(सुनील)
चल ऐ मन इस शहर से दूर चल
थक चुका है तन इस शहर से दूर चल
क्या कहें, किसको कहें, कैसे करें दर्द बयां
महंगाई ने इस कदर मारा है मुझको
अब तो रोटी का भी हमसे नाता टूट चुका है
बड़े अरमां से आये थे इस इस शहर में
छोटा सा अशियाँ बनाने को
मगर गिरवी रख चुका हूँ, तन एक रोटी पाने को
बीवी का मुरझाया चेहरा,
बच्चों की तरसती आँखे
न कोई उमंग, न कोई तरंग
घूम रहे हैं इस शहर में नंग धडंग
कचोटता है मुझको मेरा मन
परिवार की हालत देखकर
खोजता हूँ हर कोने में
खाने को अन्न
कब तक चलेगा महंगाई का ये खेल
जीवन जीना हो गया मुश्किल
हे इश्वर कहाँ हो तुम
अब तो बस तेरा ही सहारा है
हे, ईश्वर कहाँ हो तुम
Posted on by सुनील वाणी in
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wo bhi ab kahan sunta hai kisi ki...bahut sundar rachna..maarmik
जवाब देंहटाएंमार्मिक और बढिया रचना....
जवाब देंहटाएंमेरा शनि अमावस्या पर लेख जरुर पढे।आप की प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा ....आभार
http://ruma-power.blogspot.com/
बहुत मर्मस्पर्शी रचना !
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी मार्मिक रचना ...!!
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक चित्रण..
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