यमुनानगर 12 फरवरी 2011
संपादक, लेखक और पाठक की इस त्रिवेणी में सब समाहित है। आप सब और इंटरनेट पर मौजूद सभी इस श्रेणी में आते हैं। उन सबको संबोधित करते हुए बतला रहा हूं कि सूचना की नई प्रौद्योगिकी अपने साथ कंप्यूटर और मोबाइल फोन लाई और बिना अमीर गरीब का अंतर किए सबके हाथों में बस गई और प्रवासी साहित्य, लेखकों और साहित्य के लिए भी एक वरदान साबित हुई है। भी इसलिए कह रहा हूं कि संचार की इस तकनीक के जरिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बसंत खिले हैं, महक रहे हैं। प्रवासी लेखकों की आवाज, विचार और चित्रों को लेखनी के इस नये ताकतवर नए मीडिया ने देशवासियों और हिन्दी प्रेमी विदेशवासियों तक पहुंचाने में एक अहम भूमिका अदा की है और कर रहा है, उस लिखे पर अपनी प्रतिक्रिया को वापिस उन तक पहुंचा भी रहा है। आप अपने देशी और विदेशी अनुभवों को पहले लिखते थे परंतु वे आपके अपने देशवासियों तक भी नहीं पहुंच पाते थे, परिवार के लोग भी अनभिज्ञ रहते थे, विदेशों तक पहुंचाने के बारे में सोचा भी नहीं जाता था। जिनका साहित्य पुस्तक या पत्रिका रूप में आ गया, वो कुछ सीमित अपनों तक पहुंच गया पर उन्होंने पढ़ा भी या नहीं, मालूम नहीं चलता था। प्रतिक्रियाओं का पाना बहुत महंगा और जटिल भी था। टेलीफोन बहुत महंगा था और इंटरनेट तो था ही नहीं। फिर सामान्य तौर पर दिन भर में आप अधिक से अधिक कितने लोगों से संवाद कर सकते हैं। गोष्ठी और संगोष्ठी हो तो मामला अलग है।
संपादक, लेखक और पाठक की इस त्रिवेणी में सब समाहित है। आप सब और इंटरनेट पर मौजूद सभी इस श्रेणी में आते हैं। उन सबको संबोधित करते हुए बतला रहा हूं कि सूचना की नई प्रौद्योगिकी अपने साथ कंप्यूटर और मोबाइल फोन लाई और बिना अमीर गरीब का अंतर किए सबके हाथों में बस गई और प्रवासी साहित्य, लेखकों और साहित्य के लिए भी एक वरदान साबित हुई है। भी इसलिए कह रहा हूं कि संचार की इस तकनीक के जरिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बसंत खिले हैं, महक रहे हैं। प्रवासी लेखकों की आवाज, विचार और चित्रों को लेखनी के इस नये ताकतवर नए मीडिया ने देशवासियों और हिन्दी प्रेमी विदेशवासियों तक पहुंचाने में एक अहम भूमिका अदा की है और कर रहा है, उस लिखे पर अपनी प्रतिक्रिया को वापिस उन तक पहुंचा भी रहा है। आप अपने देशी और विदेशी अनुभवों को पहले लिखते थे परंतु वे आपके अपने देशवासियों तक भी नहीं पहुंच पाते थे, परिवार के लोग भी अनभिज्ञ रहते थे, विदेशों तक पहुंचाने के बारे में सोचा भी नहीं जाता था। जिनका साहित्य पुस्तक या पत्रिका रूप में आ गया, वो कुछ सीमित अपनों तक पहुंच गया पर उन्होंने पढ़ा भी या नहीं, मालूम नहीं चलता था। प्रतिक्रियाओं का पाना बहुत महंगा और जटिल भी था। टेलीफोन बहुत महंगा था और इंटरनेट तो था ही नहीं। फिर सामान्य तौर पर दिन भर में आप अधिक से अधिक कितने लोगों से संवाद कर सकते हैं। गोष्ठी और संगोष्ठी हो तो मामला अलग है।
बहरहाल ... तकनीक इतनी लुभावनी हो गई है कि बंद कमरे में बैठकर भी आप कंप्यूटर या मोबाइल फोन और इंटरनेट के माध्यम से रोजाना हजारों लोगों से संवाद कर लेते हैं। उस पर बतौर सोने में सुहागा फेसबुक, ट्विटर इत्यादि सोशल मीडिया सहायक हो गया है। वैसे इतनी खूबियां गिनवा दी हैं तो कुछ कमियां गिनवाने का दायित्व भी निबाह लूं। इसमें कठिनाईयां खूब सारी हैं। फिर तकनीक से वरिष्ठजनों की झिझक एक अहम कारण है। झिझक के बाद बेशर्म होकर कंप्यूटर की हार्डडिस्क का क्रैश हो जाना, कंप्यूटर की बीमारियों के लगातार होते हमले, जिससे उसमें मौजूद सब कुछ लूट लिया जाता है या लुट जाता है। कभी लुटा डाटा बरामद कर लिया जाता है और अधिकतर नहीं। फिर पढ़ने का मन है और नेट कनैक्ट नहीं होता है। जब कनैक्ट होता है, तब मन डिस्कनैक्ट हो जाता है। कुछ पत्रिकाएं हार्ड कापी नहीं प्रकाशित करती हैं। जिससे कभी भी, कहीं भी पढ़ने में मुश्किल आती हैं। वैसे उदंती, हिन्दी चेतना, व्यंग्ययात्रा, नया ज्ञानोदय, गर्भनाल इत्यादि पत्रिकाएं या तो नेट पर अथवा पीडीएफ में भी मिल जाती हैं। अगर सभी हार्ड कापी मिलें तो ... पर खर्च के चलते नहीं मिल सकती हैं और न मिलेंगी और सब तक तो पहुंच ही नहीं सकतीं। वे उसे पढ़ें अथवा न पढ़ें यह समस्याएं उसके बाद आती हैं।
और इन सबसे बढ़कर विस्मित करने वाली यह बात कि अब भी लाखों कंप्यूटर प्रयोक्ताओं हिंदी प्रेमियों को यह मालूम नहीं है कि कंप्यूटर हिन्दी में भी काम करता है। या कैसे करता है, इस बारे में जानकारी का अभाव है। जैसे मोबाइल फोन बिना किसी भेदभाव के सबके हाथों में पहुंच गया है, वैसे कंप्यूटर और हिन्दी और इंटरनेट की त्रिवेणी अगर गांवों, कस्बों तक पहुंचाई और इस्तेमाल करवाई जा सके। फिर न हिन्दी को खिलने और साहित्य को फैलने से कोई रोक सकेगा। सच में साहित्य जन जन का हित साध सकेगा। आप सब साधकों की बाधाएं दूर हो जाएंगी।
इस दिशा में अन्तर्जाल पत्रिकाओं ने एक महत्वपूर्ण रोल अदा किया है, जिसका परचम बुलंदियों तक पहुंचाने का श्रेय अभिव्यक्ति और अनुभूति की पूर्णिमा वर्मन के हिन्दी प्रेम और समर्पण को जाता है। मेरी और बहुत सारे लेखकों की रचनाओं का इंटरनेटीय जीवन अभिव्यक्ति या अनुभूति में प्रकाशन से शुरू हुआ है। इससे मिली हुई सफलता जो मात्र 5 या 6 साल पहले एक नन्हा सा पौधा थी, अब विशाल वृक्ष बन चुकी है और यह पेड़ खुद को भी छाया दे रहा है। जो लेखक विदेश नहीं जा सके हैं, उनकी रचनाओं को बिना पासपोर्ट, बिना वीजा के विदेशों तक पहुंचाने का कार्य पूर्णिमा वर्मन जी ने किया है और इस नये रास्ते पर चलने के लिए प्रेरणास्पद भूमिका निबाही है। लेखकों को जाली पासपोर्ट और वीजा के जरिए विदेशों में पहुंचाने वालो पर कबूतरबाजी का आरोप लगाया जाता है जबकि रचनायें इस प्रकार पहुंचती है तो उन्हें इस कार्य के लिए लेखकों का प्यार ही सच्चा सम्मान है और यह गैर कानूनी नहीं है और कबूतरबाजी तो है ही नहीं। इसके लिए तो सरकारी सम्मान शुरू किए जाने चाहिए जबकि मझे मालूम है कि ऐसा नहीं होगा परंतु ऐसी खुशफहमी जो सबको खुश कर सकती है, पालने में क्यों कंजूसी की जाए क्योंकि आज की कल्पना कल की सच्चाई बनती है। मेरा तो ऐसा अनुभव है, हो सकता है आपके भी ऐसे खूब सारे अनुभव हों। इस क्षेत्र में पूर्णिमा वर्मन जी का किया गया कार्य मिसाल के तौर पर मौजूद है और इसमें साल दर साल इजाफा ही हो रहा है। आज वेबदुनिया, हिन्दी चेतना, साहित्य कुंज, गर्भनाल, लेखनी, कृत्या, कविताकोश, काव्यांजलि, गद्यकोश और न जाने कितनी ही पत्रिकाएं और बेशुमार हिन्दी ब्लॉग, वेबसाइटें, विकीपीडिया इत्यादि विचारों की अनुभूति की अभिव्यक्ति से पल पल सबको समृद्ध कर रही हैं।
हम सब जानते हैं कि अन्तर्जाल में मेरी, आपकी और सबकी व्यापक मौजूदगी हिन्दी में यूनीकोड फोंट के आने से हुई है। आप एक बार गांवों, कस्बों तक इंटरनेट की सुविधा तो पहुंचने दीजिए। तब न हिंदी रूकेगी और न रूकेगा किसी भी प्रकार का हिन्दी साहित्य, चाहे प्रवासी हो अथवा आवासीय। फिर जो हिन्दी साहित्य का सूनामी आयेगा, वो सबके लिए लाभप्रद ही होगा। मेरी कामना है कि ऐसा सूनामी जल्दी ही आए और हमारे विचारों को जन मन तक पहुंचाए।
प्रिंट की कोई भी एक ऐसी पत्रिका नहीं है और न हो ही सकती है जो समूचे विश्व के रचनाकारों को एक जगह समेट कर प्रस्तुत करे और वो सब तक पहुंच भी सके और पढ़ी भी जाए तथा पढ़ने के लिए सदा मौजूद भी मिले। इन सभी गुणों से युक्त अभिव्यक्ति और अनुभूति के आरंभिक दौर को बतलाना – उसकी बेवजह तारीफ करना नहीं है बल्कि इंटरनेट युग की सच्चाई है। जिस पर ये दोनों पत्रिकाएं खरी उतरी हैं। अब तो खैर ... इन दिनों काफी पत्रिकाएं इस कसौटी पर मुकाबले के लिए तैयार हैं। पर इससे इनका महत्व कम नहीं हुआ, वरन बढ़ा ही है।
इंटरनेट पर पढ़ी और लिखी रचनाओं ने आपसी संवाद का माध्यम बनकर लिखने पढ़ने की ललक में जो बढ़ोतरी की है, वो सकारात्मक है। जिस कार्य को न तो सारे अखबार वाले और न सारी पत्रिकाएं ही मिलकर पा रहे थे और न आज भी कर पाने मे समर्थ हैं। उस समूचे कार्य को आज सिर्फ एक ब्लॉग ही कर सकने में पूरी तरह समर्थ है, यह अतिश्योक्ति नहीं है। इसमें धन बाधा नहीं है, वितरण बाधा नहीं है, सहेजना बाधा नहीं है – अन्तर्जाल पर पेश की जा रही सभी सामग्री को ब्लॉगिंग के माध्यम से हर जन तक पहुंचने में मिली कामयाबी को एक सर्वांग संपूर्ण विधा कहना समीचीन है। आज तक न तो कोई पत्रिका ऐसा कर पाई और न अगले कई सौ सालों में ऐसा कर पाएगी। वजह आप सब जानते हैं, मैं बतला भी चुका हूं। फिर भी कहना चाहता हूं कि छपी हुई पुस्तकों के पढ़ने का आराम कम नहीं होना चाहिए। जब बिजली न हो, तब भी चाय पीते हुए, पढ़े जाने की सुविधा कायम रहनी चाहिए।
इस माध्यम में सिर्फ अपनी बात कहना और कहते रहना जैसा एकालाप या एकांगी दोष नहीं है अपितु सामने से प्रतिक्रिया मिलना इसके उन्नयन में, बारिश होने पर , नदी नालों के भर जाने और धरती में पानी का स्तर बढ़ने का अहसास कराता है।
विचारों के विकास और नए विचारों के सृजन में यह नया मीडिया खूब कारगर है। ऐसा लगता है मानो सिर्फ प्रवासी ही नहीं, सब तरह के और सबके मन के भावों की अभिव्यक्ति के लिए ही इस तकनीक का जन्म हुआ है।
इसी इंटरनेट के कारण आज प्रवासी भारतीय लेखकों द्वारा रचा गया साहित्य और व्यक्त की गई भावनाएं जन जन के मन तक अबाध रूप से निरंतर पहुंच रही हैं। इतना सस्ता सुलभ और सहज है यह माध्यम। सिर्फ लेखकों के लिए ही नहीं अपितु पाठकों के लिए भी एक करिश्मे के तौर पर आया है। और अब यह अभिव्यक्त्िा का सबसे सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। इसकी शक्ति और प्रभाव में रोजाना बढ़ोतरी हो रही है। कलम ने सही मायने में अब जन जन की कलम होने का गौरव प्राप्त किया है। ब्लॉगिंग और इंटरनेट ने अब हर हाथ को कलम और प्रत्येक मन के विचारों को सब तक पहुंचाने का जिम्मा संभाल लिया है।
नई सूचना प्रौद्योगिकी प्रवासी साहित्य का प्रसार कर रही है – यह इस नए व्यापक संभावनाओंयुक्त माध्यम को कम करके आंकना ही है। इस प्रौद्योगिकी से प्रवासी साहित्य को जो विस्तार मिला है, जो इसके बिना संभव ही नहीं था। इस तकनीक के जरिए बातें दूर तलक तो गई ही, दूर कही जा रही बातें सबके नजदीक पहुंची। जिस प्रकार का आपस में स्वस्थ संवाद हुआ है। इससे पहले इस प्रकार की संभावनाएं सोची भी नहीं गई थीं। पत्र और फोन के जरिए या सिर्फ छपी हुई पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से, प्रवासी साहित्य का और न हिन्दी साहित्य का इतना दूरंगम विकास ही संभव था। नई सूचना प्रौद्योगिकी जिसे इंटरनेट का सान्निध्य मिला – आशातीत प्रसार हुआ है, जिसकी कुछ बरस पहले तो कल्पना भी नहीं की गई थी, आज अपने समृद्ध रूप में जलवानशीन है, दिनोंदिन रातोंरात निखर रहा है, उज्ज्वल हो रहा है।
यह तकनीक अब किसी सरकारी अनुग्रह की मोहताज नहीं है। इसकी शुरूआत तो राजीव गांधी के कंप्यूटर युग लाने के आवाह्न के साथ ही हो गई थी। आज जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो सूचना क्रांति की तकनीक से बाहर हो बल्कि यूं कहिए कि जो कल्पना में भी नहीं था और जिसका स्वप्न भी नहीं देखा गया, वो आज की हकीकत है।
विचारों की ऐसी दौड़ किसी माध्यम में कभी संभव नहीं रही है, जो आज जारी है। इस तकनीक के दुष्प्रभाव भी हैं। पर हम चाहे, समाज से बिल्कुल दूर रहें, जोखिमरहित जीवन और न ही तकनीक संभव है, बस अपने विवेक का प्रयोग अवश्य करना होगा। यहां पर जहां चूके या लापवाही बरती तो समझ लीजिए बंटाढार और इंसानियत बेजार। घर परिवार सब जगह अराजकता ही अराजकता।
उस तकनीक का ही करिश्मा है कि आज हम सब यहां इकट्ठे हैं, कभी सोचा भी नहीं था कि हमविचारों के धनपतियों से, इस बेतुकल्लुफी से मिलना, रूबरू होना, यूं सभव होगा। पर यह आज की हकीकत है। तकनीक और हम विचारों और रचनात्मकता की सकारात्मकता का जादुई मन और सम्मोहन आज सजीव हुआ है।
लेखकों का कलम से जो नाता है, अपनापा है, अपनापन है। उसे कोई दूसरा नहीं जान सकता। प्रौद्योगिकी चाहे कितनी ही उन्नत हो जाए, पर कलम की प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी। अब भी अधिकांश वरिष्ठ साहित्यकार इस नई तकनीक से नहीं जुड़ पाये हैं जबकि उनकी कलम सरपट दौड़ती है और इस दिशा में पूरे वेग से प्रवाहमान है। इनके बीच समन्वयन की सख्त जरूरत है।
कलम की खासियत है कि वो सदा दिल के पास मौजूद रहती है, दिल की बातें कहती है। उसका दिल के साथ गहरा अपनापा है। संभावनाएं भरपूर हैं कि कभी दिल के पास कीबोर्ड लग जाएगा। मोबाइल का कीबोर्ड दिल के पास पहुंचता तो है पर इसके खतरे बहुत हैं, उससे सदा सावधान कराया जाता है जबकि कलम और दिल, दिल और कलम के बारे में कभी ऐसा जोखिम न तो आज तक सुनाई दिया है और न ही कभी सुनाई देने की रंचमात्र भी उम्मीदें हैं।
कलम से लिखना, बेकलम हो जाना और कीबोर्ड से लिख जाना – इनमें काफी गहरी बातें छिपी हैं। मैं कई महीने कीबोर्ड पर आश्रित हो गया था, सीधे उसी पर लिखता रहा, लेकिन मैं मानता हूं कि इसका मुझे नुकसान ही रहा है। अब पहले कलम का प्रयोग, जिसका मेरे दिल से नजदीकी रिश्ता है, इस रिश्ते की सुगंध और मौजूदगी को महसूसना फिर कीबोर्ड से जुड़ाव – मेरे भरपूर कीबोर्ड का खटरागी बनने की प्रक्रिया है। यह खटराग सकारात्मक है। अगर हिन्दी में जीवन होता, वो जीवधारी होती तो इस खटरागी उपक्रम से अवश्य प्रसन्न होती। ऐसा मेरा मानना है, फिर मेरी इस सोच से कोई सहमत हो, मत हो, क्यों चिंतित होऊं। वैसे मैंने इसका सकारात्मक पक्ष ही रखा है, जानना चाहूंगा कि इसके नकारात्मक पक्ष भी सामने आएं ताकि समय रहते उनकी चिकित्सा के उपाय खोजने की कार्रवाई भी आरंभ कर दी जाए। और साथ ही आज हम इस पर अवसर प्रण करें कि जिस तरह धुन के धनी बाबा रामदेव योग का प्रचार प्रसार कर रहे हैं, हम सब कंप्यूटर पर हिन्दी और इंटरनेट की जानकारी का ज्ञान बांटने के लिए बाबा रामदेव बनेंगे। इसके लिए आपका सबका नुक्कड़ पर हिन्दीयोग के लिए सबका सहर्ष स्वागत है।
आप सबने और इंटरनेट पर इसका वीडियो लगाया जाएगा, जो लोग मेरी इस कहन से परिचित होंगे, मेरी बातें इतने मनोयोग से सुनीं। इस पर आप सबकी बेबाक प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी, जिसे आपnukkadh@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।
नमस्कार, जय हिन्दी।
धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआज आप के साथ मुलाकात अच्छी रही जी ...
वाह भई पवन जी आपने बहुत मनोयोग से यह सुंदर लेख कहा है. आपके चिंतन से परिचय के लिए आभार.
जवाब देंहटाएं@ Kajal Kumar
जवाब देंहटाएंवास्तव में ही इसमें प्रकट किए गए विचार सार्थक हैं और इन्हें सबके पास पहुंचना चाहिए, इसीलिए यह पोस्ट लगाई है। परंतु ये विचार अविनाश वाचस्पति जी के हैं, जो कि उन्होंने यमुनानगर में आयोजित तीन दिवसीय प्रवासी साहित्य संगोष्ठी में अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहे हैं। आज ही यह समारोह संपन्न हुआ है जो कि डीएवी गर्ल्ज कॉलेज, यमुनानगर और कथा यूके के तत्वावधान में आयोजित हुआ। इस अवसर पर प्रकाशित प्रवासी साहित्य स्मारिका की पोस्ट श्री रविन्द्र पुंज जी ने नुक्कड़ पर लगाई है, जिसके संपादक उमेश चतुर्वेदी तथा तकनीकी निदेशक अविनाश वाचस्पति हैं। वे वहां पर हिन्दी ब्लॉगरों से भी मिले हैं, ऐसी सूचना मिली है, जिनके सचित्र समाचार भी ब्लॉगों पर प्रकाशित हो रहे हैं।