अब और मूर्ख तो नहीं बनायेगी ना सरकार.....?

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  • गुड्डा गुडिया
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  • ‘’मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून’’ लागू होने पर विशेष

    सर, इस कानून में नया क्या होगा ! स्वतंत्र भारत में संविधान बनाते समय तो प्रत्येक बच्चे को वचन दिया गया था कि दस वर्ष के भीतर सारे बच्चे शिक्षित होंगे। लेकिन आजाद हुये भी 6 दशक बीत गये ! सर्व शिक्षा अभियान के समय भी तो सरकार ने यही सब वायदे किये थे, लेकिन मेरे पड़ोस में रहने वाली कल्ली तो अभी भी पन्नी बीनने जाती है। सर, समझ में यह भी नहीं आता कि सरकार जब राष्ट्रमण्डल खेलों पर 1 लाख करोड़ रूपये का व्यय करने को आतुर है तो फिर उसकी यह तत्परता शिक्षा के लिये क्यूं नहीं दिखती ! उस मासूम के एक और सवाल ने सबको चौंका दिया कि सर 1 अप्रैल को कानून लागू होने जा रहा है और इस दिन मूर्ख दिवस है। क्या सरकार इस बार भी हमें मूर्ख तो नहीं बनायेगी। कल्ली पढ़ तो पायेगी ना सर !

    भोपाल में बचपन परियोजना द्वारा आयोजित एक बाल चौपाल में ''शिक्षा का अधिकार '' विषय पर विमर्श के दौरान अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा का कानून लागू होने की बात करने पर आकाश ने बड़ी ही मासूमियत से सवाल किया कि क्या सचमुच में हमें शिक्षा का अधिकार मिलेगा? मंच पर उपस्थित पैनल के सदस्यों ने उसे 1 अप्रैल से लागू होने वाले मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून की बात की, उसने फिर सवाल किया कि हाँ वो तो मालूम है, लेकिन सर्व शिक्षा अभियान के समय भी तो सरकार ने यही सब वायदे किये थे, लेकिन मेरे पड़ोस में रहने वाली कल्ली तो अभी भी पन्नी बीनने जाती है। इस बार भी पैनल ने आकाश को दिलासा दी कि अब सभी को शिक्षा मिलेगी। लेकिन जो सवाल आकाश का है वह आज सभी का सवाल है कि क्या वाकई सभी को शिक्षा मिल पायेगी?


    आकाश की चिंता को केन्द्र में रखकर यदि इतिहास को खंगालें तो गोपालकृष्ण गोखले ने 1915 में, महात्मा गांधी ने 1931 में और भगत सिंह ने भी आम शिक्षा पर जोर दिया था। माना तब भारत स्वतंत्र नहीं था लेकिन स्वतंत्र भारत में संविधान बनाते समय हमने प्रत्येक बच्चे को वचन दिया था कि दस वर्ष के भीतर सारे बच्चे शिक्षित होंगे। लेकिन अभी तक तो आजाद हुये भी 6 दशक बीत गये! और नतीजा वही । ज़रा और आगे बढें तो 1989 में संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता हुआ, भारत ने 1992 में इसका अनुमोदन किया। इस समझौते के अनुच्छेद 28 व 29 में भी अनिवार्य शिक्षा की बात कही गई है। 1986 का बालश्रम अधिनियम भी शिक्षा की बात करता है । 1993 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण (उन्नीकृष्णन) फैसले में संविधान के अनुच्छेद 45 में निर्देशित 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया था। इस फैसले के चलते ही 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को पूर्व प्राथमिक शिक्षा का अधिकार मिला। दरअसल यह तो शिक्षा के अधिकार के इस नये कानून की पृष्ठभूमि है । इस कानून की पृष्ठभूमि में या शिक्षा को बाजारवाद की जद में ले जाने और बाजारु करने हेतु 'सबको शिक्षा' पर एक विश्‍वव्‍यापी सम्मेलन 1990 में थाईलैण्ड़ के जामेतियन में हुआ था। शिक्षा के अधिकार के इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को समझने के बाद भी आकाश का सवाल तो जस का तस है ।

    अब यदि कुछ समय के लिये यह मान भी लें कि सरकार संसद में बहुत बेहतर कानून लाई है तो क्या यह नया कानून आकाश की चिंता को हल कर देगा, जवाब है नहीं! बल्कि यह कानून तो चिंता को और बढ़ाने वाला है। दरअसल में इस कानून में केवल 6 से 14 आयुवर्ग तक के बच्चों को ही शिक्षा की बात कही है तो फिर उन्नीकृष्णन फैसले का क्या होगा? उन्नीकृष्णन फैसले से 6 वर्ष तक की उम्र के प्रत्येक बच्चे को संतुलित पोषणाहार, स्वास्थ्य देखभाल और पूर्व प्राथमिक शिक्षा का अधिकार दिया था। तो यूं कहें कि वर्तमान कानून देश के 6 वर्ष तक के 17 करोड़ बच्चों को शिक्षा से दूर रखेगा। यह तब है कि जबकि यह सिध्द हो चुका हैं कि 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का 80 प्रतिशत मानसिक विकास इसी उम्र में होता है।

    वहीं बात 14 वर्ष से 18 वर्ष तक के बच्चों की करें तो यह कानून उन्हें भी ठेंगा दिखाता है। वह इसलिये क्योंकि भारत जेसे देश में अभी तक बच्चों की परिभाषा पर एक राय नहीं है। सरकार जब संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते जैसी किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर करती है तो वह 18 वर्ष तक के व्यक्ति को बच्चा मानती है । लेकिन बालश्रम कानून में 14 वर्ष तक की उम्र वालों को बच्चा मानती है। किशोर न्याय अधिनियम 18 वर्ष तक के व्यक्ति को बच्चा मानता है। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून भी 14 वर्ष तक के व्यक्तियों को इसके दायरे में लाता है तो फिर सवाल जस का तस है कि 15 वर्ष से 18 वर्ष के बच्चों का क्या होगा? जबकि यह एक बड़ी जनसंख्या है।

    बाल चौपाल में ही एक अन्य बच्ची ने यह कहा कि हमारे साथ स्कूलों में इसलिये भेदभाव किया जाता है क्योंकि हम दलित हैं। मंदसौर से आई बांछड़ा समुदाय की बच्ची कहती है कि हमसे स्कूल में शिक्षक और बच्चे दोनों की दूर रहने का प्रयास करते हैं। इन बच्चियों के इन सवालों का कानून में कोई जवाब नहीं है, क्योंकि यह कानून एक अलग तरह का भेदभाव करता है। निजी स्कूल बनाम् सरकारी स्कूल। सरकारी स्कूल के बच्चों को तो मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा मिलेगी लेकिन निजी स्कूल के बच्चे इससे वंचित रह जायेंगे। निजी स्कूल के बच्चो में वे बच्चे भी हैं जो 25 फीसदी कोटे का लाभ पाने वाले बच्चे हैं। कोठारी आयोग पहले ही कह चुका है कि ''यह शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है कि विभिन्न सामाजिक तबकों और समूहों को इकट्ठा लाए और इस प्रकार एक समतामूलक एवं एकजुट समाज के विकसित होने को प्रोत्साहित करे। लेकिन वर्तंमान में ऐसा करने के बजाय शिक्षा स्वयं ही सामाजिक भेदभाव और वर्गों के बीच के फासले को बढ़ा रही है। ......... यह स्थिति गैर-लोकतांत्रिक है और समतामूलक समाज के आदर्श से मेल नहीं खाती है।''

    महत्वपूर्ण यह भी है कि किसी भी कानून के लागू होने के समय कम से कम सात वर्षों तक का बजटीय अनुमान व नियोजन किया जाता है लेकिन इस पारित बिल में इसका जिक्र ही नहीं है। हालांकि कोठारी आयोग तो बहुत पहले ही यह सुझाव दे चुका है कि सरकार कुल राष्ट्रीय आय के 6 प्रतिशत की राशि शिक्षा पर खर्च करे, लेकिन यह आज तक नहीं हो पाया। वर्ष 01 में केन्द्र व राज्य सरकारों का शिक्षा खर्च कुल राष्ट्रीय आय का 3.19 प्रतिशत था और यह बढ़ने की अपेक्षा 07 में घटकर 2.84 प्रतिशत रह गया। विश्‍व के स्तर पर भारत राष्ट्रीय आय में से शिक्षा पर खर्च करने वाले देषों में 115 वें नंबर पर है। सवाल फिर वही कि सरकार जब राष्ट्रमण्डल खेलों पर 1 लाख रूपये का व्यय करने को आतुर है, रक्षा के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाने को तैयार है तो फिर यह तत्परता शिक्षा के लिये क्यूं नहीं दिखती। मध्यप्रदेश सरकार ने तो कानून लागू होने के पहले ही 13000 करोड़ रूपये का व्यय होने की चिंता करते हुये केन्द्र सरकार से मदद के लिए हाथ फैलाने की बात कही है । यानी अब बच्चों की शिक्षा के बजट के लिये केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे पर दोषारोपण करती रहेंगी, राजनीति का एक नया अखाड़ा खुल जायेगा और बच्चे पढ़ नहीं पायेंगे।

    ऐसा नहीं कि इस कानून में सब कुछ खराब ही है, कुछ अच्छे व महत्वपूर्ण प्रावधान भी हैं लेकिन बेहतर नियम व स्पष्टता के अभाव में इनका परिणाम सामने नहीं आ पायेगा जैसे कि इस कानून की धारा 3 में विकलांग बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाये जाने की बात तो कर दी लेकिन क्या ब्रेल लिपि की पढ़ाई हर एक स्कूल में उन बच्चों के लिए होगी? अब कोई भी बच्चा 8वीं के पहले तक फेल नहीं होगा बल्कि उसका मूल्यांकन किया जायेगा। यानी शिक्षा की गुणवत्ता का क्या होगा ? ऐसे ही केवल कुछ कामों को छोड़कर शिक्षकों की गैर शिक्षकीय कार्यों में डयूटी लगाने की मनाही को पूर्ण प्रतिबंध की बात इस कानून में कही गई है, लेकिन इस केवल कुछ को समझना होगा । यह केवल कुछ यानी सभी तरह के चुनाव, जनगणना और आपदा राहत तो सवाल यह कि फिर बचता क्या है !! छात्र शिक्षक अनुपात नि:शुल्क शिक्षा, आदि एसे कई प्रावधान हैं जो संशय पैदा करते हैं।

    आकाश के एक और सवाल ने सबको चौंका दिया कि सर 1 अप्रैल को अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा का कानून लागू होने जा रहा है और इस दिन मूर्ख दिवस है। क्या सरकार इस बार भी हमें मूर्ख तो नहीं बनायेगी। कल्ली पढ़ तो पायेगी ना सर ! आकाश तो पैनल सदस्यों की दिलासा पर शांत हो जाता है, लेकिन सवाल जस का तस है, कि क्या हमें फिर मूर्ख बना दिया गया है।

    you can also find this on www.atmadarpan.blogspot.com

    Posted by प्रशांत दुबे at Friday, April 02, 2010

    1 टिप्पणी:

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