मीडिया तुझे सलाम
छब्बीस साल बाद ही सही कम से कम होश में तो आया मीडिया
तानाशाहों को अपनी ताकत का अहसास करवाया मीडिया ने
जनता आपके साथ फिर किस बात की चिंता
(लिमटी खरे)
छब्बीस साल बाद ही सही कम से कम होश में तो आया मीडिया
तानाशाहों को अपनी ताकत का अहसास करवाया मीडिया ने
जनता आपके साथ फिर किस बात की चिंता
(लिमटी खरे)
कारपोरेट सेक्टर की लौंडी बना मृत्यु शैया पर पडा देश में प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ 'मीडिया' के शरीर में अब कुछ हलचल दिखने लगी है। अब लगने लगा है कि किसी चिकित्सक की परीक्षण शैया पर पडे मीडिया के जीवित होने की कुछ उम्मीद है, वरना देश के मीडिया के लिए भी पुरानी फिल्मों के डालयाग की आवश्यक्ता महसूस की जाने लगी थी, कि ''अब दवा नहीं दुआ की जरूरत है।'' मामला चाहे आरूषी का हो रूचिका का या फिर भोपाल की दिल दहला देने वाली भीषणतम गैस त्रासदी, हर मामले में मीडिया ने देर आयद दुरूस्त आयद की तर्ज पर तानाशाहों को उनकी औकात बताकर अपनी ताकत का अहसास करवाय। छब्बीस साल से खामोशी अख्तियार करने वाले मीडिया ने आखिर मुंह खोला और भोपाल गैस मामले में अंततोगत्वा देश के वजीरे आजम को मीडिया के सामने आकर प्रश्नों के जवाब देने पडे। यह एक सुखद शुरूआत के तौर पर देखा जाना चाहिए, वरना निहित स्वार्थों के चलते कारपोरेट सेक्टर के धनाड्यों ने अपने पैसों के बल पर मीडिया को खरीदकर पत्रकारों को जरखरीद गुलाम बनाकर रख दिया है। हमें तो अब खुद को पत्रकार कहने में शर्म महसूस होने लगी है। जब मीडिया के लोगों को अपने मालिकों के इशारांे पर ''दलाली'' करते पाते हैं तो लगता है बेहतर होता कि मीडिया में आने के बजाए वे किसी ''परचून की दुकान'' खोल लें, कम से कम पत्रकारिता को मिशन मानने वाले तो चेन से अपना काम कर पाएंगे।
बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में कांग्रेस की राजनीति के चाणक्य रहे कुंवर अर्जुन सिंह ने देश के मीडया मुगलों और उनकी देहरी पर नाक रगडकर उन्हें ''साहेब सलाम'' कहने वालों को जिस कदर उपकृत किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। देश के हृदय प्रदेश में ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करने वालों के मुंह में कुंवर अर्जुन सिंह ने जिस खून को लगाया है, वह निश्चित तौर पर निंदनीय है। इसके उपरांत जितने भी जनसेवकों ने जैसा चाहा मीडिया ने उनकी छवि उसी के अनुरूप बनाई। ईमानदारी से पत्रकारिता करने वालों के लिए अब जगह ही नहीं बची है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज देश के बडे बडे घरानों में पत्रकारिता जनसेवा के स्थान पर लाभ कमाने का पेशा बन चुकी है। संपादक कंपनियों के मुख्य कार्यकारी या कार्यपालन अधिकारी (सीईओ) की भूमिका में खडे हैं, तो संवाददाता या मीडिया कर्मी उनके एजेंट बनकर रह गए हैं, जो मालिकों के लिए लाभ कमाने का साधन बनकर रह गए हैं। घरानों के लिए ''प्रिंट जाब'', ठेका, सरकारी सप्लाई, मंत्रियों के साथ लाईजनिंग अब पत्रकारों का प्रिय शगल बन गया है। हमें तो आश्चर्य तब होता है जब घरानों के अखबारों के संपादक मंत्रियों या मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण के बाद उन्हें गुलदस्ता भेंट करने जाते हैं। मीडिया की अपनी एक साख होती है, एक आदर्श होते हैं। किसी को पुष्प गुच्छ भेंट करना कहीं से गलत नहीं है, पर चाटुकारिता के तहत यह करना उचित कदापि नहीं कहा जा सकता है।
रही बात जनसेवकों की तो जनसेवक आज एक दूसरे को नीचा दिखाने, निहित स्वार्थों के लिए अपने प्रतिद्वंदी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने में गुरेज भी नहीं करते। 1984 में भोपाल गैस कांड के उपरांत सूबे में मोतीलाल वोरा, दिग्विजय ंिसह के अलावा सुंदर लाल पटवा, उमा भारती, बाबू लाल गौर, शिवराज सिंह चौहान आदि मुख्यमंत्री रहे। आज सुंदर लाल पटवा द्वारा कुंवर अर्जुन सिंह पर वार किया जा रहा है। मीडिया को उनके साक्षात्कार के वक्त यह पूछना चाहिए था कि आज आप जो आरोप कुंवर अर्जुन सिंह पर लगा रहे हैं, उस वक्त आपने अपनी चोंच बंद क्यों रखी थी, जब आप मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वह भी ढाई साल। तब आपने कुंवर अर्जुन सिंह, मोती सिंह, स्वराज पुरी आदि पर मुकदमा कायम क्यों नहीं करवा दिया। ये सभी तो कांग्रेस से उपकृत थे। आप भाजपा के मुख्यमंत्री थे, अगर आप वाकई आज घडियाली आंसू नहीं बहा रहे हैं तो आपको 1990 से 92 तक मुख्यमंत्री रहने के दौरान इस बात को करना चाहिए था, वस्तुतः आपने नहीं किया, जाहिर है आप भी मोका परस्त की श्रेणी में खडे दिखाई दे रहे हैं।
आज भाजपा द्वारा मीडिया द्वारा मिस्टर क्लीन की उपाधि से नवाजे गए स्व.राजीव गांधी पर शक की सुई ले जाकर टिकाई जा रही है। यह बात उतनी ही सच है जितना कि दिन और रात कि नेहरू गांधी परिवार के बिना कांग्रेस जिंदा नहीं रह सकती है। यही कारण है कि कांग्रेस के प्रबंधकों ने बडी ही चतुराई से योजनाबद्ध तरीके से इटली मूल की सोनिया गांधी को कांग्रेस में सर्वशक्तिमान बनाकर प्रस्तुत कर दिया। भोपाल गैस मामले में भाजपा का 'सोनिया प्रलाप' अनुचित नहीं है, क्योंकि सोनिया का कद आज इतना बडा हो चुका है कि उनकी छवि को डेमेज किए बिना भाजपा कांग्रेस का कुछ नहीं बिगाड सकती है। बस लोगों की समझ का ही फेर कहा जाएगा कि भाजपा की सरकार 1990 से 1992 और उसके बाद 2003 से अब तक मध्य प्रदेश में है, फिर आज शिवराज सिंह चौहान जो कदम उठा रहे हैं, वे कदम भाजपा की सरकार ने पहले क्यों नहीं उठाए। केंद्र में भी तीन मर्तबा अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व मे ंभाजपा आई फिर इस मामले में खामोशी का राज क्या था। क्यों अब तक भाजपा की सरकार तरफ से कुंवर अर्जुन सिंह को बचाया जाता रहा। क्यों तत्कालीन जिला कलेक्टर मोती सिंह और पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी की खाल बचाई गई। सेवा निवृति के उपरांत स्वराज पुरी को इसी भाजपा सरकार ने लाल बत्ती से नवाजा, इसके पीछे क्या वजह रही! क्या भाजपाईयों में इतनी नैतिकता बची है कि वे इसका जवाब दे सकें। क्या कांग्रेस पलटवार कर भाजपा से यह प्रतिप्रश्न करने का माद्दा रखती है। इसका उत्तर नकारात्मक ही आएगा, क्योंकि भाजपा हो या कांग्रेस ''हमाम में सब नंगे हैं'' का जुमला सभी पर चरितार्थ होता है।
मीडिया ने पहली बार न्यायपालिका के खिलाफ भी धार पैनी की है। अनेक कारपोरेट घरानों के समाचार पत्रों ने आश्चर्यजनक रूप से देश के सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश ए.एम.अहमदी की कार्यप्रणाली पर उंगली उठाकर किसी को चौंकाया हो या न हो हम तो इस कदम से हतप्रभ हैं। अमूमन न्यायपालिका के खिलाफ मीडिया जाने से गुरेज ही करता है। पहली मर्तबा जस्टिस अहमदी को 1996 में उनके फैसलों के लिए कटघरे में खडा किया गया है। यह सच है कि अमूमन सर्वोच्च न्यायालय आरोप तय करने के मामलें में अपने आप को बचाता है, पर इससे इतर भोपाल गैस कांड मामले में कोर्ट ने यह रूख नहीं अपनाते हुए आरोप तय किए। अब मामला उछल चुका है तो प्रजातंत्र के तीनों स्थापित स्तंभों की भद्द पिटना तय है।
कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के पति और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नाम को इसमें घसीटे जाने के बाद हरकत में आई कांग्रेस ने अब कुंवर अर्जुन सिंह का बचाव आरंभ कर दिया है, कांग्रेस को डर है कि अगर कहीं अर्जुन सिंह ने मुंह खोल दिया तो लेने के देने पड जाएंगे। अर्जुन सिंह उस वक्त मुख्यमंत्री थे, और कांग्रेस ने उन्हें उमर के इस पडाव में बहुत लज्जित किया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रणव मुखर्जी का यह बयान हास्यास्पद ही कहा जाएगा कि 15 हजार लोगों को मौत के मुंह में भेजने और लाखों को बीमार बनाने के लिए जिम्मेदार वारेन एंडरसन को भोपाल की बिगडती कानून और व्यवस्था की स्थिति के मद्देनजर भोपाल से बाहर भेजा गया था। प्रणव मुखर्जी इस बात पर मौन हैं कि एक अभियुक्त को भोपाल के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी खुद ही सारथी बनकर तत्कालीन जिला दण्डाधिकारी मोती सिंह के साथ बिठाकर हवाई अड्डे क्यों ले गए, एंडरसन को सरकारी विमान किस हैसियत से मुहैया करवाया गया। क्या वह व्हीव्हीआईपी था, नहीं तो किसके इशारे पर यह सब हुआ, क्या पंद्रह हजार से अधिक मौतों का मुआवजा कांग्रेस और भाजपा के जनसेवकों ने चुपचाप लेकर अपनी नैतिकता को बेच दिया!
अव्वल तो उस वक्त अफरातफरी के माहौल में कानून और व्यवस्था की एसी कोई मारामारी नहीं थी, चलिए एक बार मान भी लिया जाए कि कानून व्यवस्था की स्थिति के मद्देनजर एसा किया गया था, पर क्या प्रणव मुखर्जी इस बात पर प्रकाश डालेंगे कि उसे भोपाल से बाहर भेजा गया था तो वह फिर भारत के बाहर कैसे चला गया! क्या भोपाल गैस कांड के चलते देश में कानून व्यवस्था बिगडने का डर था जो वारेन एंडरसन को देश के बाहर भिजवा दिया गया। अरे प्रणव दा को कौन समझाए कि देश का आम नागरिक समझदार है और उसके मानस पटल पर न जाने कितने प्रश्न घुमडते ही रहते हैं। लगता है प्रणव मुखर्जी जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं हैं। एक मामूली से एक्सीडेंट करने पर आरोपी को पुलिस आदमी से गधा बना देती है, उसका तेल निकाल देती है, यहां जाओ, वहां जाओ, यह करो, जमानत दार लाओ, कागज लाओ, कार्बन लाओ, पेन लाओ, चाय पिलाओ, वगैरा वगैरा, फिर हजारों मौतों के जिम्मेदार और लाखों को बीमार करने वाले दोषी एंडरसन को मध्य प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ''राजकीय अतिथि'' जैसा सुलूक क्यों किया! ये सारे यक्ष प्रश्न आज भी निरूत्तर ही हैं।
सोनिया गांधी भले ही कांग्रेस की सर्वशक्तिमान नेता बन चुकीं हों, किन्तु उनके इर्द गिर्द बिना रीढ के लोग ही कब्जा जमाए बैठे हैं। यही कारण है कि कांग्रेस का ग्राफ दिनोंदिन नीचे आता जा रहा है। कांग्रेस ने 1984 गैस कांड के उपरंात इससे अपना पल्ला झााडने की कोशिश की। आजादी के उपरांत जनसेवकों में नेतिकता की कमी निरंतर बढती ही गई, आवाम ने इसको महसूस भी किया है। सत्ता पक्ष तो रीढ विहीन ही हो गया है, वस्तुतः 1984 में भी वही हुआ। सत्ता पक्ष खामोश रहकर अपने बचाव के ताने बाने बुनता रहा, किन्तु सबसे अधिक आश्चर्य तो विपक्ष पर है, आखिर विपक्ष की क्या मजबूरी थी कि वह सालों साल खामोश रहा। क्या यह माना जाए कि विपक्ष ने भी 15 हजार लोगों की मौत का सौदा यूनियन कार्बाईड से कर लिया! और तो और अटल बिहारी बाजपेयी सरकार में यूनियन कार्बाईड के हिन्दुस्तान के प्रमुख रहे केशुब महिंद्रा को पुरूस्कार से नवाजा। अब जनता ही कर सकती है भले बुरे का फैसला।
मृत्यु शैया पर पडे मीडिया के हाथ पांव में हरकत से कुछ उम्मीदें जगी हैं। भोपाल गैस कांड मामले में समूचा देश मीडिया की वाहवाही करते नहीं थक रहा है। हम यह कहना चाहते हैं कि जब देश का हर नागरिक आपके साथ है तो फिर देर किस बात की। अब मौका आ गया है कि कांग्रेस भाजपा और अन्य दलों के जनसेवकों के चेहरों से नकाब नोचकर फंेका जाए। अपने निहित स्वार्थों को तिलांजली देकर अब हम सब भारतीय एक हो जाएं और जनता को इन जनसेवकों की हकीकत से रूबरू करवाएं, कि पिछले 26 सालों में चुने हुए और गैर चुने हुए नुमाईंदों ने भोपाल गैस कांड के तंदूर पर क्या क्या नहीं सेंका, उन्हें उनकी मनचाही मुराद मिली होगी, पर नहीं मिल सका तो पीडितों को न्याय। अगर मीडिया ने यह कर दिखाया तो यह निश्चित तौर पर भोपाल गैस कांड में मारे गए सभी निर्दोष लोगों के प्रति सच्ची श्रृद्धांजली होगी, और तब देश का हर नागरिक यही कहते मिलेगा -''मीडिया, वी मस्ट सैल्यूट यू।''
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