकांत भाई यानी अपने किरणकांत वर्मा। रंगकर्म से सरोकार रखने वाले किरणकांत वर्मा का ताल्लुक़ पटना से है। इन दिनों पटना-मुंबई एक किए हुए हैं। इसे यों भी कह सकते हैं कि मुंबई उनका नया ठिकाना है। कई साल पहले वे मुंबई गए थे लेकिन कइयों की तरह वे मुंबई के ही हो कर नहीं रह गए। बल्कि पटना उनके सरोकारों में आज भी उसी तरह बसा है जैसे पहले था। मुंबई में उत्तर भारतीय जैसे नारों के बीच ही किरणकांत वर्मा ने अपनी जमीन तलाशी और फिर मज़बूती से अपने क़दम जमाए। ऐसा करते हुए उन्होंने न तो चोला बदला और न बोली। ठेठ और ख़ालिस बिहारी अंदाज में मुंबई में भी अपनी पहचान बनाई। मुंबई के ‘वीर सैनिकों’ के बीच मराठी दोस्तों और चाहने वालों के साथ मिल कर उन्होंने फिल्म जगत में पांव धरा। लेकिन किरणकांत भाई को अपनी सीमाओं का पता था इसलिए उन्होंने हिंदी की बजाय भोजपुरी फिल्में बनाने की ठानी। या इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने भोजपुरी का चुनाव जानबूझ कर किया। भोजपुरी में जिस तरह की फिल्में बन रही थीं उससे कुछ अलग करने की उन्होंने ठान रखी थी। हालांकि ऐसा करना किसी आग के दरिया से गुज़रने जैसा ही है लेकिन बरसों तक पटना में जिस तरह ‘दश्त की सैयाही’ में उन्होंने गुज़ारे वहां इस तरह के आग के दरिया भला उन्हें कब और कैसे रोक पाते। हालांकि रंगमंच उनका पहला शौक़ है और वे अपनी बेहतरीन रंगमंचीय प्रस्तुतियों से पटना में बतौर निर्देशक अपनी अलग पहचान बनाई थी। लेकिन फिल्मों के निर्माण से वे अनजान नहीं थी। रिचर्ड एटनबरो जिन दिनों ‘गांधी’ फिल्म बना रहे थे तो उन्हें उनके साथ काम करने का मौका मिला था। पटना और उसके आसपास ‘गांधी’ की शूटिंग हुई थी और किरणकांत वर्मा उनके साथ काम करते हुए उनसे उन अनुभवों को भी सीखते रहे जो उन्हें बाद में काम आए। फिर शत्रुघ्न सिन्हा की फिल्म ‘कालका’ के साथ भी उनका जुड़ाव रहा। इस लिहाज़ से फिÞल्म का मैदान उनके लिए बहुत अनजान नहीं था। लेकिन मुंबई और भोजपुरी फिल्मों की दुनिया उनके लिए थोड़ी अनचीन्ही थी। लेकिन कुछ अच्छा और बेहतर करने का जनून नेकिरणकांत वर्मा के काम आया और वे इस मैदान में लंगोटी बांध कर कूद पड़े। ज़ाहिर है कि उनकी लगन और कुछ संबंध काम आए और किरणकांत भाई मुंबई में रम गए। लेकिन उतना नहीं कि पटना छूट जाए। पटना उनकी नज़र से ज़रूर दूर रहा लेकिन दिल में हमेशा बसा रहा। मुंबई में बिना संघर्ष के कुछ मिलता नहीं है। थोड़ा बहुत संघर्ष उन्हें भी करना पड़ा। लेकिन एक बार गाड़ी पटरी पर आई तो सब कुछ ठीक होता चला गया।
    किरणकांत भाई ने ‘बबुआ हमार’ और ‘कजरी’ जैसी बेहतरीन फ़िल्में दी हैं। सिनेमाई भाषा में कहें तो बाक्स आफ़िस पर ये दोनों फ़िल्में हिट रहीं थीं। हालांकि उन्होंने ‘हक क लड़ाई’ फिल्म का निर्देशन भी किया लेकिन यह फिल्म सफल नहीं रही थी। इस फिल्म की असफलता की कहानी बयान करते हुए किरणकांत वर्मा के चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखाई देता है। बल्कि वे ठहाका लगाते हैं। उनकी हंसी और ठहाका ही उनकी बड़ी पूंजी हमेशा से रही है। और जहां तक मेरा मानना है इसी पूंजी ने उन्हें हमेशा ही संबल और ऊर्जा दिया है।
    लेकिन किरणकांत वर्मा की पहचान फिल्में नहीं हैं। उनकी असल पूंजी या ताक़त तो उनका थिएटर ही है। अपनी निर्देशकीय क्षमता और बेहतरीन अभिनय के बूते उन्होंने पटना रंगमंच को न सिर्फ दिशा दी बल्कि उसे एक मुक़ाम तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी। क़रीब पच्चीस-तीस साल पहले पटना में थिएटर देश भर में अपनी अलग पहचान के साथ स्थापित था। बेहतरीन रंग प्रस्तुतियों को लेकर एक-दूसरे से बेहतर करने कि होड़ रहती थी। किसी को उठाने और किसी को गिराने का खेल भी ख़ूब चलता था। लेकिन अच्छा से अच्छा नाटक करना रंग निर्देशकों की प्राथमिकता में था। हालांकि वह ऐसा दौर था जहां अख़बारों के पन्ने नाटक-थिएटर के लिए नहीं होते थे। संपर्कों और संबंधों की बुनियाद पर कहीं कोई छोटी सी ख़बर छप गई वही बहुत होती थी और उसी छपे हुए को किसी गीता-क़ुरान की तरह सीने से चिपका कर रंगकर्मी घूमा करता था और ज़रूरत पड़ने पर लोगों को दिखा कर ख़ुश होता था। तब रंगमंच को लेकर लोगों में उत्साह तो था लेकिन आम लोगों के लिए यह ‘नौटंकी’ से ज़्यादा कुछ नहीं था और नाटक-नौटंकी में काम करने वाले अपने लोगों में भी ‘नचनिया’ ही कहलाते थे। लेकिन इन सबके बावजूद पटना में नाटक हो रहे थे और ख़ूब हो रहे थे। किरणकांत भाई भी उनमें से ही एक थे। अपनी रंग संस्था ‘अंकुर’ के ज़रिए पटना रंगमंच को लगातार सक्रिय रखे हुए थे। महीनों तक रिहर्सल करने के बाद जब उन्हें पूरी तसल्ली हो जाती कि अब सब कुछ ठीक है और नाटक के पात्र अपनी-अपनी भूमिका निभा पाएंगे तब ही वे अपनी प्रस्तुति के साथ लोगों के सामने आते। किरणकांत भाई के साथ अक्सर बैठकी होती। रिहर्सल के दौरान भी साथ होता और कभी-कभी कविताई को लेकर भी चर्चा होती। वे कविताएं भी लिखते हैं लेकिन उनकी पहचान एक रंगकर्मी के तौर पर ही होती थी। उन्होंने रंगमंच पर कुछ अद्भुत प्रयोग किए। ‘गिद्ध’ ‘खेला पोलमपुर’ ‘बड़ी बुआजी’ ‘दुलारी बाई’ ‘गुलेल’ ‘कर्फ्यू’ उनकी बेहतरीन रंग प्रस्तुतियां थीं जिनमें उन्होंने कई स्तर पर प्रयोग किए थे। प्रकाश, संगीत और मंच सज्जा के साथ-साथ दूसरे मंचीय प्रयोग उन्हें बेहतरीन रंग निर्देशकों की कतार में ला खड़ा करता है। हालांकि दूसरों की तरह उन्होंने कभी इस बात को लेकर न तो बड़ी-बड़ी बातें कीं और न ही इसका ढिंढोरा पीटा। बड़बोलपन उनमें न तब था और न ही अब है। इसलिए किरणकांत वर्मा दूसरों से अलग हैं।
    बीच में क़रीब दस-पंद्रह साल तक उनसे संपर्क न के बराबर रहा। वे मुंबई में फिल्मों के ज़रिए कुछ बेहतर करने की कोशिश में जुटे थे और मैं पत्रकारिता में। न उनके पास मेरा पता-ठिकाना था और न ही मेरे पास उनका। लेकिन वह तो भला हो शंकर आजाद का, जो अक्सर इसी तरह पुराने मित्रों को मिलाने का बहाना बन जाते हैं। शंकर आज़ाद भी अपना घर जला कर दूसरों को रोशनी देने का काम ही ज्Þयादा करते हैं इसलिए उनसे ख़ूब निभती है। दुख और सुख दोनों में ही शंकर बेतरह साथ देते हैं। शायद इसकी वजह नाम का भी प्रभाव कहा जा सकता है। राजनीति से उनका सरोकार है। कइयों को विधायक-सांसद और मंत्री बनाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन जब ख़ुद कुछ बनने का मौक़ा आया तो विधान परषिद का मिला टिकट किसी दूसरे को थमा दिया। शंकर आज़ाद के लिए ही किसी की पंक्तियां ज़ेहन में गूंजती हैं ‘अंधेरे मांगने आए थे रोशनी की भीख, हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते’। सालों पहले शंकर विधान परिषद पहुंच गए होते तो फिर वे अब तक किसी बड़े पद पर होते लेकिन शंकर तो शंकर ठहरे और आज़ाद भी। उनके किसी साथी ने कहा कि चुनाव वे लड़ना चाहते हैं तो बस उन्होंने बिना कुछ सोचे-विचारे उन्हें टिकट थमा दिया। तो शंकर आज़ाद की वजह से ही अचानक किरणकांत वर्मा से मुलाक़ात हुई और बिसरा गईं पुरानी यादें पूरी शिद्दत से दस्तक दे कर सामने आर्इं और पटना का वह रंगमंच नज़रों के सामने गूम गया।
    किरणकांत वर्मा को फ़ोन करने की सोच ही रहा था कि फिर उनका फ़ोन आ गया। छूटते ही कहा- ‘काफ़ी देर से फ़ोन कर रहा था, कहां थे’। मैंने उन्हें वजह बताई। उन्होंने कहा कि ‘मैं अभी-अभी दिल्ली पहुंचा हूं। भोजपुरी में मैंने ‘देवदास’ बनाई है शाम में उसका प्रदर्शन फिल्म डिवीजन के प्रेक्षागृह में है। तुम्हें आना है।’
    ‘क्या कहा भोजपुरी में देवदास’ मैं थोड़ा अविश्वास की स्थिति में था। दूसरी तरफ़ से उन्होंने आश्वस्त किया कि मैंने ठीक ही सुना है। उन्होंने भोजपुरी में देवदास को ‘हमार देवदास’ नाम से बनाई है। यों तो ‘देवदास’ को लेकर समय-समय पर कई भाषाओं में फिल्म बनाई जा चुकी है। हिंदी में ही अब तक तीन बार इस पर फ़्ल्मि बन चुकी हैं। लेकिन भोजपुरी में तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए भी नहीं क्योंकि भोजपुरी फ़िल्मों का जो बाज़ार है उसमें ‘देवदास’ की कहानी कहीं फ़िट नहीं बैठती है। लेकिन किरणकांत के जनून को मैं जानता था और पता था कि वे एक बार जो ठान लेते हैं उसे पूरा कर ही दम लेते हैं। इसलिए उनकी यह फ़िल्म देखने को लेकर एक अलग तरह का उत्साह था।
    इसी उत्साह के साथ तय समय से थोड़ी देर में हाल पर पहुंचा। किरणकांत वर्मा बाहर ही मिल गए। वे लहक कर मिले और कहा पहले अंदर जाओ फ़िल्म शुरू हो चुकी है। फ़िल्म ख़त्म हुई तो इस बात का सकून था कि किरणकांत वर्मा ने भोजपुरी सिनेमा में एक नई और बड़ी लकीर खींचने की हिम्मत जुटाई है। हिंदी या दूसरी भाषाओं में बनी फ़िल्मों से इसकी तुलना नहीं की जा सकती, की जानी भी नहीं चाहिए। सच यह भी है कि ‘हमार देवदास’ कई ऐतबार से बहुत अच्छी फ़िल्म नहीं है। ख़ास कर तकनीकी पक्ष और कैमरे का काम बहुत ही साधारण है लेकिन यह फ़िल्म इस लिहाज़ से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भोजपुरी में जिस तरह की फ़िल्में बन रही हैं और जिस तरह की अशलीलता परोसी जा रही है, ‘हमार देवदास’ इससे अलग है। यह बात इस फ़िल्म को महत्त्वपूर्ण बनाता है और किरणकांत वर्मा को भी। आज कितने लोग हैं जो धारा के ख़िलाफ़ चलते हैं और वह भी बिना किसी झिझक के। किरणकांत वर्मा ने ‘हमार देवदास’ बना कर धारा ही नहीं बाज़ार के ख़िलाफ़ भी चलने की कोशिश की है। फ़िल्म में यों तो भोजपुरी सिनेमा के सुपर स्टार रवि किशन हैं लेकिन पटना के रंगमंच के कलाकारों को देखना अच्छा लगता है। सुमन कुमार, आर. नरेंद्र और हरिशरण पटना रंगमंच का एक जाना-पहचाना नाम रहा है। आज भी वे सक्रिय हें यह देख कर अच्छा लगा।
    इस दौर में जब थिएटर से युवाओं का मोह लगभग ख़त्म-सा हो गया है, सुमन कुमार या हरिशरण अगर अभिनय में सक्रिय हैं तो यह बड़ी बात है। ख़ुद किरणकांत वर्मा थिएटर को लेकर अब बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं है। उनका कहना है कि अब सब कुछ इंस्टैंट हो चुका है। नई पीढ़ी ‘दो मिनट में नूडूल्स’ खाने कि आदी हो चुकी है। कोई मेहनत करना नहीं चाहता। पहले हम दो-तीन महीने तक रिहर्सल करते थे। आज के युवाओं में इतना धैर्य नहीं है। वे आज आते हैं और अगले दिन स्टार बनने का सपना पिरोए थिएटर को बाय-बाय कर फ़िल्मों का रुख़ करते हैं। ऐसे में मेरे जैसे लोगों के लिए थिएटर करना मुमकिन नहीं है। मैं तुरंत-फुरंत के थिएटर पर यक़ीन नहीं करता। ‘हमार देवदास’ के बाद किरणकांत वर्मा अब ‘मुगÞले-आज़म’ को भोजपुरी में बनाने पर विचार कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि किरणकांत वर्मा अपने इस सपने को भी परदे पर उतार कर भोजपुरी सिनेमा में एक और बड़ी लकीर खींचेंगे। तब तक ‘हमार देवदास’ में उस भोजपुरी समाज को देखने-समझने की कोशिश करें जिसे कला और संस्कृति की समृद्ध विरासत मिली है, जिस विरासत को भोजपुरी सिनेमा ने बेतरह नुकसान पहुँचाया है.

    2 टिप्‍पणियां:

    1. छाई चर्चामंच पर, प्रस्तुति यह उत्कृष्ट |
      सोमवार को बाचिये, पलटे आकर पृष्ट ||

      charchamanch.blogspot.com

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    2. bahit badhiya . aapki laghukatha ' Hans 'me padhi, badhai !

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    आपके आने के लिए धन्यवाद
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