आखिर हम गाली क्यों देते हैं?

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  • है न विचित्र किन्तु सत्य कि हम सब जानते हैंकि गाली देना बुरीबात है लेकिन गाली है कि मुँह से निकल ही जाती है |हमारा अपनी जुबान पर नियंत्रण ही नहीं रहता |पहले भी ब्याह-बारातों में ज्योनार के समय गाली गई जाती थी पर वह अधिकतर दूल्हे की माँ बहिनो कों बरात में नचाने का उपालंभ ही हुआ करता था|हम जब किसी कों अपमानित करना चाहते हैंतो हमारा सबसे बड़ा हथियार गाली ही हुआ करता है | बचपन में हम भी कुत्ता ,बेबकूफ ,उल्लू ,बदतमीज जैसी गाली दिया करते थे| और जब बहुत गुस्सा आता था तो कडी खाई धुआ करी मर जाएजैसी अनिष्टसूचक अथवा कोसने नुमा गाली मर जा ,कट जा और तेरे हाथ पैर टूट जाए जैसी गालिया प्रयोग की जाने लगी|
    कुछ और समझदार हुए और बाहरी परिवेश से परिचय हुआ तो माँ बहिनकी गाली कानो में सुनाई पडी | तब तक इन गालियों के गूढार्थ पता नहीं हुआ करते थे अत: बचपने में एक बार इस गाली का प्रयोग किया और माँ से खूब पिटाई भी खाई | सख्त हिदायत दीगई कि अब कभी ऐसे शब्द जुबान पर भी आये तो जुबान खीच ली जायेगी| बस इस प्रकरण का यहीं पटाक्षेप हो गया|
    जैसे-जैसे बड़े होते गए और समाज का हिस्सा बनते गए, देखा कि पुरुषों की भाषा में गालिया ऐसे सम्मिलित होने लगी जैसे दाल में तडका|अनसुनी करते करते भी पाया कि कई सज्जनो की बाते तो इन आलंकारिक शब्दों के बिना पूरी नहीं होती| तब बहुत कोफ़्त होती थी पर हम कर क्या सकते थे| बहुत हुआ तो ऐसे लोगो के आगे नहीं पडते थे| समझदारी आई तब जाना इन गालियों के मूल में स्त्री जाति और उसके पक्षधरों कों अपमानित करने की मूल मंशा ही थी| साला और साली कितने मधुर रिश्ते होते हैं पर ये भी गाली के पर्याय होते चले गए और अब साला तो इतना फैशन में आगया कि उसे गाली नहीं वरन बातचीत का जरूरी हिस्सा माना जाने लगा |पर इसी रिश्ते का एक पहलू और था पति के भाई और बहिन यानी देवर और ननद | ये रिश्ते सदैव पूजनीय रहे कभी गाली की कोटि में नहीं गिने गए|आखिर क्यो क्योंकी ये पति परमेश्वर के हिस्से जो थे और सालासाली उस बदनसीब के भाईबहिन | धीरे-धीरे इस साजिश ने एक और रूप अख्तियार कर लिया |हमारी पूरी की पूरी शक्ति औरतो के खिलाफ प्रयोग होने लगी |उनकी इज्जत के इतने चीथड़े बिखेरने केलिए एक गाली पर्याप्त होती और वह शर्म से मुह छिपा बैठी| समय बदला और बराबरी की धुन में औरतों ने भी इसी हथियार का प्रयोग करना शुरू कर दिया पर वह यह भूल बैठी कि ये तो पुरुषों के द्वारा दी जाने वाली गालिया है हम अपनी गालियोंका शास्त्र अलग बनाए |कौन मेहनत करता सो उसी कोष से गालिया चुन ली गई और उनका धडल्ले से प्रयोग किया जाने लगा |बिना सोचे समझे कि इन सब गालियों से तो हमी अपमानित हो रहे है| मेरा बहुत मन हुआ कि पूछू अरे ये कैसा अनर्थ कर रही हो| भला अपने कों भी कभी गाली दी जाती है पर बराबरी की होड़ में किसे ये सब फालतू बकबास सुनने की पडी थी|पुलिस का महकमा तो गालियों के बिना अधूरा ही है| और अब तो स्थिति यह है कि वे बच्चे जो इन गालियों की एबीसीडी भी नहीं जानते वे भी इन गालियों का धडल्ले सेप्रयोग करते है| ऐसे कुछ बच्चों कों मैंने जब कुछ समझाने की कोशिश की तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से जबाव दिया कि ये खराब बात होती तो सब लोग क्यों देते | दुकान पर चौराहे पर और घर पर ये गालिया तो उसके कानो में रोज ही पडती है | आखिर किस-किस से बचायेंगे आप | और बस हमने मान लिया है कि किसी कों डराने धमकाने के लिए दोचार भद्दी गालियों का प्रयोग कर दो |सज्जन तो ऐसा भाग खडा होगा जैसे गधे के सर से सींग और भले घर की लडकिया तो उस माहौल से बचना ही सुरक्षित मानेगी |और कहा जाएगा क्या मेडम ये भी कोई लिखने का विषय है ,ये तो सब चलता रहता है|

    2 टिप्‍पणियां:

    1. नहीं अविनाश जी, ये बिल्कुल लिखने का विषय है... और गालियाँ तो आज कल ऐसा लगता है जैसे प्रचलन में ही आ गयी हों... बुरा हाल है सर जी... क्या करेंगे...

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    2. गलीको सिरिउस्ली नहीं लेना चाहिए, बल्कि ये तो लोगो में नजदीकिय लआती है
      गली का जवाब मुस्कुराकर देना चाहिए
      वाचस्पतिजी आप तो खूब लिखती है
      आप के लेख मुझे बहुत पसंद होते है .
      आप की बेबाक टिप्पणियाँ बहुत कुछ कह जाती है
      धन्यबाद

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    आपके आने के लिए धन्यवाद
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