मुफ्त के आदी हो चुके जनसेवक

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    (लिमटी खरे)

    देश को नीति अनीति का मार्ग दिखाने वाले जनसेवकों के मुंह में बत्तीसी के बजाए तेंतीसी है, अर्थात उनकी एक और दाढ है, और वह है हराम दाढ। इस तरह की बात अस्सी के दशक के उपरांत लोगों के बीच होती आई हैं। लोगों का कहना है कि इस दाढ के माध्यम से जनसेवकों का प्रयास होता है कि उन्हें अपने कार्यकाल या सेवानिवृति के उपरांत भी वे हर चीज का लाभ एकदम निशुल्क उठाएं एसा उनका प्रयास होता है। चूंकि नियम कायदे कानून उन्हें ही बनाने होते हैं तो वे अपने फायदे के सौदे के वक्त जबर्दस्त एका का प्रदर्शन करते हैं। भारत गणराज्य का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी सांसद विधायकों के वेतन और सुविधाओं के बढने की बात आई है, जनसेवकों ने सदन में मेजे थपथपाकर इसका स्वागत किया है। किसी ने भी खाली खजाने का हवाला देकर इसका विरोध नहीं किया है। कोई करे भी क्यों, उनका फायदा इस सबमें है, इसलिए वे जनता जनार्दन का ख्याल रखने के बजाए अपनी झोली भरने में ही दिलचस्पी रखते हैं।

    जनसेवकों की मुफ्त में पाने की चाहत इस कदर बुलंद है कि उन्हें आवाम की तकलीफों से कोई लेना देना भी नहीं है। यही कारण है कि आलीशान सर्व सुविधायुक्त सरकारी आवास, बिजली, दूरभाष, परिवार के साथ मुफ्त हवाई और रेल यात्रा के बाद भी उन्हें संतोष नहीं है। राज्य सभा, लोकसभा के सदस्य, विधायक, विधानपरिषद के सदस्यों ने अब राजमार्ग पर बिना किसी शुल्क, टोल के दिए हुए समूचे देश की सडकों पर अपने वाहन दौडा सकेंगे।

    केंद्रीय राजमार्ग मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि अब सांसद, विधायक, केंद्र और राज्य सरकार के वाहन, वीरता पुरूस्कार से नवाजे गए लोगों के वाहन राजमार्गों पर बिना शुल्क चुकाए अपना वाहन दौडा सकेंगे। वर्तमान में विधायकों को उनके सूबे में ही इस तरह की सुविधा मुहैया है। 2008 की टोल नीति में विधायकों को इस सुविधा से महरूम कर दिया गया था, जिसमें भारत के प्रधान न्यायधीश, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों तक को इस सुविधा का लाभ नहीं दिया गया था। अब यह सुविधा एक बार फिर बहाल कर दी गई है। भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की उपस्थिति में यह फैसला लिया गया हैै। तीनों ने इस बार मीडिया को इससे मुक्त रखने की जहमत नहीं उठाई है, सो मीडिया के कार्पोरेट घरानों द्वारा इसका विरोध किया जाना लाजिमी है।

    अब नेताजी को टोल से छूट मिल गई है, जाहिर है कि उनके काफिले में चलने वाले नेहले देहले भी इस सुविधा का लाभ उठाने के लिए अपने आका जनसेवकों पर दवाब बनाएंगे। एक बार फिर मंथन होगा और संभव है कि आने वाले समय में जनसेवकों के काफिले में शामिल कुछ निर्धारित वाहनों को इससे मुक्त रखने का फैसला ले लिया जाए। इनके वाहनों से जो राजस्व नहीं वसूला जाएगा, उस राजस्व हानि को सरकार द्वारा आम जनता की जेब पर डाका डालकर ही वसूला जाएगा।

    अमूमन हर बार जनसेवकों को मिलने वाले वेतन, भत्ते, सुख सुविधाओं पर उंगलियां उठती ही रही हैं। आवाम की तरफ से मुंह मोडे जनसेवकों को मिलने वाली अनगिनत छूट में एक और सुविधा का इजाफा करना देश की रियाया के साथ अन्याय ही माना जा सकता है। आम सामान्य लोगों की तुलना में सरकारी खजाने से सौ गुना ज्यादा लाभ उठाने वाले इन जनसेवकों सडक विकास की मद में विकास के मकसद से वसूले जाने वाले टोल से छूट देना किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता है। सडक परिवहन मंत्री कमल नाथ जानते होंगे कि अगर उन्होंने जनसेवकों को इस तरह की छूट प्रदान की है तो इससे टोल के जरिए वसूले जाने वाले राजस्व में दस फीसदी की कमी दर्ज हो सकती है।

    आसमान छूती सुरसा के मुंह की तरह बढती मंहगाई में आम जनता किस तरह दो वक्त की रोटी जुटा पा रही है, इस बात से किसी भी जनसेवक को कुछ लेना देना नहीं है। कहने को खाली सरकारी खजाने और वैश्विक आर्थिक मंदी का कथित तौर पर प्रलाप कर तमाम तरह की कटौतियों को आम जनता पर ही लादा जा रहा है। इस कटौती का जनसेवकों की मोटी खाल पर कोई असर परिलक्षित नहीं हो रहा है। जनसेवकों का इस दौर में भी मंहगे कपडे पहनना, विलासितापूर्ण जीवन जीना, आलीशान बंग्लों में सरकार के खजाने से करोडों रूपए फूंकना, तीन या पांच सितारा होटलों में रात गुजारना, मंहगी सरकारी दावतें देना, विदेश यात्राएं आदि का क्रम अनवरत ही जारी है। सांसदों का सरकार पर दवाब बना हुआ है कि उनके वेतन और भत्तों में बढोत्तरी की जाए।

    सरकार का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखने वाली कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह के साथ ही साथ कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी मितव्ययता बरतने का प्रहसन कर चुके हैं, बावजूद इसके अगर केंद्र सरकार का भूतल परिवहन मंत्रालय इस तरह का कदम उठाता है तो कहना ही पडेगा कि बीसवीं सदी में नेतृत्व की परवाह किसी को भी नहीं है। जिस तरह उपनिवेशवाद में आवाम और शासकों के बीच एक खाई हुआ करती थी, उसी की एक बानगी माना जा सकता है भूतल परिवहन मंत्रालय का यह फैसला, इस फैसले से शासक और रियाया के बीच खुदी खाई तेजी से बढने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

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    1 टिप्पणी:

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