महिला पत्रकारों के प्रति लोगों का नजरिया - रीता विश्वकर्मा


रीता विश्‍वकर्मा

पत्रकारिता (मीडिया/प्रेस) में महिलाओं का प्रवेश और योगदान बड़े शहरों में अब आम बात हो गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में ठीक इसका उल्टा हो रहा है। लड़कियों को पढ़ाने के पीछे माँ-बाप एवं उनके घर वालों का महज एक ही उद्देश्य है कि शादी के लिए पढ़ाई की सनद काम आए। कुछ तो आर्थिक तंगी के कारण अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा नहीं दिला पाते वहीं अधिकांश लोग कन्याओं को इस लिए पढ़ाते हैं कि जब वर ढूंढने जाएँ तो उसकी लम्बी-चौड़ी डिग्रियाँ वर-पक्ष को सुनाकर ‘दहेज’ कम करवा सकें।
बहरहाल मैं अपने शहर में ही नहीं जिले में एक मात्र महिला पत्रकार हूँ वह भी सक्रिय। एक छोटे अखबार की संवाददाता हूँ और वेबन्यूज पोर्टल डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट रेनबोन्यूज डॉट इन की संपादक हूँ। पत्रकारिता जगत में पुरूष प्रधानता स्पष्ट परिलक्षित हेाती है। पहली बात तो यह कि पढ़ी-लिखी लड़कियाँ ‘मीडिया’ में आना नहीं चाहती हैं उनमें दृढ़ इक्षा शक्ति का नितान्त अभाव है। इसके अलावा अपने माँ-बाप पर आधारित होने की वजह से भी उनमें मीडिया को अपना कैरियर बनाने का साहस नहीं हो पा रहा है। मेरे जिले में पुरूष मीडिया परसन्स भी सहज रूप से मुझे ‘डाइजेस्ट’ नहीं कर पा रहे हैं। मीडिया/प्रेस परसन्स के अलावा प्रशासनिक हलके में भी कुछ इसी तहर की सोच है।
पद नाम नहीं बताना चाहती, एक बार एक विभागीय उच्चाधिकारी ने ऐसी अप्रत्याशित हरकत कर दिया तब से मुझे पुरूष वर्ग से वह चाहे जिस आयुवर्ग और ओहदे पर हो घृणा सी होने लगी। उस सरकारी मुलाजिम ने बाद में भले ही पश्चाताप किया हो, यह मुझे नहीं मालूम इसके अभद्र व्यवहार के बारे में मैने खिन्न मन से अपने गुरूकुल के मुखिया (सर जी) को बताया था। उन्होंने कहा था कि उस अधिकारी की ‘हरकत’ को कई ‘ऐंगिल’ से देखो। पहला यह कि शायद वह अभद्र व्यवहार करके वह तुम्हें ‘आजमा’ रहा हो कि वास्तव में पत्रकार हो या फिर ‘मीडिया’ का लबादा ओढ़कर एक साधारण युवती हो। सर जी ने कहा कि यह भी हो सकता है कि वह अधिकारी ‘वासना’ के वशीभूत होकर तुम्हारे साथ बेहूदा हरकत किया हो।
मैंने सर की बात को सुन लिया था और मनन भी किया फिर मेरी कार्यशैली सामान्य हो गई। मैं बराबर उस अधिकारी का साक्षात्कार लेती विभागीय प्रगति/समस्याएँ जानती और उनका प्रकाशन भी करने लगी। वह पुरूष अधिकारी चाहे मुझे आजमाने के लिए अपना कुत्सित प्रस्ताव रखा हो, या फिर वासना के वशीभूत जब पुरूष प्रधान समाज में ‘फील्डवर्क’ करना है तो ऐसी परिस्थितियों से दो-चार होना ही पड़ सकता है। मुझे ताज्जुब हुाअ कि उस अधिकारी को मैं ‘अंकल’ कहती थी और उसका नारी के प्रति उक्त रवैय्या मुझे बेहद नागवार लगा था। क्या मीडिया/प्रेस से सम्बद्ध महिलाएँ कालगर्ल भी होती होंगी जो चन्द पैसों के लिए किसी तथा कथित उदार दानदाता की अंकशायिनी बन जाएँ।
मजेदार बात बताना चाहूँगी कि मेरे जिले के शहर में दर्जनों सरकारी मुलाजिम डेढ़ दशक से जमकर ‘लूट’ मचाए हुए हैं। मैने जब इन अधिकारियों से मुलाकात किया तो दो-चार बार ये लोग मुझसे बचने का प्रयास करने लगे। बाद में जब मैंने बार-बार मिलना शुरू किया तो ये लोग दानी सा अभिनय करने लगे। किसी ने कहा कि स्कूटी ले लो यह कहने पर कि पैसे कहाँ से आएँगे तो उत्तर था पता करो कितनी कीमत है पैसों की चिन्ता मत करो दे दिया जाएगा। मीडिया/प्रेस से सम्बद्ध एक युवती हूँ पढ़ी-लिखी हूँ इन बगुला भगतों के अन्तरमन के भावों को समझने लगी। बाद में नो अंकल पदनाम से सम्बोधन और विभागीय जानकारी लेने लगी। कई अधिकारियों ने लड़की समझ कर ठीक से बात करना भी गँवारा नहीं समझा तब उनकी बखिया उधेड़ना शुरू कर दिया। ऐसा करने पर वह लोग भयवश ‘अतिव्यस्त’ होने का ड्रामा करके मिलने बात करने से कतराने लगे।
जिला स्तरीय एवं क्लास टू के कई अधिकारियों ने प्रोत्साहित किया और मेरी ‘जीजिविषा’ की सराहना भी किया। प्रबुद्ध वर्गीय लोगों मे कुछ ऐसे नाम हैं जिनकों मैं अपना आदर्श मानती हूँ और ताजिन्दगी मानती रहूँगी। मेरे यहाँ के एक गुणनिष्ठ पी0जी0 कालेज के प्राचार्य तो मुझसे ज्यादा किसी अखबार/मीडिया वाले को तरजीह ही नहीं देते। मैं उनकी शिष्या रही हूँ। वह बड़े गर्व से यह कहते हैं कि ‘रीता’ को बुलाओ वही संवाद कवरेज कर पाएगी और किसी अन्य में यह क्षमता नहीं है। मैं ऐसे गुरू (प्राचार्य जी) का वन्दन नमन करती हूँ।
पत्रकारिता में आने की प्रेरणा जिस व्यक्ति ने दी वह तो मेरे लिए शैक्षिक गुरू से भी बढ़कर हैं। आज भी मैं उन्हीं के सान्निध्य में रहकर लेखन कार्य कर रही हूँ। वह एक बेहद अनुशासित और सीनियर कलमकार हैं। आज के युवा उनसे बातें करने से परहेज करते हैं क्योंकि फालतू बकवास बातें उन्हें पसन्द नहीं। वह कहते हैं कि पहले पत्रकारिता का मतलब जानो तब पत्रकार कहलाने का शौक पालो। उनका लेखन बेबाक होता है, इस बारे में उनका कहना है कि यदि साहित्य लिखोगे तो उसे आम पाठक अच्छी तरह ग्रहण नहीं कर पाएगा। बेहतर यही होगा कि जो भी कहना/लिखना चाहते हो स्पष्ट तौर पर सरल भाषा में लिख डालो। थोड़ा बहुत रोचक बनाने के लिए ‘मिर्च मसाला’ चलता है, लेकिन साहित्य व क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करने से लाभ नहीं होने वाला। साहित्य व क्लिष्ट भाषा के आलेख छप तो जाते हैं लेकिन इनके पाठकों की संख्या न के बराबर होती है।
यह तो रही कुछ अन्तरंग बातें बुजुर्ग लोगों और गुरूओं की जो पत्रकारिता में महिलाओं के प्रवेश को किस ढंग से लेते हैं-मसलन निगेटिव और पॉजिटिव। अब कुछ ऐसे युवकों के बारे में बता दूँ जो अपनी मोटर बाइक पर प्रेस/मीडिया लिखवाकर बड़े रोबदाब में फर्राटा भरते हैं। दूसरों के लिखे शेर व कविताओं की चन्द पंक्तियाँ रट लिए हैं, बात-बात में उन्हीं को दोहराते हैं और ज्यादा खा-पी लिया तो मोबाइल पर उन्हीं को एस0एम0एस0 करते हैं। मेरे सीनियर्स ऐसों को ‘खप्तुलहवाश’ कहते हैं। कब क्या बोलना चाहिए इन्हें नही मालूम। बोलने के समय जुबान पर ताला और सुनने के वक्त कैंची की मानिन्द चलने लगती है इनकी जीभें। पुराने मीडिया परसन्स अब तो कार्यालयों से बार ही नहीं निकलते हैं। मेरा छोटा शहर जिसकी आधी आबादी प्रेस लिखवाए मोटर बाइक चला रही है। कोई नियंत्रण नहीं जिसे देखो वही प्रेस वाला।
इन युवकों के बारे में सूत्रों ने बताया कि ये लोग ‘प्रेस’ की आड़ में गैर कानूनी कार्य कर रहे हैं। पुलिस वालों से दोस्ती करने के साथ-साथ प्रेस/मीडिया का बैनर लगाए ऐसे कार्य को अंजाम दे रहे हैं जो पत्रकारिता की छवि को धूमिल करने में काफी सहायक सिद्ध हो रही है। ऐसे युवा कथित पत्रकार अलसुबह से देर रात्रि तक नेताओं/पुलिस वालों के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटते हैं और शाम को मदिरापान, माँस-भक्षण के साथ-साथ अन्य कुकृत्यों में संलिप्त हो जाते हैं। कुछेक के बारे में पता चला है कि ये अपने भाई-पट्टीदारों से ‘रंजिशवश’ प्रेस/मीडिया में प्रवेश करने के लिए हजारों रूपए खर्च कर चुके हैं और प्रेस/मीडिया का स्टिकर लगवाकर मोटर बाइकों/चार पहिया वाहनों पर फर्राटा भरते हैं।
आम आदमी से लेकर सरकारी अहलकार तक इनकी करतूतों से आजिज आ गए हैं। हमारे यहाँ कौन है असली और कौन है नकली इसका भेज निकाल पाना कठिन है। कार्य, प्रयोजन समारोह एवं प्रेसवार्ताओं में चाय-जलपान के लिए छीना-झपटी करना इनकी आदत में शुमार है। इस तरह के प्रेस मीडिया परसन्स को क्या कहा जाए? इनके बारे में लिखा जाए तो एक बहुपृष्ठीय ग्रन्थ बन सकता है। और ऐसों के बीच में महिला पत्रकार के लिए मीडिया जगत में अपने को दृढ़ता से कायम रखना कितना मुश्किल कार्य है। फिर भी मैं जुटी हूँ। वैसे जिस गुरूकुल की मैं छात्रा हूँ वहाँ के बारे में सुनकर ही बड़े-बड़े रंगबाज प्रेस/मीडिया वालों के होश उड़ जाते हैं। किसी की हिम्मत नहीं कि कोई मेरे महिला होने का गलत अर्थ लगा सके। अब तो मुझे भी माननीयों, उच्चाधिकारियों का आशीर्वाद प्राप्त है ऐसे में नए छुटभैय्या किस्म के लफंगे/आवारा पत्रकारों की हिम्मत नहीं कि मेरे साथ अभद्रता कर सकें। हाँ यह बात दीगर है कि आयोजनों में मुझे साथ ले जाने की कौन कहे ये लोग सूचित भी नहीं करते हैं।
करें भी तो कैसे ये लोग अधिकृत भी नहीं है। ये सभी पिछलग्गू हैं, और अधिकृत प्रेसवालों की जी हुजूरी करके ‘जिह्वा स्वाद’ लेने भर की कमाई कर रहे हैं। हमारा शहर छोटा है यहाँ हाय-हैल्लो तक कहने की परम्परा भी नही है। यहाँ अन्धों में काना राजा बने भौकाल मारते हैं। प्रेस/मीडिया के नाम पर 10-20 रूपए की कमाई करके तलब मिटाते हैं। ऐसे पुरूष बाहुल्य मीडिया में एक मात्र महिला पत्रकार का ‘सरवाइवल’ कितना ‘टफ टास्क’ है इसे वही एहसास कर सकता है जिसके ऊपर बीतती है। क्यांेकि ‘‘जाके पाँव न फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई’’। हमारे शहर के सरकारी अहलकार, फर्जी पत्रकार और नकारात्मक विचार धारा वाले आम लोग महिलाओं के बारे में अब भी पुरानी अवधारणा रखते हैं। उकने लिए महिलाएँ चाहे जिस क्षेत्र में हैं मात्र ‘भोग्या’ हैं। मेरा दृष्टिकोण ऐसे पुरूष समाज के प्रति इतना नकारात्मक भ नहीं कि पुरूषो से घृणा करूँ। मैं तो मीडिया/प्रेस में बुलन्दी पर जाना चाहती हूँ ऐसी स्थिति में पुरूष प्रधान समाज के लोगों की सोच स्वयं परिवर्तित हो जाएगी। क्या रूढ़िवादी विचार धारा के लोग अपनी पुत्रियों को पढ़ा-लिखाकर मीडिया/प्रेस जगत में जाने के लिए प्रोत्साहित करेंगे? फिलवक्त आज बस इतना ही मीडिया के बारे में फिर कभीं....।

6 टिप्‍पणियां:

  1. ‘‘जाके पाँव न फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई’’
    बढ़िया आलेख!

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  2. shi kha aapne hmare kota pres klb men bhi aesi kai shikayten aa rhi hen . akhtar khan akela kota rajsthan

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  3. आज कल महिलाओ को लेकर खासकर किसी क्षेत्र में आगे बढ़ने वाली महिलाओ के लेकर कुछ पुरुषो के मन में ये बैठ जाता है की वो अपनी महत्वकांक्षा के कारण सर्व सुलभ है वो कुछ भी कर सकती है | गलती उनकी भी नहीं है क्या किया जाये जब पुरुष आगे बढ़ने के लिए सारे तिकड़म करता है तो उन्हें ये गलतफहमी हो जाती है की कोई महिला भी आगे बढ़ने के लिए सब कर लेगी | ये सही कहा छोटे शहरों में ये ज्यादा है क्योकि वहा कम करने वाली महिलाओ की संख्या कम है |

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  4. पता नहीं इनको हर लड़की बाज़ार में खड़ी क्यों नज़र आती है

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