मुनादी

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  • फ़ज़ल इमाम मल्लिक


    नहीं...नहीं
    जोश-ए-जुनूं में
    नहीं निकले हैं
    ये क़दम घरों से बाहर
    हाकिम-ए-शहर
    जो भी कहे
    और इसे जो भी नाम दे
    लेकिन दीवानावार सड़कों पर
    निकले लोग महज़ भीड़ नहीं थी
    जो बसों-ट्रकों-लारियों में
    भर कर लाई जाती हैं
    और जिनसे अपने-अपने पक्ष में
    लगवाए जाते हैं नारे

    शौकÞ-ए-जुनूं में नहीं निकले थे
    सड़कों पर हज़ार-हज़ार क़दम
    उनके भीतर धधक रही थी एक आग
    न जाने कब से
    जिसे हाकिम-ए-शहर देख नहीं पाया था
    क्योंकि उसके पास कोई ‘जादू की छड़ी’ नहीं थी
    जिसे वह घुमाता
    और नज़र आ जाती लोगों के अंदर की आग
    ख़त्म हो जाती महंगाई
    कम हो जाता भ्रष्टाचार
    नहीं छिनती किसानों की ज़मीनें
    और न ही गुम हो जातीं
    लाखों लोगों के होंठों पर खेलती मुस्कान

    हाकिम-ए-शहर के मुसाहिबों के अंदर
    बैठा था कई-कई तानाशाह
    जो हज़ार-हज़ार क़दमों को
    महज़ भीड़ माने बैठे थे
    और सोच रखा था
    कि जब चाहेंगे भीड़ को
    हांक डालेंगे सड़कों से
    ताक़त के बल पर
    सत्ता के बल पर
    पुलिस के बल पर
    क़ानून के बल पर

    हाकिम-ए-शहर को यक़ीन था
    मुसाहिबों पर
    अपनी सत्ता पर
    अपनी ताक़त पर
    यों भी हाकिम-ए-शहर को
    नहीं पता थी अवाम की ताक़त
    नहीं जानता था वह
    भूख क्या होती है
    महंगाई लोगों को किस क़दर परेशान करती है
    रोटी और भूख का रिश्ता उसे पता नहीं था
    वह बहुत कम बोलता था
    लेकिन जब बोलता
    बेचारगी, बेबसी, बेकसी
    उसके चेहरे पर साफ़ पसरी होती
    क्योंकि उसके पास जादू की छड़ी नहीं होती

    हाकिम-ए-शहर ख़ामोश रहा
    और उसके मुसाहिब लूट मचाते रहे
    हाकिम-ए-शहर ने आंखें बंद रखीं
    मुसाहिबों ने और लूट मचाई
    इसलिए जब पचहत्तर बरस का
    एक बूढ़ा सड़कों पर निकला
    और मुनादी की
    कि ख़लक़ ख़ुदा का
    मुल्क अवाम का
    हर ख़ासो-आम से कहा जाता है
    कि अब निकल पड़ो सड़कों पर
    लेकर अहिंसा की मशाल
    कि अब सोने का वक्Þत नहीं है

    चलो उठो !
    और आवाज़ लगाओ
    हाकिम-ए-शहर के ख़िलाफ़
    उन मुसाहिबों के ख़िलाफ़
    चुने हुए उन नुमाइंदों के ख़िलाफ़
    जो हर पांच साल पर
    हमारी बदौलत बनते हैं हाकिम-ए-शहर
    और फिर भूल जाते हैं हमें

    चलो उठो !
    और बता दो उन्हें कि
    सत्ता हम से हे
    ताक़त हम से है
    और क़ानून सबके लिए है

    और इस मुनादी ने
    बरसों से सोए पड़े लोगों को जगा डाला
    और देखते ही देखते
    हाकिम-ए-शहर की आंखों से
    छीन ली उसकी नींद
    मुसाहिबों के चेहरे से ग़ायब हो गई मुस्कुराहटें
    गुम हो गई चेहरों पर लिखी दंभ की इबारत
    झुक गईं तनी हुईं गरदनें
    और नुमाइंदे हैरत से देख रहे थे
    इंसानों के सैलाब को

    बरसों बाद एक बूढ़े की पुकार पर
    सड़कों पर उतरे थे लोग
    अपने अधिकारों के लिए
    देश के लिए
    एक-दूसरे के होंठों पर
    मुस्कुराहटों के फूल खिलाने के लिए

    हाकिम-ए-शहर लाख दलीलें दे
    मुसाहिबान लाख फ़िक़रे कसें
    नुमाइंदे इसे भीड़ कहें
    लेकिन ये क़दम
    शौक़-ए-जुनूं में नहीं
    एक बदलाव के लिए निकले थे सड़कों पर

    हाकिम-ए-शहर
    पहचान सको तो
    पहचान लो इन्हें
    ये महज़ भीड़ नहीं हैं
    जो बसों, ट्रकों, लारियों में
    भर-भर कर लाई जाती हैं
    नारे लगाने के लिए

    ये वे हैं जो
    हर पांच साल बाद
    अपनी निर्णायक भूमिका से
    बदल देते हैं हाकिम-ए-शहर
    बिना किसी जादू की छड़ी के

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