-डॉ० डंडा लखनवी
कर रहे थे मौज - मस्ती जो वतन को लूट के।
रख दिया कुछ नौजवानों ने उन्हें कल कूट के।।
सिर छिपाने की जगह सच्चाई को मिलती नहीं,
सैकडों शार्गिद पीछे चल रहे हैं झूट के।।
तोंद का आकार उनका और भी बढता गया,
एक दल से दूसरे में जब गए वे टूट के।।
मंत्रिमंडल से उन्हें किक जब पड़ी ऐसा लगा-
गगन से भू पर गिरे ज्यों बिना पैरासूट के।।
शाम से चैनल उसे हीरो बनाने पे तुले,
कल सुबह आया जमानत पे जो वापस छूट के।।
फूट के कारण गुलामी देश ये ढ़ोता रहा-
तुम भी लेलो कुछ मजा अब कालेजों से फूट के।।
अपनी बीवी से झगड़ते अब नहीं वो भूल के-
फाइटिंग में गिर गए कुछ दाँत जबसे टूट के।।
फोन पे निपटाई शादी फोन पे ही हनीमून,
इस क़दर रहते बिज़ी नेटवर्क दोनों रूट के॥
यूँ हुआ बरबाद पानी एक दिन वो आएगा-
सैकड़ों रुपए चुकाने पड़ेंगे दो घूट के।।
ग़ज़ल दिल को छू गई।
जवाब देंहटाएंबेहद पसंद आई।
बहुत ही सटीक रचना!
जवाब देंहटाएंआपकी रचना की चर्चा यहाँ भी की गई है-
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_6838.html
बहुत सुन्दर व्यंगात्मक ग़ज़ल है, पर हकीक़त बयानी भी है ! बधाई !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंइसे 17.04.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
behad shandar ghazal hui .... kataksh kuch jagah achhe hain ..kuch jagah shuddh hasya hai ...bahut achha laga padhna
जवाब देंहटाएं