मित्रों आइये आज वीरेंद्र हमदम की ग़ज़ल सुनते हैं. ये ग़ज़ल साहित्य की मशहूर पत्रिका अभिनव कदम में साया हो चुकी है ---
कब किसी को तल्खियाँ अच्छी लगीं
भूख थी तो रोटियां अच्छी लगीं
जल उठे मेरी मशक्कत के चिराग
पत्थरों की सख्तियाँ अच्छी लगीं
क्यों रहें कमजोर पत्ते शाख पर
पेड़ को भी आंधियां अच्छी लगीं
अपने फन का इक नमूना ताज है
हमको अपनी उंगलियाँ अच्छी लगीं
कुछ नयी राहें भी निकलीं इस तरह
राह की दुश्वारियां अच्छी लगीं
मैं जरा सा भी नहीं भाया उसे
हाँ मेरी मजबूरियां अच्छी लगीं
कुछ तरस भी आ रहा था वक्त को
कुछ हमारी नेकियाँ अच्छी लगीं
कैद करके कांच की दीवार में
कह रहा था मछलियाँ अच्छी लगीं.
वीरेंद्र हमदम की ग़ज़ल
Posted on by Subhash Rai in
Labels:
kavita
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
बहुत अच्छी है..
जवाब देंहटाएंशानदार गजल के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएं