कहां है सुरक्षित मातृत्व .......?

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  • गुड्डा गुडिया
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  • 11 अप्रैल - सुरक्षित मातृत्व दिवस पर विशेष

    प्रशान्त कुमार दुबे

    मध्‍यप्रदेश की 56 प्रतिशत महिलायें खून की कमी का शिकार हैं और उनमें से भी 74 प्रतिशत आदिवासी महिलायें हैं। विगत पांच सालों में हमने 30,000 से अधिक महिलाओं को खोया है।प्रदेश में 60 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं।महिला और बच्चों के इतने गंभीर स्वास्थ्य संकेतांकों के बाद भी प्रदेश की अपनी कोई स्वास्थ्य नीति नहीं है ।बाजार के दवाब को सरकार तवज्जो देती है, नतीजतन दवा नीति बना देती है । बाबा रामदेव के सानिध्य में योग नीति भी बन जाती है लेकिन आम आदमी का जो ध्यान रखे वैसी स्वास्थ्य नीति की जरुरत शायद सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं है।सुरक्षित मातृत्व के लिये सरकार मृगमरीचिका की तरह नित नई योजनाओं के ख्याली पुलाव तो परोस रही है, लेकिन ठोस व समन्वित प्रयासों का अभाव हर स्तर पर दिखता है।

    रकार ने जननी सहयोग योजना के लिये निजी अस्पतालों को अभिप्रमाणित करने हेतु न्यूनतम 11 सुविधाओं की अनिवार्यता कही, जिसमें प्रमुख है प्रसव कक्ष, आपरेन कक्ष, र्चोबीस घंटे स्‍वच्छ पेयजल, 20-30 बिछौने, 24 घंटे टेलीफोन सुविधा, एम्बुलैंस, इन्वर्टर, जेनरेटर आदि। आवश्‍यकताओं की सूची अभी कमती नहीं दिखती क्योंकि वहां पर एक स्त्री रोग विशेषज्ञ , बालरोग और निश्‍चेतना विशेषज्ञ अनिवार्य रुप से होने चाहिये। इस बात को ध्यान में रखा जाये तो लगता है कि सरकार वास्तव में सुरक्षित प्रसव को लेकर चिंतित है। लेकिन यहां से एक पूरक सवाल भी जन्म लेता है कि यदि सुरक्षित प्रसव के लिये यह अनिवार्य मापदंड़ है तो फिर यह सरकारी स्वास्थ्य संरचनाओं के संबंध में प्रासंगिक क्यों नहीं ?

    अभी हाल ही में प्रदेश में संस्थागत प्रसव का प्रतिशत बढ़कर 79 प्रतिशत हो गया और चारों और यह डंका बजने लगा है कि सुरक्षित मातृत्व का ख्वाब पूरा हो रहा है। लेकिन सुरक्षित मातृत्व के मायने क्या केवल सरकारी अस्‍पताल में प्रसव होना ही है या इसके इतर कुछ व्यापक बात भी इसमें छिपी है। सरुक्षित मातृत्व से आय है कि गर्भावस्था के दौरान विशेष ध्यान एवं प्रसव पूर्व देखभाल और परामर्श, मातृत्व के लिये पौष्टिक आहार, सुरक्षित प्रसव के लिये आवश्‍यक संरचनात्मक सहायता, बच्चे के जन्म से पूर्व सावधानियां, प्रसव के 42 दिन बाद तक की स्थितियों पर निगरानी आदि ।

    अब जरा मध्यप्रदेश की इस संदर्भ में पड़ताल करें तो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के तृतीय चक्र के आंकड़ों के हवाले से हम पाते हैं कि प्रदेश में 56 प्रतित महिलायें खून की कमी का शिकार हैं जिनमें से 74 प्रतिशत आदिवासी महिलायें हैं । नमूना सर्वे की मानें तो मध्यप्रदेश में केवल 40.7 फीसदी महिलाओं की ही प्रसव पूर्ण जांच हो पाती है। गर्भवती महिलाओं के डॉक्टरों द्वारा प्रसवपूर्ण देखभाल के मामले में उत्तरप्रदेश (22.5 प्रतिशत ) तथा बिहार (29.1 प्रतिशत ) के बाद मध्यप्रदेश (32.6 प्रतिशत ) नीचे से तीसरे नंबर पर आता है। प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्र की केवल 12.7 प्रतिशत महिलाओं के प्रसव ही किसी डॉक्टर की निगरानी या देखभाल में कराये जाते हैं। यू ंतो मध्यप्रदेश सरकार यह दावा कर रही है कि वह प्रदेश में 79 फीसदी संस्थागत प्रसव कराने में सफल हुई है लेकिन कड़वी सच्चाई यही है कि आज भी महज 8 फीसदी महिलायें ही अपने शिशुओं को विभिन्न सुविधाओं से लैस स्वास्थ्य केन्द्रों में जन्म देती हैं। सभी तरह की प्रसवपूर्ण देखभाल हासिल करने वाली महिलाओं में मध्यप्रदेश (7.2 प्रतिशत ) नीचे से पांचवें स्थान पर है। प्रदेश में निम्न वर्ग की 63 प्रतिषत् महिलाओं द्वारा आंगनवाड़ी केन्द्र की कोई भी सेवा का लाभ नहीं मिल पा रहा है।

    यह हैरतअंगेज ही है कि प्राकृतिक तौर पर महिलाओं की जीवन प्रत्याशा पुरुशों की तुलना में ज्यादा रही है लेकिन प्रदेश में इसके ठीक उलट है।प्रदेश में मातृत्व मृत्यु अनुपात 301 है और प्रदेश सबसे प्रभावित 6 राज्यों की सूची में है। प्रतिवर्ष प्रदेश में 5500 महिलायें प्रसव के दौरान उत्पन्न जटिलताओं से दम तोड़ देती हैं। संस्थागत प्रसव के लिये आवश्‍यक है कि वहां आवश्‍यक संख्या में उपलब्ध हों, लेकिन मध्यप्रदेश के सरकारी अस्पतालों में केवल 26,000 बेड ही उपलब्ध हैं और जिनमें से ग्रामीण क्षेत्र में 9300 बेड ही उपलब्ध हैं। इसका सीधा सा गणित यह है कि प्रति 6 गांवों के बीच में एक बेड उपलब्ध है, प्रति व्यक्ति उपलब्धता की बात करना बेमानी है।

    माननीय उच्चतम न्यायालय ने सुरक्षित मातृत्व के संबंध में अपने नवीनतम आदेश में कहा कि सरकार की जिम्मेदारी है कि वह घरों में होने वाले प्रसव के लिये भी पोषण राशि मुहैया कराये।ज्ञात हो कि पहले इस योजना को राष्ट्रीय मातृत्व सहायता योजना कहा जाता रहा है, जिसे न्‍यायालय के आदे के बाद जननी सुरक्षा योजना के एक अलग वर्ग के रुप में सम्मिलित किया गया। चूंकि सरकार को संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देना था तो सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया नतीजतन 1 प्रतिशत से भी कम महिलाओं को इस योजना के तहत लाभ दिया गया।

    राज्य का सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा भी कतई संतोजनक नहीं है । मानव विकास प्रतिवेदन 2007 के अनुसार प्रदेश में 26 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों का अभाव है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र इस स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ माने जाते हैं। यही नहीं प्रदेश में लगभग 898 उपस्वास्थ्य केन्द्र, 58 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की भी कमी है। मानव संसाधन के रुप में देखें तो 867 विशेषज्ञों की और 1669 स्वास्थ्य अधिकारियों की कमी है। जमीनी अमले को देखें तो 498 एएनएम और पुरुष स्वास्थ्य रक्षक के 298 पद रिक्त हैं । सरकार एक तो ना ही रिक्‍त पदो को भर रही है दूसरी ओर उसने समाज की कोख से उपजी दाई जैसी संरचनाओं को खत्म करने का काम किया है। ज्ञात हो कि प्रदेश के 52 हजार गांवों में 56 हजार दाईयां तैनात हैं । सरकार संस्थागत प्रसव कराकर तो अपनी पीठ ठोंकना चाहती है लेकिन वह यह जनता से छिपाना भी चाहती है कि उसने 1997 से एक भी नया पलंग सरकार ने सरकारी अस्पतालों के लिये नहीं खरीदा है । सरकार यह भी नहीं बताती कि स्त्री रोग विशेषज्ञों के 37 पद रिक्त हैं और जो भरे हुये हैं, उनमें से 70 फीसदी राजधानी के पास के 7 जिलों में पदस्थ हैं । जब यह स्थिति रहेगी तो फिर सवाल उपजता है कि कहां है सुरक्षित मातृत्व ा

    सरकार की मंशा इस बात से भी साफ झलकती है कि महिला और बच्चों के इतने गंभीर स्वास्थ्य संकेतांकों के बाद भी प्रदेश की अपनी कोई स्वास्थ्य नीति नहीं है । वर्ष 2002 में डेनमार्क की संस्था डेनिड़ा द्वारा स्वास्थ्य नीति का प्रारुप बनाया गया, सरकार ने भी इसे जस का तस माना ओर आज भी यह अपनी प्रारुपावस्था में ही है। हां बच्चों की मौतों के नहीं लेकिन बाजार के दवाब को सरकार बखूबी ध्यान देती है, नतीजतन सरकार दवा नीति तो बना देती है । बाबा रामदेव के सानिध्य में योग नीति भी बन जाती है लेकिन आम आदमी का जो ध्यान रखे वैसी स्वास्थ्य नीति की जरुरत शायद सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं है। सरकार सुरक्षित मातृत्व का ख्वाब तो देखना चाहती ह्रे लेकिन उसे हकीकत में बदलने के लिये उसके पास कोई भी ठोस योजना नहीं है। सरकार मृगमरीचिका की तरह नित नई योजनाओं के ख्याली पुलाव तो परोस रही है, लेकिन ठोस व समन्वित प्रयासों का अभाव हर स्तर पर दिखता है ।और यह भी तय है कि जब तक सरकार आज से बच्चों व महिलाओं के स्वास्थ्य पर बात नहीं करेगी, प्रदेश का कल भी खराब होने वाला है।

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