हंगामा है क्यूं बरपा...सन्दर्भ विभूति नारायण

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  • प्रेम जनमेजय
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  • हंगामा है क्यूं बरपा...

    साहित्य मे हंगामे न हो तो साहित्य किसी विधवा की मांग या फिर किसी राजनेता का सक्रिय राजनीति से दूर जैसा लगता है। अब किसी ने नशे में कुछ की दिया है तो इतना हंगामा मचाने की क्या आवश्यक्ता है। पी कर हंगामा करना कोई बुरी बात है। अब पीकर हंगामा न हो तो पीने पर लानत है, हुजूर!
    एक अकेले विभूति ने थोड़ी पी है, इसे पीने वाले तो अनेक बुजुर्ग मठाधीश रचनाकार साहित्य जगत में हैं। न न न उस शराब को बदनाम न करें जो गालिब पीते थे। ये शराब तो स्वयं को निरंतर विवादित कर समाचार में रहने की है। ये शराब तो डब्ल्यू डब्लयू एफ की कुश्तियों से पैदा की जाती है। अब हमारे लिखे को कोई रेखांकित नहीं कर रहा है तो दूसरे के लिखे को ही चुनौती दे डालो। ‘साला’ साहित्य जगत आपके मन मुनाफिक आपके लिखे को चर्चा के केंद्र में नहीं रख रहा है तो, चुप्पी साधे बैठा है तो, उसकी मां -बहन कर दो, चुप्पी अपने आप टूटेगी और आप हर साहित्यिक पान की दूकानों या चंडूखाने में चर्चा का विषय बन जाएंगे।
    अब एक पुलसिया साहित्यकार ने इस नशे की झोंक में कुछ कह दिया है तो इतना हंगामा मचाने की क्या आवश्यक्ता है ।अब यदि एक विश्वविद्यालय के गंभीर चिंतक एवं जिम्मेदार व्यक्ति ये कहते हैं कि -लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बडऋी छिनाल कोई नहीं ।’ तो हुजूर इस विषय पर शोध करवाए जाएं , सेमिनार हों। इस योगदान पर बड़ी-बड़ी विभूतियों से चर्चा करवाई जाए। हिंदी साहित्य कुछ पिछड़े माहौल से बाहर निकले।
    अब यदि संपादक जिसने इस साक्षात्कार को प्रकाशित किया है, बावजूद इसके कि उसकी पत्नी स्वयं एक लेखिका है तो आपको क्या एतराज ? सुना है कि संपादक और साक्षात्कार में अपने अनमोल स्वर्णिम विचारों को व्यक्त करने वाले अच्छे मित्र हैं और अनन्य मित्र तो बहुत कुछ जानते हैं। क्या दोस्ती है हुजूर, कोई आपकी पत्नी को सरे आम छिनाल कह रहा है और आप उसे सरे आम प्रकाशित कर रहे हैं।
    ऐसे हंगामे रजनीति और फिल्मनीति में होते ही रहते हैं। और राजनीति में तो ऐसे हंगामों की प्रतिदिन चर्चा रहती है।
    प्रिय भाई को उम्मीद नहीं थी कि बात इतनी दूर तलक पहुंचेगी की नौकरी पर बन आएगी। वैसे चिंता की कोई बात नहीं, नौकरी बचानी हो तो वैसा ही करें जैसे हमारे राजनेता करते हैं। मैंनें ऐसा नहीं कथा था... मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है... मैं तो नारी की पूजा करता हूं ... जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं... आदि आदि। और बहुत हुआ तो क्षमा मांग ली। नौकरी या मंत्री पद पर आंच नहीं आनी चाहिए। आखिर ये भी तो साहित्य के नेता हैं, ये सब टोटके तो जानते ही होंगे।
    मूर्ख थे दुष्यंत जो कहते थे कि हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही... यहां तो मकसद यही है जिससे अपनी तसवीर बदलती रहे चाहे दूसरे की धुंधला जाए।

    प्रेम जनमेजय

    8 टिप्‍पणियां:

    1. रास्‍ता तो प्रेम का ही सुझाया गया है

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    2. Iske kuchh aur bhee paksh vicharneey hain. keval ek shabd par n jaayen to yah bhee kam mahatvpoorn prashn nahee hai ki kya sachmuch kuchh mahilaayen lekhika ya kavi ya sahitykaar banne ke liye samjhaute karatee hain? karatee hain to kis star tak? aur kai baar unke ve prasang hee unke haath men unkee saphgoi aur sachaai ke danke kee tah bajate hain, unhen rato-rat bada rachanakaar bana dete hain. unkaa jameer tab kyon so rahaa hota hai, jab unke chup rahne bhar ka phayada bade sampadak aur sahity ke thekedaar uthaa lete hain? ek prashn aur, naya jnanoday ke jis ank men prakashit sakshaatkar ke kaaran hay-tauba machee hui hai, vah BEVAPHAAI SUPER VISHESHANK-2 hai. 1 pahale hee nikal chuka hai aur 3 ka intjaar keejiye. is naam par gaur keejiye. supar shabd kaa prayog aajkal vigyapan kee duniya men jis tarah saabun, tel, cream, lipistik bechane ke liye kiya jaa raha hai, kya ab samay aa gaya hai ki saahity bhee usee tarah becha jaay. yahee nahee, bevaphaai visheshank men bevaphaai shabd kee dhvani bhee kyaa saamaan bechane kee sastee maansikata ko hee nahee darshaatee hai? pahle jaise nootan kahaniya ya sachee kahaniyaa ke tantr-mantr, ajab-gajab ya apradh kathaa visheshank nikala karte the, kya yah bhee usee tarah kee dhvani se graahak badhaane kaa prayaas bhar naheen lagataa? sahity kee duniyaa men yah sab dekhkar achchha anubhav naheen hota.
      Yah nishchay hee hamaare sahity parivaar men aayee giravat kaa lakshan hai aur ek lambee vyngykathaa ka vishay uplabdh karata hai.

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    3. बहुत बेबाकी से लिखा गया लेख बहुत ही सटीक है!

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    4. बाकी सब तो जो है सो है पर दुष्‍यंत को मूर्ख क्‍यों कह रहे हैं जनाब। यह भी किसी गाली से कम नहीं है। गाली चाहे आप व्‍यंग्‍य में प्रेम से ही दे रहे हों। पर दे रहे हैं न।

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    5. साहित्य बहुत लम्बे समय से उन ही रास्तों पर चल रहा बल्कि चलाया जा रहा है जिस पर विज्ञापन, फिल्म और राजनीति पहले से ही चल रहे हैं. कुछ लोग हंगामा खड़ा करना ही मकसद मानते हैं. गर्दन फंसने के बाद अपने बयान से मुकरने या कहे गए शब्दों अपनी डिक्शनरी से अर्थ देने की नाकाम कोशिश करने में जुट जाते हैं.
      विभूतियाँ, अब देश में हैं ही कितनी और जो हैं भी उनका भी तो नारायण ही मालिक नजर आ रहा है.

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    6. भाषा का संस्कार निरन्तर अभ्यास से ही अंकुरित होता और पनपता है। श्रीयुत राय के साथ भी यही हुआ है। लिखित क्षमा माँगने के बावजूद वे जरूर यह सोच रहे होंगे कि बयान तो उनका कुछ हद तक तर्कसम्मत ही था लेकिन साहित्य के क्षेत्र में भावों को 'पुलिस' संस्कारवाले शब्दों में व्यक्त नहीं करना था। यद्यपि यह कहकर कि 'नया ज्ञानोदय' के सम्पादक अंक छपने के समय बाहर थे, रवीन्द्र कालिया जी का बचाव कर लिया गया है तथापि इतनी बड़ी पत्रिका का सम्पादक होने के नाते भाषा-सुधार का दायित्व उन्हीं का बनता था, क्षमा भी उन्हें ही माँगनी चाहिए थी और दण्डित भी उन्हें ही होना चाहिए था स्वयं आगे आकर। हो सकता है कि पीछे रहकर उन्होंने बचाव के कुछ प्रयास किए भी हों, अखबार इस मामले में चुप दिखते हैं।

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    आपके आने के लिए धन्यवाद
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