यह जानकारी नुक्कड़ को ई मेल पर अपने एक सम्माननीय पाठक ने प्रेषित की है। आपकी जानकारी में भी ऐसी सूचना आती है तो आप हमें भेज सकते हैं
हिंदी साहित्य में नए नए कवि कुकुरमत्तों की तरह उगते रहते हैं , पर इसमें से कितने सचमुच प्रतिभाशाली हैं और कितने जोड़ तोड़ कर , यहाँ वहाँ से टीप टाप कर दूसरों की रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करवाने वाले , यह तो समय ही तय करेगा . पर कभी कभी सीनाजोरी के अंदाज़ में की जाने वाली चोरी पकड़ में आ जाती है . एक नमूना यहाँ प्रस्तुत है .
नक़ल में अकल की ज़रुरत नहीं होती .
(1)
ढलान पर प्रेम
--- शशिकला राय
कोई ऐसे भी आता है क्या
इस मोड़ पर , इस उम्र में
जबकि कनपटियों पर झिलमिला उठे हों
चांदी के तार
समय कुछ सर्द हो चला हो
देह अनमनी सी हो उठी हो .
क्या अब भी तासीर बाकी है?
कूओं का जल मीठा हो जायेगा
पहाड़ों पर गिरेगी मौसम क़ी सबसे हसीन बर्फ
आँखों की अमराइयाँ अब भी वैसी ही हैं
अछूती गहराइयाँ अब भी वैसी ही हैं
अधरों का कुंवारा कम्पन अब भी वैसा ही है
शायद बुझने से पहले लौ का भभकना
पल में ज़िन्दगी का विस्तार पा लेना
आओ , बुझने से पहले एक बार समूची
संवेदनाओं से हम भभक उठें
कोयल कूकने के मौसम में
झूले पड़ने के इस मौसम में
शायद कोई ऐसे ही आता है
--- हंस : फ़रवरी 2010 ( पृष्ठ – 45)
अब पढ़ें मौलिक कविता जो सन 2005 में लिखी गयी थी --
मनौती
-- मनोज शर्मा
समय मेरी देह पर जब तना था ठंडी कुल्हाड़ी सा
तभी वह कूकी मेरे जीवन में
उसका आना था कि
मेरे कान क़ी लत्तियां लाल हो गयीं
देसी महीने के हिसाब से देखें तो
यह झूले पड़ने का मौसम था
और दुपहरियां कुछ कुछ बेआवाज़ होने लगी थीं
वह आयी
और कूओं का जल एकदम मीठा हो गया
पहाड़ों पर मौसम क़ी सबसे हसीन बर्फ गिरी
कई कई नयी चिड़िया नज़र आयी आकाश में
कबूतरों ने घोसले बनाने शुरू कर दिए
हवा जो भूल गयी थी छेड़ना
फिर नटखट हो ली
n बीता लौटता है -- पृष्ठ – 69 ( मनोज शर्मा का 2005 में प्रकाशित कविता संग्रह )
n मनोज शर्मा की ही एक अन्य कविता का शीर्षक है -- ढलान पर लड़की , इसमें ढलान पर '' लड़का ''(!) है
n मनोज शर्मा की मनौती कविता में झूले पड़ने के इस मौसम में कोई कूकती हुई आती है , इस कविता में कोई कूकता हुआ शायद वैसे ही आता है .
(2)
इससे पहले इन्ही शायरा महोदया की एक कविता नया ज्ञानोदय 2009 में छपी थी -- '' राज ठाकरे के नाम प्रार्थना पत्र ''
इस कविता के बरक्स रखें पंजाबी के प्रतिष्ठित कवि पाश की बहुचर्चित कविता '' धर्मगुरु के नाम विनय पत्र '' और देखें कि कैसे पंक्ति-दर-पंक्ति उस फॉर्मेट में कविता की नक़ल की गयी है .
उस कविता के पहले मुंबई के 17 मार्च 2007 के '' हमारा महानगर'' अखबार में प्रोफ़ेसर संजीव दुबे का एक व्यंग्यात्मक आलेख '' एक पैगाम राज ठाकरे के नाम '' प्रकाशित हुआ था . सो सामग्री इस लेख से और फॉर्मेट पाश से उड़ा लिया गया और तैयार हो गयी कविता .
आश्चर्य की बात यह कि शीर्षक तक देने में मौलिकता नहीं है --
'' ढलान पर लड़की'' को ''ढलान पर प्रेम'' कर दिया जाता है और
'' धर्मगुरु के नाम विनय पत्र '' की जगह '' राज ठाकरे के नाम प्रार्थना पत्र ''
बेहतर हो क़ि मोहतरमा विदेशी कविताओं क़ी नक़ल करें , जो जल्दी पकड़ में न आयें और इनके कवि होने का भरम बना रहे !
यह सरासर ग़लत है पर क्या करें ऐसे लोगों से बचना तो मुश्किल है...अब जब सारी दुनिया के सामने लिख रहें है तो चुराए सब जितना जी चाहे....
जवाब देंहटाएं" साहित्यिक चोरी इसे कहते हैं, पर आप अपनी राय तो बतलाइये" पोस्ट पढ़ी , बड़े ध्यान से पढ़ी.
जवाब देंहटाएंयदि पोस्ट में वाकई सच लिखा गया है तो ये हमारे साहित्यकारों का दुर्भाग्य है , क्योंकि यदि हम में कलमकारी का इल्म ही हासिल नहीं है और अपने आपको साहित्यकार भी साबित करना चाहते हैं, तो इन्हें शर्म आना चाहिए और तौबा कर लेना चाहिए इस विधा से .. या किसी ऐसी विधा और ऐसे दोयम दर्जे वाली संस्था में शामिल हो जाना चाहिए जहाँ नक़ल करने का ही काम होता हो.
अरे भाई दुनिया में ऐसे अनेक काम हैं जहाँ लोग अपने अन्दर की छिपी अन्य प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकते है. ऐसे लोग तालाब की गन्दी मछली जैसे होते हैं जो अन्य साहित्यकारों के ऊपर भी अंगुली उठवाने का रास्ता दिखाते हैं. हम ऐसे लोगों के घोर निंदा करते हैं. हमें ऐसे लोगों का बहिष्कार करना होगा.
- विजय
हे ईश्वर!! क्यों ऐसा करते हैं लोग? यही दिमाग यदि वे नकल करने, उसमें फेरबदल करने की जगह खुद का कुछ लिखने के लिये करें तो बेहतर हो. लेकिन होते हैं कुछ लोग ऐसे भी. अखबार में फीचर पेज़ देखते हुए कई बार मैंने ऐसी रचनाओं को पकडा है जो पूर्व में कई साल पहले कादम्बिनी या पुराने ज्ञानोदय में छप चुकी थीं. मेरे शहर की लब्ध-प्रतिष्ठित कथाकार हैं- सुषमा मुनीन्द्र, उन्होंने एक कहानी संग्रह समीक्षा हेतु मुझे दिया, बाद में इस संग्रह की एक कहानी हंस में प्रकाशित हुई. कुछ महीनों बाद ही मैने वही कहानी लगभग न के बराबर फेरबदल के सरिता में प्रकाशित देखी, किसी और के नाम से. मैने सुषमा जी को जानकारी भी दी. लेकिन उन्होंने क्या करूं अब ऐसे लोगों का, कह के टाल दिया. जबकि ऐसे साहित्यिक चोरों के खिलाफ़ आवाज़ उठानी ज़रूरी है, वरना ये आज दूसरों का चुरा रहे हैं, कल हम लोगों का चुरायेंगे.
जवाब देंहटाएंprabhu inhain kshama karna yeh nahin jante ye kya galat kar rahe hain,
जवाब देंहटाएं"कहाँ गड़बड घोटाला करते हैं।
जवाब देंहटाएंकाम वे कितना आला करते हैं।।
उन्हें मत आप बेअदब कहिए-
बच्चे सबके संभला करते हैं।।"
क्या कहियिएगा -यह ज़माना तो चोर गुरुओं का है !
जवाब देंहटाएंhans jaisi patrika ko kam se kam ensure kar lena chihiye ! jab apne juljar saheb inspire ho sakte hain to inka kya kehna!
जवाब देंहटाएंइन उदाहरणों से यह भी समझ आता है कि पत्रिकाओं के संपादक या उनकी संपादकीय टीम के सदस्य बाकी दुनिया में क्या हो रहा है इस पर नजर नहीं रख रहे हैं या रख पा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंक्या यह वाकई इतना बुरा है जितना बताया जा रहा है?
जवाब देंहटाएंसाक्षरता बढ़ने से पढने और लिखने की प्रवृत्ति बढी है. पढने से अंतर्मन में कुछ रह जाना और वर्षों बाद प्रसंगानुसार जाने-अनजाने रचना में आ जाना स्वाभाविक है. निरल और पन्त में भी इस सन्दर्भ में बहुत कुछ आरोप-प्रत्यारोप हुए थे. निराला ने पन्त पर पाश्चात्य कवियों से भाव ग्रहण करने के उदाहरण दिए और पन्त ने निराला पर संस्कृत और बांगला साहित्य से ग्रहण करने के. आज दोनों की वे ही रचनाएँ हिंदी साहित्य की थाती हैं.
नकल किसे कहें और किसे नहीं? इस के मानक तय करें- यह आवश्यक है. हर रचनाकार जो पढता है उससे प्रभावित होता है. उसे पसंद या नापसंद करता है. किसी रचना में कुछ शब्द या पंक्तियाँ ऐसे हो सकते हैं जो अन्य किसी के मस्तिष्क में भी आये हों और हम उसे नकल कह रहे हों. इस उदाहरण में मैं किसी भी पक्ष से परिचित नहीं हूँ. मेरा अपना अनुभव है. अब तक सहस्त्रों रचनाएँ प्रकाशित होने पर दो बार यह हुआ की मेरी रचना की कुछ पंक्तियों को किसी पाठक ने अन्य से लिया बताया जबकि मैंने उस रचनाकार या रचना को कभी पढ़ा नहीं थान न ही उन्होंने मेरी रचना पढी थी. आशय यह की एक ही विचार और शब्द भिन्न समयों में एकाधिक रचनाकार की कलम से निःसृत हो सकता है.
यहाँ क्या हुआ मुझे नहीं मालूम किन्तु साहित्यिक चोरी की बात कहते समय यह देखा जाये कि कुछ पंक्तियाँ नहीं कम से कम एक तिहाई रचना अन्य से मिलती हो. इब्नबतूता पर कै रचनाकारों ने रचनाएँ की हैं. उन पर आरोप नहीं लगे. गुलज़ार की रचना की प्रसिद्धि और व्यावसायिक उपयोग होने से आरोप लग गया. मेरा आशय साहित्यिक चोरी का पक्ष लेना नहीं है किन्तु आरोप से पहले पुष्टि की आवश्यकता प्रतिपादित करना है. चंदा मामा पर हजारों रचनाएँ है. चंदा को मामा और प्यारा कहने को भी चोरी कहेंगे क्या? यदि नहीं तो इब्नबतूता गीत में मात्र एक पंक्ति के आधार पर गुलज़ार जी पर चोरी का आरोप कितना सार्थक है. सर्वेश्वर जी तथा गुलज़ार जी की रचनाएँ इब्नबतूता को लेकर लिखी गयीं मौलिक रचनाएँ हैं.
सटीक चीज़ लाये है महाशय ...आपको ढेरो साधुवाद ....
जवाब देंहटाएंgalat baat to galat hi hai aur hum sab iska virodh karte hain.
जवाब देंहटाएंअगरचे सच है तो बहुत गल्त है जी
जवाब देंहटाएंएकमात्र दिव्या-नर्मदा जी ने इसके समर्थन में कुछ कहा है और मैं उनके साथ हूँ.
जवाब देंहटाएंदेखिये मैंने पूरा लेख पढ़ा और टिप्पणियां भी, पर मैं नहीं जानता कि यहाँ पर चोरी है या नहीं.
पर एक अलग सा विचार मैं भी रखना चाहूंगा.
बरसों पहले जब मैं १२वी का छात्र था तब पहली बार गुलज़ार के किसी गाने में एक वाक्य था 'मिसरी की डली....' इसने मुझे इतना मुग्ध किया कि मैंने कई दिनों तक हर बात में इस वाक्य का प्रयोग किया, क्या यह चोरी थी ?
एक बार लखनऊ के ही एक स्थानीय कवि की एक कविता 'कब लौटेगी कथा सुनाने वह सिन्दूरी शाम' मुझे बेहद अच्छी लगी थी, इसे पढने के कुछ दिनों बाद मैंने एक कविता लिखी 'फिर लौटेगी कथा सुनाने वह सिन्दूरी शाम' पूरी तरह से प्रेरित कविता थी पर कुछ शब्द एक से होने के बावजूद उनकी कविता के इंतज़ार के भाव को मैंने आशा के उजाले से भर दिया और अपनी कृति पर मुग्ध हुआ. पर न तो मैं कवि हूँ और न चोर, अतः वह कविता कभी यूँ ही कागज़ पर लिखी थी, और यूँ ही फेंक भी दी.
एक सामान्य सा प्राणी हूँ और कविता-प्रेमी भी. :)
अंत में कहना चाहूँगा कि हर कोई कहीं न कहीं से पढ़ कर ही प्रेरणा लेता है. यदि आपने किसी चोरी की घटना की और इंगित करने का प्रयास किया है तो आपकी बात को हल्का करने के लिए क्षमा चाहूंगा. पर कोई भी निर्णय लेने से पहले मेरे विचारों को भी सभी के विचारों के समान ही सम्मान दिया जाए.
केशव कहि न जाए का कहिये !!
जवाब देंहटाएंKya kahun? Fast food kee tarah,jinhen jhatpat lekhak
जवाब देंहटाएंban janekee ichha hoti hai, wo aisehee kaarname karenge!
यहाँ दिए गए उदाहरण साहित्यिक चोरी के नहीं हैं. जो इसे चोरी मान रहे हैं वे अपनी समस्त रचनाएँ देखें तो उनमें प्रयुक्त कई शब्द, प्रतीक, बिम्ब और पंक्तियाँ उनके पहले अन्य रचनाकार द्वारा उपयोग किया जा चुका पाएँगे. यह केवल संयोग है. ऐसे कुछ संयोगों को लेकर डॉ, राजकुमारी 'राज' पर भी यह आरोप लगाया जा चुका है. दूसरों पर उँगली उठानेवाले पहले अपने गिरेबान में झाँकें. मैंने ऐसे प्रकरण भी देखे हैं जहाँ अन्य की रचना को पूरा का पूरा अपने नाम से छपा लिया गया या किसी की रचना का पूरा अनुच्छेद या पद ज्यों का त्यों ले लिया गया इसे साहित्यिक चोरी कह सकते हैं. किन्तु यहाँ जिस उदाहरण को लेकर चोरी का आरोप लगाया जा रहा है, वह मुझे सही नहीं लगता. पिछले ४० वर्षों में कई पत्रिकाओं, स्मारिकाओं व पुस्तकों के संपादन कर्म से जुड़े रहने तथा लेखकीय अनुभव के आधार पर मेरा यह मत है.
जवाब देंहटाएंसलिल जी , माना कि कुछ शब्द , प्रतीक , बिम्ब एक जैसे हो सकते हैं , पर कविता तो चंद
जवाब देंहटाएंशब्दों की ही कारीगरी है --
कुओं का जल मीठा हो जायेगा , पहाड़ों पर गिरेगी मौसम की सबसे हसीन बर्फ
दो पंक्तियाँ एक के बाद एक जैसी चार साल बाद एक कविता में चली आयें , संभव नहीं है
अविनाश जी, मैं तो पढकर हैरत मैं रह गई कि शशिकला जी नक़ल की ' कला' में कितनी पारंगत है... !! शायद अपने नाम के साथ जुड़े ' कला' शब्द को सार्थक करना चाहती होंगी, सो उन्होंने सोचा होशियारी से चोरी करके कवयित्री बन जाऊं. क्योंकि पाठक आजकल इतना पढते ही कहाँ हैं और वह भी २००५ में प्रकाशित मनोज शर्मा के काव्य संग्रह को किसने पढ़ा होगा और पढ़ा भी होगा तो अब तक तो उनकी कवितायेँ किसी को याद भी नहीं होगीं. इसी तरह २००७ का संजीव दुबे जी का लेख किसे याद होगा – पाश को कौन जानता होगा..वगैरा, वगैरा. सो क्यों न इन रचनाओं का ‘’ रचनात्मक सदुपयोग’’ किया जाए .....!!!!!??
जवाब देंहटाएंकमाल है दूसरे की कविता से पंक्तियाँ चोरी करने से पहले एक बार भी इनकी आत्मा ने इन्हें नहीं धिक्कारा ? शशिकला जी, ने मनोज जी की कविता की पंक्तियाँ हेर फेर के साथ ऊपर नीचे चालाकी से अपनी कविता में फिट की हैं. चोरी तो चोरी है, चाहे दो पंक्तियों की हो या दो पेज की, या रूप आकार की, शीर्षक की या समूची सामग्री की. कविता का कलेवर चूंकि छोटा होता है तो उसमें से यदि किसी ने भी एक, दो या तीन मार्मिक पंक्तियाँ भी चुरा ली तो मूल कविता का मानो सारा मर्म ही मानो उड़ा लिया.
इस संदर्भ में दिव्य जी ने लिखा है कि कम से कम एक तिहाई रचना हूबहू दूसरी रचना से मिलती हो तो वह साहित्यिक चोरी कही जाती है. इस सन्दर्भ में मेरा विनम्र निवेदन है कि ‘’कॉपी राईट क़ानून’’ के तहत “१४ – १५ पेजों तक का सामग्री साम्य ” नक़ल नहीं माना जाएगा, इस तरह से – यह क़ानून या नियम देखा जाए तो हमें १४ – १५ पेजों तक, किसी भी रचना की सामग्री को बेखटके, सीना तान कर अपना बनाने की खुली छूट दे रहा है, पर नैतिकता की दृष्टि से देखें और अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुने तो क्या किसी लेखक की जी तोड़ मेहनत से लिखी गई रचना से, १४ -१५ पेज तक की सामग्री की नक़ल कर लेना अनैतिकता नहीं है...? भई, ज़मीर नाम की भी की कोई चीज़ है या नहीं ? कोई भी सच्चा संवेदनशील लेखक ऐसा कार्य कर ही नहीं सकता – भले ही उसे कॉपी राईट क़ानून परोक्ष रूप से एक तिहाई पेजों तक की नक़ल करने की छूट दे, या मूल लेखक (उसके जमीर की परीक्षा लेने के लिए) १४-१५ पेजों तक नक़ल करने की इजाज़त दे, एक संवेदनशील, ईमानदार और सच्चे अर्थों में रचनात्मक लेखक १४ -१५ पेज तो दूर, १४ -१५ पंक्तियों की भी नक़ल नहीं करेगा.
पता नहीं शशिकला जी को अपने इस गलत काम के लिए शर्म महसूस होगी या नही कभी आने वाले समय में, पर मुझे इस साहित्यिक चोरी को देख कर शर्म महसूस हो रही है, साथ ही ' हंस' और ‘नया- ज्ञानोदय ’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं की छवि पर ऐसे अमौलिक व इधर – उधर से रूप आकार, शीर्षक व सामग्री उड़ा कर कविता भेजने वाले कवियों के कारण दाग लगने की संभावनाओं के कारण, उनके भविष्य की चिंता हो रही है. निश्चित रूप से, ऐसे लेखकों से पत्रिकाओं की गरिमामय छवि धूलधूसरित होती है. संपादकों को शशिकला जी जैसी लेखिकाओं से सावधान रहने की ज़रूरत है. ऐसे महान लोग जहाँ-जहाँ कदम रखते है, कचरे का गुबार ही उडाते हैं और वातावरण को दूषित करते हैं. वो कहावत है न - '' जब-जब पाँव पड़े सन्तन के होए बंटाधार'' - यह कहावत शशिकला जी पर सही उतरती है. चोरी के लिए अक्ल तो चाहिए ही - जैसा कि आपने लिखा है - पर ''हिम्मत'' अक्ल से कहीं अधिक चाहिए जिसकी ये धनी नज़र आ रही हैं. खुदा खैर करे. कृपया सभी लेखक सावधान !! अपनी रचनाओं की हिफाज़त अक्ल से करें. खूब लिखें, खूब छपे - पर समय - समय पर चोरो की रचनाओं की जांच-पडताल भी करते रहें कि कहीं चोर जमात में से किसी ने आपकी कीमती पंक्तियाँ, कहानी का पैराग्राफ आदि तो नहीं उड़ा लिया है..! अविनाश जी, हमें चेताने के लिए आपकी जितनी भी सराहना की जाए, कम है. भर्त्सना और गहरे खेद के साथ,
दीप्ति
डॉ . दीप्ति जी ,
जवाब देंहटाएंआपकी जानकारी सही नहीं है . 14-15 पृष्ठों की नक़ल की अनुमति कोई कानून नहीं देता ,
ऐसा होता अगर तो film Writers Association में कवि शायर जा जा कर अपनी चार छः पंक्तियों की ग़ज़लें न registered करवाते .
कविता की तो दो पंक्तियाँ भी आप चुरा कर लिख नहीं सकते .
यहाँ तो कविता का मूल भाव भी उड़ाया गया है .
समय मेरी देह पर तना था ठंडी कुल्हाड़ी सा यानी जब देह अनमनी हो उठी हो से लेकर कोयल का कूकना ,
कुओं के जल का मीठा होना . पहाड़ों पर गिरी मौसम की सबसे हसीन बर्फ ,
ढलान पर लड़की की जगह ढलान पर प्रेम --
इतने सारे इत्तेफाक क्या सिर्फ संयोग है ?
जाने दीजिये , कुछ लोग सोचते हैं ,
बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा ?
कभी आपकी किसी रचना पर इतनी चर्चा हुई ? नहीं ना ?
तो ईर्ष्या मत कीजिये .
उठाइए कलम . टीपीए और नुक्कड़ पर छा जाइये .
यह सही है कि कुछ बिम्ब उधार लिये गये है लेकिन जिन साहित्य प्रेमियो का अध्ययन व्यापक है उन्हे लगेगा कि जिसे भी साहित्य कहा जा रहा है उसमे कौन कहा और कितना मौलिक है. आदर्श स्तिथी ये हो कि लेखक इस उधारी की घोषणा करे. वैसे ये चोरी तो नही ही है. सुधी पाठक समझ जाते है और हन्स लेते है इस उधार के कारोबार पर.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदेखिये साहब ,
जवाब देंहटाएंयह चोरी का मामला इतना स्पष्ट है
कि इसके समर्थन में अगर कोई दलीलें या तर्क देता है तो उसकी अपनी मौलिकता पर शक-ओ-शुबहा होता है .
कविता क्या है आखिर ? कुछ शब्दों का जमाव ही तो ! एक नामालूम से कवि की कविता का मूल भाव चुरा लें -- दो-चार पंक्तियाँ अपनी डाल दें , स्त्रीलिंग को पुलिंग बना दें तो कविता आपकी हो गयी ? यह कोई ग़ालिब की शायरी तो है नहीं कि आप कहें कि हम इस से इतने मुतस्सर हुए कि ज़ेहन में शेर अटका रह गया .
एक कवि की किताब में से चुराई हुई पंक्तियों को भी अगर आप जायज़ ठहरा रहे हैं तो कहना पड़ेगा --
चोर चोर मौसेरे भाई ! बहनें भी शामिल हो सकती हैं इसमें ! तो साहित्यिक चोरों की जमात शुरू कर दीजिये अविनाश जी ! एक कतार खड़ी हो जाएगी !
दिव्य नर्मदा और ई गुरु राजीव के लिए विशेष --
जवाब देंहटाएंइस साम्य को क्या नाम देंगे ?
मनौती / ढलान पर लड़की --- मनोज शर्मा
बीता लौटता है -- पृष्ठ – 69 (मनोज शर्मा का 2005 में प्रकाशित कविता संग्रह )
ढलान पर प्रेम --- शशिकला राय --- हंस : फ़रवरी 2010 ( पृष्ठ – 45)
समय मेरी देह पर जब तना था ठंडी कुल्हाड़ी सा (मनोज शर्मा)
समय कुछ सर्द हो चला हो
देह अनमनी सी हो उठी हो . (शशिकला राय)
तभी वह कूकी मेरे जीवन में
देसी महीने के हिसाब से देखें तो
यह झूले पड़ने का मौसम था --- ( मनोज शर्मा )
कोयल कूकने के मौसम में
झूले पड़ने के इस मौसम में
शायद कोई ऐसे ही आता है --- ( शशिकला राय )
वह आयी
और कूओं का जल एकदम मीठा हो गया
पहाड़ों पर मौसम क़ी सबसे हसीन बर्फ गिरी
( मनोज शर्मा )
कोई ऐसे भी आता है क्या
कूओं का जल मीठा हो जायेगा
पहाड़ों पर गिरेगी मौसम क़ी सबसे हसीन बर्फ ( शशिकला राय )
नमस्कार रचना जी !
जवाब देंहटाएंरचना जी, एक ओर आप हमारी जानकारी को गलत कह रही है, दूसरी ओर आगे की अपनी ही पक्तिंयों में आप खुद ही मेरी जानकारी को सही सिद्ध कर रही हैं - यह लिख कर कि 'film Writers Association में कवि शायर जा जा कर अपनी चार छः पंक्तियों की ग़ज़लें न registered न करवाते'.
ज़ाहिर है कि कवि शायर जा जा कर अपनी चार छः पंक्तियों की ग़ज़लें film Writers Association में इसलिए ही registered करवाते हें कि कापी राईट क़ानून एक तिहाई अंश की नक़ल को, नक़ल ही नहीं मानता, अत: कवियों को अपनी चार छः पंक्तियों की ग़ज़लें भी registered करवानी पडती हैं.कानून सख्त होता तो registration की ज़रूरत ही न पड़ती . क्या समझी डा रचना ??
har vyakti ke najar men sari rachnayen pad jaayen aisa sambhav nahin hai, chahe vah sampadak hi kyon na ho? han yah jaroor hai ki hamara jameer hamen kavi ya lekhak sveekar nahin karega. apani chori se ham to vaakiph hain hi na. aur ye laanat malanat hui so alag. ye bahut sammaanjanak tamaga nahin hai ki ham kavi hain, are log door bhagate hain ki kahin ye kavita sunane na lag jaaye.
जवाब देंहटाएंहा हा हा हा हा .....मज़ा आ गया बहुत मज़ा आया.....अरे भाई साहब यहाँ शशिकला जी ने तो तोड़-मरोड़ कर अपनी किसी व्यैक्तिक प्रतिभा का परिचय तो दिया मगर यहाँ हमारे साथ तो यह हुआ कि कोई आलम भाई साहब अपना एक ब्लॉग बनाकर उसमें हमारे आलेखों को जस-का-तस चिपका दिए रहे थे....ये बात कोई सात-आठ माह पुर्व की है....तब भी हमने अपने ब्लोगर साथियों को बताया-चेताया था....मगर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी....और आज यह प्रतिक्रिया.....बाप रे बाप....हाय रामा ये तो गजब होई गवा रे.....ई सुतल लोग जाग गईल.....का बात है भोर हुवी गवि का.....????
जवाब देंहटाएंBhootnath jaise farzi naam se Ha Ha Ha karne men kya aata jaata hai , sahi naam se gambhirta se baat kijiye . Avinash Vachaspati ji ke is khulase se chori par kuchh to rok lagegi warna Bhai log kisi ki bhi rachanaon se jod tod karke apne naam se chhapwa lete hain ! Is pahal ke liye Nukkad team Badhayi ki patra hai !
जवाब देंहटाएंyeh bhootnath (!! ) aur Divya narmada (!!)kaun hain ? Log apne sahi naamon se kyon nahin likhate ? Aakhir sach kehne me jhooth naam ka sahara kyon len ?
जवाब देंहटाएंYaani aap sach bolna hi nahin chahte !
इस खबर को देखकर हैरत होती है और उससे भी जियादा दुख… 'हंस' और 'नया ज्ञानोदय' जैसी नामी पत्रिकाओ का ये हाल है तो क्या कहा जा सकता है? जब इन साहित्यिक पत्रिकाओ मे नक़्क़ाल छापते रहेंगे और मौलिक लेखक दरकिनार होते जाएँगे तो हिन्दी साहित्य का क्या होगा?? फिल्मी लेखको की तो बात ही छोड़ दीजिए। इस मामले अकादमियों को मंत्री-संतरी की चाकरी से बाहर आकर कुछ जहमत उठानी चाहिए, ताकि मौलिकता बरकरार रहे। लिहाजा हम जैसे नवोदित कवियों के लिए ब्लॉग ही बेहतर विकल्प है। लेकिन 'चतुर' नक्कालों को देखकर अब इसमे भी भय लगाने लगता है।
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