रावण गा रहा है : सीधे प्‍वाइंट पर आओ न

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  • अविनाश वाचस्पति
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  • मैंने भी नहीं सोचा था कि रावण गा सकता है लेकिन आज उसे गाते देखकर मन को लगा कि रावण को होना चाहिए। वो गा रहा था बल्कि जानना चाह रहा था, जिस गाने के बोल थे ' सीधे प्‍वाइंट पर आओ न'। मुझसे जो शिकायतें और शिकवे हैं उन्‍हें सीधे मुझे डिस्‍कस करो, परंतु मेरी क्‍या मजाल, मैं कोई राम नहीं था इसलिए आया और जो महसूस किया उसे अपने ब्‍लॉग पर लिख दिया। अब आप चाहें तो सीधे दशानन से पंगा ले सकते हैं। 

    क्‍या मानें तुझे हम रावण , यह सवाल सुरसा की तरह मुंह बाये खड़ा है, पर उत्‍तर नहीं मिल रहा है जबकि दशहरा लो आया ही समझो। पिछले बरस गया और इस बरस फिर आ गया। अपने समूचे रावणत्‍व के साथ। पर आप रावणत्‍व किसे मानेंगे। यही माना जाता है कि रावण बुराई का प्रतीक है। बुराई का प्रतीक अर्थात् बुराई ही बुराई। भ्रष्‍टाचार, बेईमानी, चोरी, कपट, छल - अगर आप दशहरे पर रावण को इन्‍हीं प्रतीकों में खोजेंगे तो वो आपको खूब मिलेगा बार बार मिलेगा बल्कि हर बार मिलेगा।

    भ्रष्‍टाचार में सिर्फ भारत ही ऊंचे पायदान पर नहीं है जहां पर प्रतिवर्ष रावण के पुतले का दहन किया जाता है अपितु भारत से पहले और भी बहुत से देश हैं जिन्‍होंने भ्रष्‍टाचार की कला में बाजी मार रखी है और वो भी बिना रावण के। हमारे यहां तो रावण भी मौजूद है और जब रावण मौजूद है तो इसमें भला किसको संशय होगा कि रावणत्‍व भी अपनी समूची हैवानियत के साथ मिलता है। रावण को बुराई का प्रतीक या पुलिंदा मानते ही उसकी वृद्धि दिन चौगुनी रात चौंसठगुनी की रफ्तार से बढ़ने लगती है जैसे बुराईयां बढ़ती हैं और जैसे बढ़ती है महंगाई। जिस तरह बुरी ताकतों का समाज में हर तरफ बोलबाला है उसी तरह रावणत्‍व भी तेजी से फल फूल रहा है बल्कि यूं मानना चाहिए कि फूल फल रहा है आखिर पहले फूल ही तो बाद में फल बनेगा वैसे उलट भी चलेगा, फल है तो फूलेगा ही, फूल कर फुल कुप्‍पा भी होगा। यही कुप्‍पा होना या फूलना ही विस्‍तार पाना है।

    आज रावण देशी आतिशबाजी से जल कर प्रसन्‍न नहीं होता न दर्शकों को जो मन से उसकी करतूतों के अनुनायी होते हैं उनको दिली खुशी मिलती है। सब चाहते हैं कि रावण के पुतलों के दहन में चीनी आतिशबाजी का भरपूर प्रयोग हो जो नाम के अनुरूप मीठी तो नहीं होगी परन्‍तु जब जलेगी, फूटेगी, चमकेगी तो मन में एक मिठाईयत को तुष्टि मिलेगी और यही तुष्टि पाना ही बुराईयत की जय जयकार है। स्‍वदेशी में नहीं विदेशी चीजों में इसीलिए जायका आता है और बढ़ चढ़कर आता है।

    अगर रावणत्‍व को देवत्‍व मान लिया जाये तो उसके मिटने में पल भी न लगते। जिस तरह ईमानदारी का अस्तित्‍व मिटता जा रहा है, जिसे मिटाने में सभी सहभागी हैं, क्‍योंकि जहां पर लाभ मिले वहीं पर दिल लगता है जबकि दिल जलना चाहिये पर जलन किसे महसूस होती है। माल या नोट जैसे भी मिलें, सारी अच्‍छाईयों को हटाकर या भुलाकर ही मिलें, पर मिलें अवश्‍य तो मन में महसूसी जाने वाली ठंडक अपने परवान पर होती है। प्रतिवर्ष बिना पुतला जलाये भी रावण का अस्तित्‍व मिट जाता यदि उसे ईमानदारी माना जाता, जो आजकल तलाशने पर भी नहीं मिलती है, दिलों में घर करने के बजाय बेघर हो चुकी है और सपनों में भी दिखाई देनी दुर्लभ हो गई है और यदि कहीं छटांक भर दिखाई भी देती है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं इसके अस्तित्‍व पर ही सवाल न उठने लगें वरना तो कब की लोप हो गई होती। थोड़ी बहुत नजर आती है तो वो भी इसलिए कि ईमानदारी होगी तभी तो बेईमानी या बुराईयों का तुलनात्‍मक बढ़ता ग्राफ समझ में आयेगा।

    रावण को मान तो हम शेयर बाजार भी सकते हैं परन्‍तु वो आज तो गिर रहा है परन्‍तु कल फिर बढ़ता ही नजर आयेगा और ऐसा बढ़ेगा कि जो आज निवेश करके पछता रहे हैं वे ही कल यह कहकर कलपते नजर आयेंगे कि हाय, हम क्‍यों न निवेश कर पाये और यह ऐसा सेक्‍स है जो बढ़ता ही गया। जब गिरावट पर होता है तो करवटने का भी अवसर नहीं देता। बढ़ने पर लिपटने का नहीं देता मौका, यहां पर भी मिलता है धोखा। रावणीय शैली में कहें तो कभी एक सिर, कभी दस सिर, कभी पांच और कभी बेसिर तथा कभी दस सिरों की मौजूदगी के साथ पूरा सरदार बुराईयां बनती जाती हैं असरदार।

    रावण को महंगाई जैसी बुराई भी नहीं मान सकते क्‍योंकि इसी महंगाई से न जाने कितनों को मिलती है मलाई और उनके खातों में आती है चिकनाई बेपनाह। यह हमेशा चढ़ती मिलती है, तीव्र विकास की ओर तेजी से अग्रसर। यहां पर तीव्र और तेजी दोनों का इकट्ठा प्रयोग गलती से नहीं किया गया है बल्कि एक दो और ऐसे शब्‍द डाले जाते तो वे भी नाकाफी ही होते। इतनी तेजी से चढ़ती है महंगाई। जरा जरा सी सब्जियां फूली पड़ती हैं जबकि फलों को ही है सिर्फ फूलने का अधिकार पर महंगाई की रंगत जब चढ़ती है तो क्‍या आलू, क्‍या प्‍याज, क्‍या टमाटर, अब तो घिये, तोरई, भिंडी तक भी औकात से बाहर की बात होती जा रही हैं। क्‍या आश्‍चर्य यदि निकट भविष्‍य में सब्जियां भी केले, संतरे जैसे फलों की तरह गिन गिन कर बिकने लगें। जब तुल कर बिक रही हैं तब तो खरीदने वालों की हालत पतली गली सी कर रही हैं, जब गिन कर बिकने लगेंगी तो हालत बंद गली ही न हो जाएगी। तब सिर्फ उगलते ही बनेगा पर जब निगला ही नहीं होगा तो उगलने से भी कुछ न हासिल होगा और उबलने की हिम्‍मत न होगी, खाली पेट में तूफान नहीं आ सकता है।

    असल बात तो यह है कि रावण को चाहे कितना ही जलायें , पुतले बनाने पर कितना ही धन बहायें, पर मन से कोई नहीं चाहता कि अगली बार दशहरा न हो या रावण की स्‍मृति न आये। रावण की स्‍मृति ही राम की याद दिलाती है। रावण अगर सुख सरीखा हो जाये तो पल दो पल को सिर्फ चौंधियाएगा, अपनी पूरी फितरत में फिर कभी नजर न आयेगा। पर रावण दुख ही रहेगा जो सालों साल हमें सालता रहेगा, भुलाये न भुलाया जायेगा। यही रावणत्‍व का विस्‍तार है जिसे मिटाया नहीं जा सकता। इतना सब होने पर भी रावण के सकारात्‍मक पहलुओं पर भी गौर किया जाना चाहिये, आप सोच रहे होंगे कि भला बुराई में क्‍या सकारात्‍मकता हो सकती है तो दिल थाम कर सुनिये, रावण में कितनी ही बुराईयां थीं, पर सिर्फ एक अच्‍छाई उसकी सभी बुराईयों पर भारी पड़ती है कि रावण ने सीता से कभी बलात्‍कार के विषय में सोचा भी नहीं, और यही एक उजला पक्ष है जो रावण को उसकी सारी हैवानियत, समूची बुराईयों, सभी कपटताओं से उपर खड़ा कर देता है और इसी एक कारण से उसका होना खलता नहीं है। उसके होने पर भी मलाल नहीं होता है। मन नीला लाल नहीं होता।

    आयाम और भी हैं जल्‍दी ही ई रावण, ई महंगाई, ई बुराई, ई बेईमानी का वर्चस्‍व नजर आयेगा - तकनीकी से आखिर कोई कैसे और कितने दिन बच सकता है यानी बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी, एक न एक दिन तो धार पर आयेगी, पर फिर भी ई ईमानदारी कभी नजर नहीं आयेगी चाहे तकनीक कितनी ही बुलंदियों को क्‍यों न हासिल कर ले ?

    2 टिप्‍पणियां:

    1. जो चीज है ही नहीं (ईमानदारी)वह नजर भी कहाँ से आवेगी ।
      दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ...

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